सोच-सोचकर तकलीफ़ होती है, पर ऐसा हक़ीक़त में हो रहा है और हम उसे रोक नहीं पा रहे हैं। अपनी इस असहाय स्थिति का हमें अहसास भी नहीं होने दिया जा रहा है। वह यह कि क्या लोगों को ठीक से जानने के लिए अब उनका चले जाना ज़रूरी हो गया है? हम लोगों को, उनके काम के बारे में, उनके मानवीय गुणों के बारे में, जो कहीं दबे पड़े होंगे, उनके चले जाने के बाद ही क्यों जान पा रहे हैं? हमें संभल पाने का मौक़ा भी क्यों नहीं मिल रहा है? एक शोक से उबरते हैं कि दूसरा दस्तक देने लगता है! हो सकता है कि हम जो अभी क़ायम हैं, हमारे बारे में भी कल ऐसा ही हो।