बीमारी और मौत के आंकड़ों से अब डर ख़त्म हो गया है?

श्रवण गर्ग

गुरुवार, 13 अगस्त 2020 (21:11 IST)
हमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि बीमारी और मौतों के तेज़ी से बढ़ते हुए आंकड़ों से लोगों ने अब डरना बंद कर दिया है। हालात पहले के इक्कीस दिनों के मुक़ाबले इस समय ज़्यादा ख़राब हैं पर जैसे-जैसे आंकड़ों को ग्राफ ऊंचा हो रहा है, ख़ौफ़ भी कम होता जा रहा है। कारण कुछ भी हो सकते हैं। एक यह भी कि लोग अब जीना चाहते हैं और उसके लिए अपने आप को बदलने का इरादा भी रखते हैं। यह इरादा लोगों की बदली हुई आवाज़ों और चाल-ढाल में नज़र भी आने लगा है।

लोगों को अच्छे से अंदाज़ा है कि वर्तमान महामारी ने व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र और एक विश्व नागरिक के रूप में सभी को किस कदर बदलकर रख दिया है, अंदर से निचोड़कर भी। हमें पता ही नहीं चल पाया कि पिछले पांच महीनों के दौरान हम कितने बदल चुके हैं, प्रत्येक पल कितने और बदल रहे हैं। आगे आने वाले साल हमें संवेदनशीलता के स्तर पर और कितना परेशान करने वाले हैं।

हमें महसूस होने लगा था कि एक व्यक्ति के रूप में स्वयं की उपस्थिति और निरंतरता के प्रति हम अपना आत्मविश्वास खोते जा रहे हैं। मास्क की अनिवार्यता के अनुशासन ने हमारे चेहरों से गुम हुई मुस्कुराहटों को तो दबा ही दिया हमारे प्राकृतिक तनावों को भी सार्वजनिक होने से प्रतिबंधित कर दिया। ऐसा इसलिए हुआ कि सब कुछ अचानक ही हो गया। एक राष्ट्र के तौर पर हम केवल सीमाओं पर ही युद्धों को लड़ने की सैन्य तैयारियां करते रहे और कल्पना में भी नहीं सोचा कि कोई युद्ध ऐसा भी हो सकता है जिसे नागरिकों और समाजों को ही अपने स्तरों पर ही लड़ना होगा।

अच्छी बात यह है कि कोरोना को अब हमने एक बीमारी, वेंटिलेटर की भयावहता, पीपीई किट की घुटन और किसी जादुई वैक्सीन की तुरंत ज़रूरत से बाहर निकलकर नए संदर्भों में देखना प्रारम्भ कर दिया है। ये संदर्भ, एक नौकरी, अर्थव्यवस्था, रोज़गार-धंधे, बच्चों के भविष्य से जुड़े हुए हैं। हमने हक़ीक़त का तो पहले तीन सप्ताहों की समाप्ति के बाद ही अंदाज़ा लगा लिया था और यह भी समझ लिया था कि आने वाले समय में हमारे और समाज के जीने की पद्धति वह नहीं हो सकती जो कि हमारी आदत बन गई है।

कोरोना ने हमें इतने दिनों में परिवार के स्तर पर ज़िंदगी जीने के जिस सकारात्मक तरीक़े से संस्कारित किया है। उसके कारण हम अपनी वर्तमान शासन व्यवस्था के गुण-दोषों, उसकी कमियों और उसकी सीमाओं के प्रति और भी ज़्यादा शिक्षित और सतर्क हो गए हैं। व्यवस्था की क्षमताओं के प्रति हमारा अतिरंजित आत्मविश्वास भी तिरोहित हो गया है। हो सकता है ये सब अनुभव हमें एक बेहतर नागरिक, सामाजिक प्राणी और विश्व नागरिक बनने में मदद करें।

कोरोना के कारण हुआ सबसे बड़ा परिवर्तन यह है कि जो दुनिया हमारी नज़रों में पहले लगातार छोटी हो रही थी, वह अचानक से बड़ी होती जा रही है। व्यक्तियों के बीच दो गज़ की दूरी का विस्तार राष्ट्रों के बीच भावनात्मक और भौगोलिक सीमाओं के संदर्भों में भी हो रहा है। हो सकता है कि इन सब बदलावों के कारण व्यक्ति और राष्ट्र के रूप में हमें अपने आपको पहले से कहीं ज़्यादा आत्मनिर्भर और ताकतवर बनाना पड़े। अपनी तात्कालिक या अल्पकालिक तकलीफ़ों और दुःख-दर्दों को दीर्घकालिक सम्पन्नता में परिवर्तित करने का अब यही एकमात्र रास्ता भी बचा है। यह भी मुमकिन है कि हम सब यह सम्पन्नता अपने जीवन के नज़दीक के कालखंड में नहीं देख पाएं।

इतना तो अब तय हो गया है कि हमारी नियति अब पीछे मुड़कर जो छूट गया है या छूटता जा रहा है उसे देखते रहने की नहीं हो सकती। हमें अब आगे की ओर ही देखना पड़ेगा। परिवर्तन की इस यात्रा के दौरान हम जो कुछ भी देख या समझ पा रहे हैं वह किसी नई भाषा को कानों से पढ़ने और उसके संगीत को आंखों से सुनने जैसा है। सुखद यह है कि इस कठिन यात्रा में हम अकेले नहीं हैं।

सारी दुनिया में भी एक ही समय पर यही सब कुछ हो रहा है। राष्ट्रों के बीच अब फ़र्क़ केवल बीमारी से संक्रमित होने वाले लोगों की काम-ज़्यादा संख्या और होने वाली मौतों के आंकड़ों का ही रह गया है। लड़ाई अब केवल वैक्सीन की खोज के ज़रिए ही महामारी पर विजय पाने के प्रयासों से काफ़ी आगे बढ़ गई है। सबसे अच्छी बात यह है कि हमने इस नई हक़ीक़त को स्वीकार कर लिया है और अपने आसपास नई उम्मीदों के संकेत भी हमें दिखाई पड़ने लगे हैं! (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
 

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