अन्यथा सारी प्रगति को भ्रष्टाचार खा जाएगा

ललि‍त गर्ग
देश में भ्रष्टाचार पर जब भी चर्चा होती है तो राजनीति को निशाना बनाया जाता है। आजादी के 70 साल बीत जाने के बाद भी हम यह तय नहीं कर पाए कि भ्रष्टाचार को शक्तिशाली बनाने में राजनेताओं का बड़ा हाथ है या प्रशासनिक अधिकारियों का?
 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भ्रष्टाचार को समाप्त करने की योजनाओं को लेकर सक्रिय हैं, लेकिन वे इसके लिए अब तक राजनेताओं को ही निशाना बनाते रहे हैं। यह पहली बार हो रहा है कि प्रशासनिक अधिकारियों पर भी अब शिकंजा कसा जा रहा है। रिश्वत और सुविधा शुल्क लेने वाले अफसरों का पर्दाफाश करने के लिए केंद्र सरकार ने एक और सख्त कदम उठाया है।
 
मेरी दृष्टि में यह एक सही दिशा में सही शुरुआत है। सरकार ने आईएएस अधिकारियों से कहा है कि वे 31 जनवरी 2018 तक अपनी संपत्ति का ब्योरा जमा करा दें। ऐसा न करने वाले अधिकारियों के प्रमोशन या उनकी फॉरेन पोस्टिंग पर विचार नहीं किया जाएगा।
 
गौरतलब है कि एक अर्से से सरकार प्रशासनिक अधिकारियों से अपनी संपत्ति का ब्योरा देने की अपील कर रही है, लेकिन अधिकारी इसकी अनदेखी कर रहे हैं। आखिरकार सरकार ने यह सख्त रुख अपनाया है, जो निश्चय ही सही दिशा में उठाया गया कदम है। नि:संदेह इससे प्रशासन में व्याप्त भ्रष्टाचार को नियंत्रित किया जा सकेगा।
 
यह एक शुरुआत है, इसमें अभी और कठोर निर्णय लेने होंगे। न केवल कठोर निर्णय लेने होंगे, बल्कि उनको सख्ती से लागू भी करना होगा। अब कितनी सख्ती बरती जाएगी और कितनी पारदर्शिता को अपनाया जाएगा, यह जानकारी 1 फरवरी 2018 को या इसके बाद ही मिल पाएगी, बशर्ते सरकार इसे सार्वजनिक करे।
 
प्रमोशन और फॉरेन पोस्टिंग में आईएएस अधिकारियों की दिलचस्पी होती ही है, लेकिन संपत्ति का ब्योरा देकर फंसने की आशंका हो तो ऐसे कितने अधिकारी इस फेरे में आएंगे, कहना मुश्किल है। अधिकारियों ने सही ब्योरा दिया भी है या नहीं, इसकी क्या गारंटी? जो अधिकारी ब्योरा देंगे भी, उनका ब्योरा कितना सही या गलत है, यह कैसे जाना जा सकेगा? ताजा सरकारी निर्देश इस बारे में कुछ नहीं कहता।
 
पहली नजर में ऐसा लग सकता है कि गलत आंकड़े देकर कोई भी अपने लिए मुसीबत क्यों मोल लेगा? लेकिन यह तय है कि अधिकारियों की सही स्थितियों एवं उनकी आर्थिक स्थितियों को उजागर करके ही भ्रष्टाचार का सही-सही आकलन किया जा सकता है। सवाल यहां नौकरशाहों पर विश्वास करने का नहीं है, सवाल यहां नौकरशाहों की अपने कर्तव्यपरायणता और मोदी सरकार द्वारा बनाई गई नीति को बिना किसी संशय के क्रियान्वित करने का है।
 
'सबका साथ-सबका विकास' की रणनीति के साथ पिछले 20 महीनों में बनाई गई कई महत्वाकांक्षी योजनाओं के क्रियान्वयन में हो रही देरी से प्रधानमंत्री मोदी की निगाहें टेढ़ी होना स्वाभाविक है। लेकिन इन टेढ़ी निगाहों से कहीं प्रशासन में भ्रष्टाचार के भूत को समाप्त करने की दिशा में भी कोई ठोस कार्रवाई होती है तो यह राष्ट्र के लिए शुभता का सूचक है। मोदी के कड़े होते रुख का प्रभावी और सीधा-सीधा असर सरकार के कार्यों पर दिखेगा, इसमें संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है अन्यथा हमारी सारी प्रगति को भ्रष्टाचार की महामारी खा जाएगी।
 
कार्यपालिका शहंशाह-तानाशाही की मुद्रा में है, वह कुछ भी कर सकती है, उसको किसी से भय नहीं है, उसका कोई भी बाल भी बांका नहीं कर सकता- इसी सोच ने उसे भ्रष्टाचारी बनाया है। जहां नियमों की पालना व आम जनता को सुविधा देने में अफसरशाही ने लाल फीतों की बाधाएं बना रखी हैं। प्रशासकों की चादर इतनी मैली है कि लोगों ने उसका रंग ही 'काला' मान लिया है। अगर कहीं कोई 1 प्रतिशत ईमानदारी दिखती है तो आश्चर्य होता है कि यह कौन है? पर हल्दी की 1 गांठ लेकर थोक व्यापार नहीं किया जा सकता है।
 
नौकरशाह की सोच बन गई है कि सरकारी तनख्वाह तो केवल टेबल-कुर्सी पर बैठने के लिए मिलती है, काम के लिए तो 'और' चाहिए। हमारा सरकारी तंत्र जैसा रूप ले चुका है, उसे देखते हुए यह आशंका बनी हुई है कि अधिकारियों द्वारा दिए गए संपत्ति के ब्योरे का इस्तेमाल ऊपर बैठे लोगों की पसंद या नापसंद के आधार पर किया जाए।
 
नौकरशाही में फैले भ्रष्टाचार की समस्या गंभीर है, इस बात से तो कोई भी इंकार नहीं कर सकता, लेकिन इससे लड़ने के लिए अफसरशाही को प्रेरित करने का सबसे अच्छा तरीका यह था कि राजनीतिक नेतृत्व इस तरह की बंदिशें खुद पर लागू करके उसके सामने उदाहरण प्रस्तुत करता, मगर ऐसा कुछ नहीं हो रहा। जाहिर है, खुद को पारदर्शिता के दायरे में लाने को लेकर राजनीतिक नेतृत्व की कोई दिलचस्पी नहीं है।
 
बावजूद इसके, संपत्ति के खुलासे से नौकरशाही के भ्रष्टाचार पर जितनी भी लगाम लग सके, उसका स्वागत किया जाना चाहिए। अधिकारी अंतत: लोकसेवक हैं। उन पर राष्ट्र को निर्मित करने की बड़ी जिम्मेदारी है। ऐसे में यदि वे भ्रष्टाचार में लिप्त पाए जाते हैं या किसी गंभीर लापरवाही को अंजाम देते हैं, तो उन पर कार्रवाई भी होनी चाहिए और इसका अहसास भी उन्हें रहना चाहिए।
 
अधिकारियों का भ्रष्टाचार इस लिहाज से भी एक बड़ा अपराध है कि इस कारण से इसकी जड़ें प्रशासन के निचले स्तर तक जाती हैं। प्रशासनिक भ्रष्टाचार का एक सिरा राजनीतिक भ्रष्टाचार से भी जुड़ता है। यही कारण है कि ऐसे अधिकारियों को राजनेताओं का संरक्षण भी प्राप्त होता है और इसी कारण आज तक प्रशासनिक भ्रष्टाचार के खिलाफ कोई बड़ी कार्रवाई नहीं हुई है।
 
प्रशासनिक सुधार के साथ भ्रष्टाचार पर नकेल मोदी सरकार की प्रमुख प्रतिबद्धताओं में है। उम्मीद है कि सरकार इस दिशा में उठाए जा रहे कदमों में सख्ती और तेजी लाएगी। देश की शासन-व्यवस्था के सुचारु संचालन के लिए सक्षम और ईमानदार नौकरशाही का होना जरूरी है। इसी कारण से भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) को 'स्टील फ्रेम' यानी 'लौह ढांचा' कहा जाता है, लेकिन भ्रष्टाचार से इस 'लौह ढांचे' में जंग लग चुकी है, जो देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। अक्सर ऐसी खबरें आती हैं कि अमुक अधिकारी से अकूत धन-संपत्ति बरामद हुई है। प्रशासनिक भ्रष्टाचार के कारण सरकारी योजनाओं और कार्यक्रमों का लाभ आम जनता तक नहीं पहुंच पाता है तथा देश के सर्वांगीण विकास की राह बाधित होती है।
 
कहा जाता है कि भ्रष्टाचार तो भारत की आत्मा में रच-बस गया है। इसे सख्त कानून से नहीं, बल्कि नैतिक शिक्षा से ही समाप्त किया जा सकता है। नैतिक शिक्षा के तो दर्शन ही दुर्लभ हो गए हैं। कानून का मौजूदा स्वरूप तो ऐसा है कि ईमानदारी से कमाने वाले लोग ही सर्वाधिक उसकी चपेट में आते हैं। अगर तमाम तरह के करों से बचने के लिए ये लोग अपनी आय का कुछ हिस्सा छिपाकर रखते हैं, तो उन पर सरकारी विभाग और प्रशासनिक अधिकारी पुरजोर ताकत का इस्तेमाल करते हैं।
 
जहां तक अपराधियों के कालेधन का सवाल है तो सरकार उनके प्रति उतना बलपूर्वक कदम नहीं उठाती है। इनमें से बहुतों को 'ऊपर' से संरक्षण मिला होता है और कुछ तो चुनाव लड़कर सांसद-विधायक तक बन जाते हैं। अपवादस्वरूप अनैतिक तरीके से करोड़ों कमाने वाले कारोबारियों पर नकेल कसी जाती है, तो वे विदेश भाग जाते हैं।
 
ईमानदार छवि वाले प्रधानमंत्री मोदी अगर सचमुच चाहते हैं कि करारोपण से बचने के चक्कर में पैदा होने वाले कालेधन पर रोक लगाई जाए तो उन्हें सरकार की जेब भरने वाले तरीकों पर निश्चित तौर पर गौर करना होगा। नामुमकिन निशानों की तरफ दौड़ाने से समस्या का समाधान नहीं होगा, क्योंकि ऐसी दौड़ आखिर जहां पहुंचती है, वहां कामयाबी की मंजिल नहीं, बल्कि मायूसी का गहरा गड्ढा है।
 
ईमानदारी और नैतिकता शतरंज की चालें नहीं, मानवीय मूल्य हैं। इस बात को समझकर ही हम प्रशासन में पारदर्शिता, जवाबदेही एवं ईमानदारी को स्थापित कर सकेंगे।

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