भारत की आज़ादी के आंदोलन में मौलाना मोहम्मद अली एक प्रभावी नेता हुआ करते थे।मोहम्मद अली,मुसलमानों के हकों की लड़ाई लड़ते थे और उन्होंने इसलिए कामरेड के नाम से एक समाचार पत्र भी निकाला था। मुस्लिम लीग के संस्थापकों में से एक मोहम्मद अली को 1923 में कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। उनके दौर में भारत में खूब साम्प्रदायिक दंगे हुए।
उनके अध्यक्षीय काल में ही 21 सितम्बर 1924 को गांधीजी ने इन साम्प्रदयिक दंगों को दूर करने के लिए 21 दिन का व्रत लिया था। मोहम्मद अली ने एक बार बापू की मौजूदगी में कहा,धर्म और इन्सान की दृष्टि से मै मुसलमान हूँ. जिसका अर्थ यह है कि इस्लाम के सिद्धांतों को अन्य समस्त धार्मिक सिद्दांतों से उच्चतर समझता हूँ और इस दृष्टि से मैं प्रत्येक छोटे से छोटे मुसलमान और बुरे से बुरे कलमा पढ़ने वाले को अकेले गांधी से ही नहीं समस्त हिन्दुओं और ईसाइयों से अच्छा समझता हूँ। मुसलमानों को उच्चतम मानना मेरा धर्म है,यदि मैं यह मानूं तो मै मुसलमान भी न रहूंगा।
इन सबके बाद भी बापू को मोहम्मद अली से कोई परहेज नहीं था। बापू ने ही मोहम्मद अली को कांग्रेस अध्यक्ष बनवाया था। बापू का लक्ष्य भारत की आज़ादी था और वे इस लक्ष्य के लिए वैचारिक मतभेद को आड़े नहीं आने देना चाहते थे। जनता को जोड़े रखने की उनकी जिजीविषा और कला को तत्कालीन समय के मुस्लिम लीग के नेता भी जानते थे और कांग्रेस के नेता भी,लेकिन गांधी का वे विरोध भी करते थे।
अखिल भारतीय खिलाफत कमेटी का पहला सम्मेलन दिल्ली में 24 नवंबर 1919 को हुआ इसकी अध्यक्षता महात्मा गाँधी द्वारा की गई। मुस्लिम कट्टरपंथ नेताओं के बीच बैठकर बापू ने कहा कि खिलाफत आंदोलन को हिन्दुओं का समर्थन मन से मिल सकता है,यदि वे गो हत्या को बंद कर दे। खिलाफत आंदोलन की सभा में यह बेहद अप्रत्याशित था लेकिन इसका व्यापक असर हुआ और इस पर अमल भी हुआ। खिलाफत का विरोध करने वाले कई नेताओं की चेतना इससे जागी। महात्मा गांधी के इस आंदोलन से जुड़ते ही कांग्रेस के बड़े नेता भी इस आंदोलन से जुड़ गये। खिलाफत आंदोलन प्रथम विश्व युद्ध के बाद ओटोमन साम्राज्य के विघटन के खिलाफ मुस्लिम विरोध को संगठित कर रहा था।
खिलाफत आंदोलन के लिए गांधीजी के समर्थन ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के उनके प्रयासों में सहायता की और खिलाफत आंदोलन और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस दोनों ने असहयोग के समसामयिक कार्यक्रमों को शुरू किया। असहयोग आंदोलन अहिंसक था और इसमें भारतीयों को अपनी उपाधियों,सरकारी शैक्षणिक संस्थानों, अदालतों,सरकारी सेवा का त्याग करना तथा विदेशी वस्तुओं और चुनावों का बहिष्कार करना तथा करों का भुगतान करने से इनकार कर देना था,जो भारतीयों ने अभूतपूर्व एकता के साथ किया।
महात्मा गांधी यदि खिलाफत आंदोलन का समर्थन नहीं करते तो भारत की आज़ादी से एक बड़ा तबके के दूर होने का खतरा था और बापू इस संकट का मतलब बखूबी जानते थे। खिलाफत आंदोलन और असहयोग आन्दोलन लगभग साथ साथ चला और यह हिन्दू मुस्लिम एकता का अभूतपूर्व प्रदर्शन ब्रिटिश साम्राज्य को हैरान कर कर गया। खिलाफत आंदोलन विशुद्द धार्मिक और राजनीतिक आंदोलन था लेकिन बापू राजनीति को धर्म से अलग करके कभी देखते भी नहीं थे।
दरअसल बापू को भारत की राजनीति की बेहतर समझ थी और वे भारतीयों पर धर्म के प्रभाव को अपनी राजनीतिक शक्ति बनाने में सफल भी हुए। बापू को भारत की सांस्कृतिक एकता का प्रतीक माना जाता है,उनका सभी धर्मो के प्रति गहरा सम्मान था। लेकिन बापू की गहरी आस्था राम में थे और उन्होंने इसे बताने से कभी परहेज भी नहीं किया।
मोहम्मद अली जिन्ना पाकिस्तान को हासिल करने के लिए सारी हदें पार कर गए और 16 अगस्त 1946 को जिन्ना ने डायरेक्ट एक्शन की घोषणा कर दी। बंगाल में खून की होली खेली गई और नोआखाली सांप्रदायिक हिंसा से बूरी तरह प्रभावित हुआ। महात्मा गांधी ने चार महीनों तक नोआखाली के हिंसा प्रभावित गांवों का भ्रमण कर शांति समितियां गठित की थी। 7 नवंबर 1946 को महात्मा गांधी नोआखाली पहुंचे तब हिंसा के शिकार लोगों के सामने कोई रास्ता नज़र नहीं आ रहा था। कभी साथ मिलकर रहने वाले हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे को शक की निगाह से देखने लगे थे।
नोआखाली आने के बाद महात्मा गांधी हिंसा प्रभावित गांवों की पदयात्रा शुरू की। चार महीनों की अपनी यात्रा के दौरान वे नंगे पांव रहे। उनका मानना था कि नोआखाली एक श्मशान भूमि है,जहां हज़ारों बेक़सूर लोगों की समाधियां हैं। ऐसी जगहों पर चप्पल पहनना मृत आत्माओं के प्रति अपमान है। लोग बापू पर मैला फेंकते,उन पर थूकते,लेकिन बापू इससे अप्रभावित होकर अपना काम करते रहे। जिन्ना ने बापू को हिन्दुओं का नेता कहा था लेकिन जब लोगों ने बापू को समझा तो मुसलमान अपनी स्वेच्छा से गांधी जी की पदयात्रा में शामिल होते गए। हिंसा में बेघर हुए लोगों के पुनर्वास में स्थानीय मुसलमानों ने सहयोग करना शुरू कर दिया। महात्मा गांधी के चार महीनों के प्रवास का असर नोआखाली और आस-पास के ज़िलों में दिखने लगा। हिंदुओं के जिन मंदिरों को तहस-नहस किया गया,बाद में उन्हीं मंदिरों का पुनर्निर्माण मुसलमानों के सहयोग से शुरू हुआ।
यह भी दिलचस्प है की बापू के साथ यहां भी राम थे। बापू नोआखाली के खेतों से गुजरते हुए रामधुन गुनगुनाते रहते। 13 जून 1947 को प्रार्थना सभा में बापू ने नोआखाली में रामधुन के प्रयोग और प्रभाव पर बताया कि राम रहीम का नाम सुनकर ही लोग पुन: एक दूसरे पर भरोसा करने लगे।
संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक पंथनिरपेक्ष राष्ट्र बताया गया है। 1976 में इसे धर्मनिरपेक्ष कर दिया गया। भारत की राजनीति में इन दोनों शब्दों को लेकर विवाद होता रहता है। पंथनिरपेक्ष राज्य से आशय यह है कि राज्य की दृष्टि में सभी पंथ समान हैं और पंथ एवं दर्शन के आधार पर राज्य किसी भी व्यक्ति के साथ भेदभाव नहीं करेगा। वहीं धर्मनिरपेक्षता धर्म को राजनीति से पृथक करने का कार्य करती है। पश्चिमी धर्मनिरपेक्षता जहां धर्म एवं राज्य के बीच पूर्णत: संबंध विच्छेद पर आधारित है,वहीं भारतीय संदर्भ में यह अंतर धार्मिक समानता पर आधारित है। पश्चिम में धर्मनिरपेक्षता का पूर्णत: नकारात्मक एवं अलगाववादी स्वरूप दृष्टिगोचर होता है,वहीं भारत में यह समग्र रूप से सभी धर्मों का सम्मान करने की संवैधानिक मान्यता पर आधारित है।
आईरिस मेरियम यंग,एक प्रसिद्ध राजनीतिक दर्शनशास्त्री रही है,उन्होंने कहा था कि विभेद की राजनीति का अर्थ केवल लोगों को अधिकार प्रदान कर देना नहीं है,बल्कि उनके प्रति व्याप्त पूर्वाग्रह और विभेद को भी समाप्त कर देना है। भारत में पंथनिरपेक्षता और धर्मनिरपेक्षता की व्याख्याओं ने भारत की धर्म के प्रति मान्यताओं ने खूब चोट पहुंचाई है। इन संविधानिक उपबन्धों की कथित राजनीतिक व्याख्याओं से लोगों के बीच की दूरियां बढ़ गई है। भारत एक लोकतान्त्रिक देश है,अत: सांप्रदायिक विभाजन को दूर करने के समाधान खोजे जाना चाहिए थे लेकिन उनको बना कर रखा गया। बापू साम्प्रदायिक समस्याओं के समाधान तक जल्दी पहुंच जाते थे।
बापू ने अपने राजनीतिक जीवन में हिन्दू धर्म की मान्यताओं,आदर्शों और मूल्यों का सार्वजनिक रूप से पालन किया तथा धार्मिक मामलों में भाग लेने से कभी परहेज नहीं किया। बापू को किसी भी धर्म के कट्टरपंथी नेता से मिलने में कभी संकोच नहीं था,यहीं कारण है की बापू उस दौर में भारत के सर्वप्रिय नेता बन गए जब संचार के कोई साधन नहीं थे। लोगों के लिए बापू का नाम ही विश्वास का नाम था,इतना की कश्मीर के मुसलमानों ने उन्हें जिंदा पीर कहा था।
22 जनवरी को अयोध्या में राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा हो रही है,इस कार्यक्रम में शामिल होने या न होने को लेकर राजनीतिक विचारधाराएं एक दूसरे के सामने है। राम भारत के करोड़ों लोगों के आराध्य है और सदियों से यह प्रभाव जारी है। भारत में कई साम्राज्य आएं और खत्म हो गए,राम का प्रभाव अक्षुण्ण बना रहा। जिस देश में बिना राम का नाप जपे करोड़ों लोगों की सुबह नहीं होती,उस प्रभु के जन्मस्थान पर आयोजन में शामिल होने के लिए बापू अवश्य दौड़े चले आते।
राम मन्दिर के निर्माण के साथ ही भारत में साम्प्रदयिक विभाजन की आशंकाओं पर भी विराम लग गया है। न्यायालय के निर्णय की गरिमा रखते हुए भारत के करोड़ों मुसलमानों ने भी इसका स्वागत किया है और भारत भूमि पर राम की महत्ता में विश्वास भी जताया है। बाप,जनभावना को ही तो समझते थे,इसलिए वे आलोचनाओं को धराशाई करते हुए राजनीतिक रूप से सर्व स्वीकार्य हुए। बापू कहते थे कि धर्म विहीन राजनीति भारत में नहीं हो सकती। बापू ने सर्वधर्म समभाव पर बल प्रदान किया और राम भारत में समभाव का ही प्रतीक है।
कहते है,लोकतंत्र को वास्तविक खतरा नेताओं से बल्कि नेताओं के अभाव से है। भारत में विपक्ष की प्रासंगिकता को लेकर सवाल उठ रहे है। जनभावनाओं के साथ रहकर कैसे राजनीतिक लक्ष्यों तक पहुंचा जा सकता है,यह महात्मा गांधी से विपक्ष के नेता भली भांति सीख सकते है।
(डॉ.ब्रह्मदीप अलूने गांधी है तो भारत है किताब के लेखक है)
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)