नवरात्रि विशेष : प्राचीन कला और इतिहास में देवी का स्वरूप

नर्मदाप्रसाद उपाध्याय
-मां जैसी दुर्लभ देन मनुष्य जाति के लिए कोई दूसरी नहीं। एक ओर वह वात्सल्य की प्रतिमूर्ति है तो दूसरी ओर शक्ति का अजस्र स्रोत।भारतीय आस्था सृष्टि के उदय से ही इसी मां की आराधना करती रही है।हमारी परम्परा में सप्त मातृकाओं  की पूजन और आराधना इतिहास के आरंभिक काल से ही है। 
 
मातृ पूजन की अवधारणा विश्व के अन्य देशों की सभ्यताओं में भी प्राचीन काल से विद्यमान रही है। बेबिलोन,यूनान और रोमन सभ्यताओं में देवी पूजा किये जाने के संबंध में विद्वानों ने अपने निष्कर्ष दिये हैं। 
 
यह भी रोचक तथ्य है कि जब यूनानियों ने रोमनों को पराजित किया तो उनकी देवी अफ्रोदाइत रोमनों की देवी वीनस बन गईं।
 
भारत के संबंध में विद्वानों का मानना है कि सिंधु घाटी की सभ्यता के नागरिक जिन देवताओं की पूजा करते थे वे आगामी वैदिक सभ्यता में पशुपति और रुद्र कहलाए तथा वे जिस मातृका की उपासना करते थे वे वैदिक सभ्यता में देवी का आरंभिक रूप बनीं। 
 
माता का यह स्वरूप प्रकृति के निकट था। मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक सील में पीपल के वृक्ष के नीचे खड़ी देवी का अंकन है।उनके समक्ष एक उपासक है तथा सील के निचले वाले भाग में सात अन्य आकृतियां हैं। इस अंकन में देवी के मस्तक पर दो शृंगयुक्त आभूषण हैं। सिंधु घाटी की सभ्यता में भी मातृ देवी का प्रतीकात्मक अंकन मिला है।
 
 ऋग्वेद में अनेक देवियों के नाम हैं : जैसे,पृथ्वी,सरस्वती,अरणि,दिशाना,श्री,सूर्या,पुरन्धि,मही,गौरी,उर्वरा,रेवती,मही आदि।
 
इनमें सर्वशक्तिमान देवी अदिति हैं जो समस्त प्राणियों की जननी हैं।परवर्ती वैदिक काल में देवताओं की पत्नी के रूप में देवियों की प्रतिष्ठा हुई।

इस काल में अनेक देवियों के नाम मिलते हैं जैसे अम्बिका, कात्यायिनी,कन्याकुमारी आदि। इसी क्रम में सात कालियों के नाम भी मिलते हैं। परवर्ती वैदिक काल के अन्त तक वैदिक धर्म में देवियों का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाता है। तैत्तरीयोपनिषद में "मातृ देवोभव" स्पष्ट रूप से कहा गया है।
 
बाद के काल में इस मातृ शक्ति के स्वरूप का अनुपम विस्तार है।कहीं वे काली हैं,दुर्गा और वाराही हैं तो कहीं कृष्ण की परम आल्हादिनी शक्ति के रूप में राधा।
 
 शाक्त सम्प्रदाय में सात देवियों की अवधारणा है। ये हैं, ,ब्रह्माणी,वैष्णवी,माहेश्वरी,इन्द्राणी,कौमारी,वाराही,और चामुंडा। इन्हें मातर भी कहा जाता है।

 हमारे धर्म ग्रंथों और उपासना पद्धतियों में देवी की आराधना के प्रचुर उल्लेख हैं।हमारे कलाकारों ने भी मां के अनुपम और विविध रूपों को शिल्पित और रूपायित किया है। देवी के अनेक शिल्प पूरे दक्षिण एशिया में विशेष रूप से कम्बोडिया,विएतनाम और इण्डोनेशिया में बनाए गये। आज तो पूरे विश्व में मां की आराधना हर भारतवासी के घर में की जाती है।
 
  देवी का महिषासुर मर्दिनी स्वरूप बहुत शिल्पित हुआ। दसवीं सदी के पाल काल में जहां देवी का यह स्वरूप शिल्पित हुआ तो दसवीं से 14 वीं सदी के बीच होयसल काल में उनकी सुन्दर अलंकृत मूर्तियां बनीं। 14 वीं सदी में कुल्लू में सुन्दर देवी शिल्प बनाए गए।प्रायः प्रत्येक युग में देवी के मनोरम शिल्प बने।उनका वर्णन असीमित होगा। इसी प्रकार नेपाल में आठ माताओं को पूजने की परम्परा रही।वहां सुन्दर धातु शिल्प बने।
 
  चित्रांकन की परम्परा में देवी के अंकन प्रायः प्रत्येक शैली में राजश्थान, पहाड़ और मालवा से लेकर पूरे भारत के सभी अंचलों में हुए। दसवीं सदी से लेकर आधुनिक काल तक इन अंकनों के किए जाने की अटूट परंपरा रही। पूर्वी भारत में विशेष रूप से बंगाल में जहां देवी पूजन की उल्लासमय सुदीर्घ परम्परा है वहां विशेष रूप से कालीघाट शैली में बहुत मनभावन अंकन हुए। 
 
देश में जहां एक ओर ओरछा की भित्तियों पर देवी विराजीं तो वहीं दूसरी ओर बघेलखण्ड के कलाकार ने उन्हें सफेद सिंह पर प्रतिष्ठित किया। उल्लेखनीय है कि सबसे पहले सफेद शेर रीवा के जंगल में ही सन1952 में मिला था। देवी को आधुनिक कलाकारों ने भी बहुत चित्रित किया।तैय्यब मेहता की देवी की एक कलाकृति 20 करोड़ रुपए में बिकी। इसे 1993 में बनाया गया था।
 
यह मां के स्वरूप की एक झलक भर है लेकिन क्या ज़रूरी है कि स्नान सागर में ही हो। आंखें केवल निहारकर भी देह और मन को धन्य कर देती हैं। आइए आंखों को भरपूर खोलें और धन्य हो लें। 
लेखक संस्कृतिविद्, ललित निबंधकार और कला इतिहासकार हैं। वाणिज्यकर विभाग में निदेशक रहे हैं। 

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