गुरु नानक देव : ईश्वर के सच्चे प्रतिनिधि का समूचा जीवन प्रेरणादायी

नानक नाम चढ़दी कला, तेरे भाणे सरबत दा भला...
 
भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक गुरु को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। यहां तक कि हमारी वैदिक संस्कृति के कई मंत्रों में 'गुरु परमब्रह्मा, तस्मै श्री गुरुवे नमः' अर्थात् गुरु को साक्षात् परमात्मा परमब्रह्म का दर्जा दिया गया है। आध्यात्मिक गुरु न केवल हमारे जीवन की जटिलताओं को दूर करके जीवन की राह सुगम बनाते हैं, बल्कि हमारी बुराइयों को नष्ट करके हमें सही अर्थों में इंसान भी बनाते हैं। सामाजिक भेदभाव को मिटाकर समाज में समरसता का पाठ पढ़ाने के साथ समाज को एकता के सूत्र में बांधने वाले गुरु के कृतित्व से हर किसी का उद्धार होता आया है। एक ऐसे ही धर्मगुरु हुए गुरु नानक देव। जिन्होंने मूर्ति पूजा को त्याग कर निर्गुेण भक्ति का पक्ष लेकर आडंबर व प्रपंच का घोर विरोध किया। इनका जीवन पारलौकिक सुख-समृद्धि के लिए श्रम, शक्ति एवं मनोयोग के सम्यक् नियोजन की प्रेरणा देता है। गुरु नानक देव के व्यक्तित्व में दार्शनिक, योगी, गृहस्थ, धर्म सुधारक, समाज सुधारक, कवि, देशभक्त और विश्वबंधु के समस्त गुण मिलते हैं।
 
गुरु नानक देव का जन्म 15वीं सदी में 15 अप्रैल, 1469 को उत्तरी पंजाब के तलवंडी गांव (वर्तमान पाकिस्तान में ननकाना) के एक हिन्दू परिवार में हुआ था। उनका नानक नाम उनकी बड़ी बहन नानकी के नाम पर रखा गया था। वे अपनी माता तृप्ता व पिता मेहता कालू के साथ रहते थे। इनके पिता तलवंडी गांव में पटवारी थे। नानक देव स्थानीय भाषा के साथ पारसी और अरबी भाषा में भी पारंगत थे। वे बचपन से ही आध्यात्म एवं भक्ति की तरह आकर्षित थे। बचपन में नानक को चरवाहे का काम दिया गया था और पशुओं को चराते समय कई घंटों ध्यान में रहते थे। एक दिन उनके मवेशियों ने पड़ोसियों की फसल को बर्बाद कर दिया तो उनको उनके पिता ने खूब डांटा। जब गांव का मुखिया राय बुल्लर वो फसल देखने गया तो फसल एकदम सही सलामत थी। यही से उनके चमत्कार शुरू हो गये और इसके बाद वो संत बन गये। 
 
जब नानक की आध्यात्मिकता परवान चढ़ने लगी तो पिता मेहता कालू ने उन्हें व्यापार के धंधे में लगा दिया। व्यापारी बनने के बाद भी उनका सेवा और परोपकार भाव नहीं छूटा। वे अपनी कमाई के पैसों से भूखों को भोजन कराने लगे। यही से लंगर इतिहास शुरू हुआ। पिता ने पहली बार 20 रुपये देकर व्यापार से फायदा कमाने के लिए भेजा तो नानक ने 20 रुपये से रास्ते में मिलें साधुओं व गरीबों को भोजन करवाया व कपड़े दिलवाये। जब खाली हाथ घर लौटे तो पिता की डांट खानी पड़ी। पहली बार नानक ने निःस्वार्थ सेवा को असली लाभ बताया। गुरु नानक देव के मना करने के बावजूद उनका विवाह 24 सितंबर,1487 को सुलखनी के साथ करा दिया गया। 1499 में नानक देव की सुल्तानपुर में एक मुस्लिम कवि मरदाना के साथ मित्रता हो गयी। नानक और मरदाना एकेश्वर की खोज के लिए निकल पड़े। एक बार नानक देव एक नदी से गुजरे तो उस नदी में ध्यान करते हुए अदृश्य हो गये और तीन दिन बाद उस नदी से निकले और घोषणा की यहां कोई हिन्दू और कोई मुसलमान नहीं है। नानक ने 7500 पंक्तियां की एक कविता लिखी थी, जिसे बाद में गुरु ग्रन्थ साहिब में शामिल कर लिया गया। उन्होंने अपना जीवन नये सिद्धांतों के साथ यात्राएं करने में बिताया। नानक ने मरदाना के साथ मिलकर कई प्रेरणादायक रचनाएं गाई और संगीत को अपना संदेश देने का माध्यम बनाया। नानक मुल्तान में आकर रुक गये जहां मरदाना ने अंतिम सांस ली।मरदाना का पुत्र शहजादा उनके पिता के पद चिन्हों पर चला और अपना बाकी जीवन नानक के साथ कवि के रूप में सेवा करते हुए बिताया। 
 
मूर्ति पूजा के घोर विरोधी गुरु नानक देव ने आगे चलकर अद्वैतवादी विश्वास विकसित किया। जिसकी तीन प्रमुख बातें थी। पहली बात दैनिक पूजा करके ईश्वर का नाम जपना था। दूसरी बात किरत करो यानी गृहस्थ ईमानदार की तरह रोजगार में लगे रहना था। तीसरी बात वंद चको यानी परोपकारी सेवा और अपनी आय का कुछ हिस्सा गरीब लोगों में बांटना था। इसके अलावा गुरु नानक देव ने अहंकार, क्रोध, लालच, लगाव व वासना को जीवन बर्बाद करने वाला कारक बताया तथा इनसे हर इंसान को दूर रहने की नसीहत दी। साथ ही उन्होंने जाति के पदानुक्रम समाप्त किया। अपने सारे नियम औरतों के लिए समान बताये और सती प्रथा का विरोध किया। गुरु नानक देव महान पवित्र आत्मा, ईश्वर के सच्चे प्रतिनिधि, महापुरुष व महान धर्म प्रवर्तक थे। जब समाज में पाखंड, अंधविश्वास व कई असामाजिक कुरीतियां मुंहबाये खड़ी थी। असमानता, छुआछूत व अराजकता का वातावरण पनप चुका था। ऐसे नाजुक समय में गुरु नानक देव ने आध्यात्मिक चेतना जाग्रत करके समाज को मुख्यधारा में लाने के लिए भरसक प्रयत्न किया। आजीवन समाजहित में तत्पर रहे नानक का समूचा जीवन प्रेरणादायी व अनुकरणीय है। गुरु नानक देव के सबसे निकटवर्ती शिष्य मरदाना को माना जाता है। गौर करने वाली बात यह है कि मरदाना मुस्लिम होने के बाद भी उनका सबसे घनिष्ठ शिष्य कहलाया। यह गुरु नानक देव के तप का ही प्रभाव कहा जा सकता है।
 
गुरु नानक देव अपने जीवन के अंतिम दिनों में करतारपुर बस गये। जहां पर उन्होंने अनुयायियों को साहचर्य बनाया। उनके ज्येष्ठ पुत्र सीरी चंद को उनकी बहन ने बचपन में ही गोद ले लिया था। वो सौंदर्य योगी बना और उदासी संप्रदाय की स्थापना करी। उनका दूसरा पुत्र लखमी दास ने शादी कर ली और गृहस्थ जीवन बिताना शुरू कर दिया। हिन्दू देवी दुर्गा का भक्त लहना ने गुरु नानक देव के भजन सुने और वो उनका अनुयायी बन गया। उसने अपना संपूर्ण जीवन अपने गुरु और उनके अनुयायियों की सेवा में लगा दिया। गुरु नानक देव ने लहना की परीक्षा ली और उसे अपना उत्तराधिकारी बनाने के लिए उचित समझा। गुरु नानक की 22 सितंबर, 1539 को करतारपुर में मृत्यु हो गयी। उनकी मृत्यु के बाद लहना ने अंगददेव के नाम से सिख धर्म को आगे फैलाया। गुरु नानक देव की मृत्यु के बाद से प्रतिवर्ष कार्तिक पूर्णिमा के दिन उनकी स्मृति में प्रकाशोत्सव हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है। गुरुद्वारों में शबद-कीर्तन होते हैं। धार्मिक स्थलों पर लंगरों का आयोजन किया जाता है। गुरुवाणी का पाठ होता है। इन सबके पीछे उद्देश्य एक ही है गुरु नानक देव के उपदेश शांति, एकता, समरसता, बंधुता, दीन-हीन के प्रति सेवाभाव इत्यादि को जन-जन तक पहुंचाना।
 
- देवेन्द्रराज सुथार
स्थानीय पता - गांधी चौक, आतमणावास, बागरा, जिला-जालोर, राजस्थान। 343025
मोबाइल - 8107177196

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