महत्वपूर्ण बात यह है कि धर्म जब तक आस्था के साथ होता है, अपने स्थाई भाव से ही रहता है यानि धर्म ही बना रहता है और जग का कल्याण करता है। लेकिन जब आस्था यहां से अपनी चंचल गति के कारण अंध विश्वास में बदलती है तो फिर वह धर्म से हटकर अधर्म का साथ देती है। आस्था का यही दोगला रूप समाज को पतन की ओर ले जाता है। जिसके भयावह रूप हम देखते ही रहते हैं, पर उनसे सीखते कम ही हैं। आज जरूरत है इसे समझने की।
हमारे वेद-पुराणों में धर्म का जो मार्ग बताया गया है, वस्तुतः वह ध्यान, योग से मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग है पर हमने मूल से हटकर अपनी सुविधानुसार धर्म को रूपांतरित कर लिया है। इसका सबसे बड़ा फायदा आज धार्मिक व्यवसाय के रूप में उठाया जा रहा है। जगह-जगह बारह मास यह दुकानदारी देखी जा सकती है, इससे बचना होगा। यहां मेरा उद्देश्य किसी की आलोचना से नहीं अपितु आडंबर और छलावे से आगाह करना भर है।
यदि हम मनन करें तो पाएंगे कि धर्म हमारे अंदर ही मौजूद होता है। यह मूलतः भाव प्रधान होता है और भाव ईश्वर ने हम सबके मन के अंदर ही दिए हैं । जरूरत है उन्हें समझने और पहचानने की। कबीर जी कह भी गए हैं - मन चंगा तो कठौती में गंगा! हमारे लिए यही धर्म का मूल सिद्धांत भी होना चाहिए। केवल दिखावे के लिए धर्म के अनुपालन को मैं अनुचित मानता हूं। मेरी नजर में वास्तविक धर्म मानवता की सेवा है। घर के बुजुर्गों की अनदेखी और बाहर किया दान - पुण्य मेरे लिए कभी भी धर्म नही हो सकता।