मैं गरीब हूं, इबारत गरीबी का मजाक है

ललि‍त गर्ग
राजस्थान में गरीबों का मखौल उड़ाने का एक गंभीर मामला सामने आया है, जो हमारी राजनीति के साथ-साथ प्रशासनिक मूल्यहीनता एवं दिशाहीनता का परिचायक है। राजनीतिक लाभ लेने के लिए किस तरह सरकार के द्वारा जनयोजनाओं को भुनाने के प्रयत्न होते हैं, उसका राजस्थान एक घिनौना एवं अमानवीय उदाहरण बनकर प्रस्तुत हुआ है। गौरतलब है कि राज्य के दौसा जिले में बीपीएल यानी गरीबी रेखा से नीचे आने वाले परिवारों के घरों की दिवारों पर उकेर दिया गया है- ‘मैं गरीब हूं, मैं राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत राशन लेता हूं।’ कोई भी अपनी मर्जी से अपने घर की दीवार पर यह नहीं लिखना चाहेगा। दौसा में हजारों घरों पर यह लिखा मिलेगा, तो समझा जा सकता है कि अधिकारियों के निर्देश पर ही ऐसा हुआ होगा। अधिकारियों को निर्देश सत्ता से जुड़े शीर्ष नेतृत्व ने ही प्रदत्त किया होगा, यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। लेकिन इस तरह की घटनाएं लोकतंत्र को दूषित करती है, जनभावनाओं को आहत करती है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस घटना को गंभीरता से संज्ञान लेते हुए त्वरित कार्यवाही करके एक उदाहरण प्रस्तुत किया है।
 
आज का भौतिक दिमाग कहता है कि घर के बाहर और घर के अन्दर जो है, बस वही जीवन है। लेकिन राजनीतिक दिमाग मानता है कि जहां भी गरीब है, वही राजनीति के लिए जीवन है, क्योंकि राजनीति को उसी से जीवन ऊर्जा मिलती है। यही कारण है कि इस देश में सत्तर साल के बाद भी गरीबी कम होने के बजाए बढ़ती जा रही है। जितनी गरीबी बढ़ती है उतनी ही राजनीतिक जमीन मजबूती होती है। क्योंकि सत्ता पर काबिज होने का मार्ग गरीबी के रास्ते से ही आता है। बहुत बड़ी योजनाएं इसी गरीबी को खत्म करने के लिए बनती रही हैं और आज भी बन रही हैं। लेकिन गरीब खत्म होते गए और गरीबी आज भी कायम है। हम जिन रास्तों पर चल कर एवं जिन योजनाओं को लागू करते हम देश में क्रांति की आशा करते हैं वे ही योजनाएं कितनी विषम और विषभरी है, इसका अंदाजा दौसा में गरीबों के घरों के बाहर सरकार के द्वारा लिखी गई इबारत से पता चल जाता है। सभी कुछ अभिनय है, छलावा है, फरेब है। सब नकली, धोखा, गोलमाल, विषमताभरा। प्रधानमंत्रीजी का लोक राज्य, स्वराज्य, सुराज्य, रामराज्य का सुनहरा स्वप्न ऐसी नींव पर कैसे साकार होगा? यहां तो सब अपना-अपना साम्राज्य खड़ा करने में लगे हैं।
 
सरकारी योजनाओं की विसंगतियां ही है कि गांवों में जीवन ठहर गया है। बीमार, अशिक्षित, विपन्न मनुष्य मानो अपने को ढो रहा है। शहर सीमेंट और सरियों का जंगल हो गया है। मशीन बने सब भाग रहे हैं। मालूम नहीं खुद आगे जाने के लिए या दूसरों को पीछे छोड़ने के लिए। कह तो सभी यही रहे हैं-  बाकी सब झूठ है, सच केवल रोटी है। रोटी केवल शब्द नहीं है, बल्कि बहुत बड़ी परिभाषा समेटे हुए है अपने भीतर। जिसे आज का मनुष्य अपनी सुविधानुसार परिभाषित कर लेता है। रोटी कह रही है- मैं महंगी हूं तू सस्ता है। यह मनुष्य का घोर अपमान है। रोटी कीमती, जीवन सस्ता। मनुष्य सस्ता, मनुष्यता सस्ती। और  इस तरह गरीब को अपमानित किया जा रहा है, यह सबसे बड़ा खतरा है। 
 
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस खतरे को महसूस किया, जबकि लोकतंत्र को हांकने वालों को इसे पहले महसूस करना चाहिए। घोर विडंबना तो यह भी है कि ये शब्द लिखवाने के लिए बीपीएल परिवारों को कुछ पैसे भी दिए गए थे। ऐसी इबारत हर लिहाज से घोर आपत्तिजनक है। मानवाधिकार आयोग ने इस मामले का स्वतः संज्ञान लिया है और इसका संदेश साफ है कि गरीब आदमी की भी गरिमा है, जिससे खिलवाड़ नहीं किया जाना चाहिए, उसे अपमानित नहीं किया जा सकता। पीडीएस यानी सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत गरीबों को मिलने वाला राशन कोई खैरात नहीं है। यह राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत उन्हें मिलता है, जो कि उनका अधिकार है। क्या अपने इस अधिकार का इस्तेमाल वे अपमानित होकर ही कर सकते हैं? महीने में दस या पंद्रह किलो गेहूं के लिए अगर दौसा के हजारों परिवारों ने अपने घर की बाहरी दीवार पर गरीब होने की घोषणा लिखवाना मंजूर किया, तो इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि तरक्की के तमाम दावों के बावजूद वे कैसी असहायता की हालत में जी रहे हैं और उनके कल्याण की बात करने वाले राजनेता कितनी एय्याशी भोग रहे हैं। सरकारी योजनाओं की जमीन एवं सच्चाई कितनी भयावह एवं भद्दी है, हमारी सोच कितनी जड़ हो चुकी है, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। 
 
हम भ्रष्टाचार के मामले में तो दुनिया में अव्वल है ही, लेकिन गरीबी के मामले में भी हमारा ऊंचा स्थान है। गत दिनों एक शोध संस्थान द्वारा ग्लोबल हंगर इंडेक्स यानी विश्व भूख सूचकांक जारी किया था। इस सूचकांक ने बताया कि भारत में भुखमरी के कगार पर जीने वालों और अधपेट सोने को मजबूर लोगों की तादाद सबसे ज्यादा है। अगर गरीबों के साथ अपमानजनक व्यवहार पर कोई अध्ययन हो, तो उसमें भी भारत नंबर एक पर ही दिखेगा। गरीब होने की सूचना घरों पर जबरन पुतवाने की घटना से राजस्थान सरकार को शर्म एवं धिक्कार का सामना करना पड़ रहा है। जनता की नजरों में उसका कद इस एक घटना से गिरा है, वह आलोचना का पात्र बनी है। मानवाधिकार आयोग के नोटिस के बाद मामले के तूल पकड़ने पर उसने अपनी जवाबदेही से पल्ला झाड़ने की कोशिश शुरू कर दी। राज्य के पंचायत मंत्री ने सफाई दी कि ऐसा कोई भी आदेश राज्य सरकार की तरफ से नहीं दिया गया था। पर आदेश के बगैर, संबंधित इबारत लिखवाने की बात कर्मचारियों को कैसे सूझी, और इसके लिए दिए गए पैसे कहां से आए? ऐसी कार्यवाही से प्रशासन को क्या लाभ है?
 
अक्सर राजनेताओं या अधिकारियों पर जब इस तरह की अनुचित एवं अमानवीय कार्यवाहियां की जबावदेही तय होती है, जनता का विरोध उभरता एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर छवि का नाश होता है तो इन निरुत्तर एवं जवाबदेही स्थितियों में सभी अपना पल्ला झाड़ने लगते हैं। अगर यह सरकारी आदेश नहीं था, तो राज्य सरकार यह सफाई क्यों दे रही है कि गरीब होने की घोषणा दीवार पर अंकित करने के पीछे इरादा राशन वितरण में होने वाली हेराफेरी रोकना था। अगर यह बात थी, तो राज्य सरकार निर्णय की जवाबदेही लेने से बच क्यों रही है? लेकिन इसी के साथ दूसरा सवाल यह उठता है कि अनियमितता और गड़बड़ी रोकने का कोई और तरीका उसे क्यों नहीं सूझा? जो हुआ वह गरीबों के अपमान के साथ-साथ सार्वजनिक वितरण प्रणाली का भी मखौल है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने राज्य सरकार से चार हफ्तों के भीतर जो स्पष्टीकरण मांगा है उसमें दोषियों पर की गई कार्रवाई का ब्योरा देने को भी कहा है। कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि कार्रवाई सिर्फ दिखावे के लिए होगी, या किसी और का दोष किसी और के सिर मढ़ दिया जाएगा!
 
गांधी और विनोबा ने सबके उदय के लिए ‘सर्वोदय’ की बात की गई। उसे निज्योदय बना दिया। जे. पी. ने जाति धर्म से राजनीति को बाहर निकालने के लिए ‘संपूर्ण क्रांति’ का नारा दिया। जो उनको दी गई श्रद्धांजलि के साथ ही समाप्त हो गया। ‘गरीबी हटाओ’ में गरीब हट गए। स्थिति ने बल्कि नया मोड़ लिया है कि जो गरीबी के नारे को जितना भुना सकते हैं, वे सत्ता प्राप्त कर सकते हैं। कैसे समतामूलक एवं संतुलित समाज का सुनहरा स्वप्न साकार होगा? कैसे मोदीजी का नया भारत निर्मित होगा?
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