विश्व की महान संस्कृति का ध्वजवाहक है हिन्‍दू नववर्ष

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
हमारी भारतीय संस्कृति का पावन पुनीत पर्व जिसे सृष्टि का आरंभ कहते यह पर्व है अपना नववर्ष जिसे हम चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि को मनाते आ रहे हैं।

यद्धपि कालांतर में भारत विभिन्न बाहरी शक्तियों यथा मुगलों एवं अंग्रेजों के आधीन रहा, जिसके कारण उनके द्वारा थोपे गए अंग्रेजी नववर्ष को नया वर्ष कहने की परंपरा शुरू हो गई।

किन्तु हम भारतीयों का नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि को ही आता है इसे हम उल्लास एवं आनंदित होकर अपनी संस्कृति की सर्वोत्कृष्टता के भाव में डूबकर मनाते आ रहे हैं।

हमारे वैदिक ग्रंथों में स्पष्टतया यह उल्लेखित है कि भगवान ब्रम्हा ने चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि से ही सृष्टि की रचना के प्रवर्तन का कार्य प्रारंभ किया था जिसे सात दिनों पूर्ण कर लिया था, अर्थात हमारा यह नववर्ष सृष्टि के निर्माण का आधारभूत स्तंभ है जिसकी छाया में सौहार्द प्रेम एवं आत्मिक परिशुद्धता का वातावरण पुष्ट होता आया है।

भारतीय संवत्सर विश्व की कालक्रम गणना से सत्तावन वर्ष (57) आगे चलता है जो कि इस बात का प्रमाण है कि हम विश्व का दीर्घकाल से नेतृत्व करते हुए समस्त क्षेत्रों में कीर्ति की पताका फहराते आए हैं, इसलिए यह और भी आवश्यक हो जाता है कि हम अपनी संस्कृति के मूल स्वरूप के महात्म्य को ग्रहण कर अपनी पुरातन परिपाटी को पुनर्स्थापित करने के लिए मजबूती के साथ प्रतिबद्धता व्यक्त करें!!

विश्व में प्रचलित कैलेण्डरों में ऐसा कोई भी नववर्ष नहीं है जो अपनी एक विशिष्टता रखता हुआ प्रकृति के आत्मबोध के साथ चलता हुआ दिखे किन्तु हमारा नववर्ष प्रकृति के साथ नैसर्गिक रुप से जुड़ा हुआ कदमताल करता है।

हमारे यहां कि जलवायु ऋतुप्रधान है जो समयांतरालों पर अपनी छटा बिखेरती रहती है, इसी क्रम में हमारे यहां वसंत को ऋतुओं का राजा कहा जाता है। इस बात पर ध्यानाकृष्ट करने एवं प्रमुखता के साथ समझने की आवश्यकता है कि हमारे नववर्ष के प्रारंभ के लिए प्रकृति सहगामिनी के रूप में दृष्टव्य होती है।

बसंत पंचमी को ज्ञान की देवी मां आद्या भगवती सरस्वती का अवतरण दिवस मनाया जाता है, इसी के साथ ही नववर्ष के आगमन की सूचना सम्पूर्ण चराचर जगत में पहुंचने लगती है, प्रकृति अपना श्रृंगार करने लग जाती है सहज ही चहुंओर नूतनता परिलक्षित होने लगती है, फाल्गुन मास में ही वसंत का आगमन होता है किन्तु वसंत अपनी सभी कलाओं से परिपूर्ण होता हुआ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा तिथि से ही मूलस्वरूप को प्राप्त करता है इस समय प्रकृति में विद्यमान पेड़-पौधों में पूर्णतया नई पत्तियां एवं कोपलें आने के साथ-साथ सभी ओर शुध्दता का माहौल निर्मित होने लगता हैं, जिसके आनंददायी वातावरण में मन आह्लादित होकर झूमने लगता है। भौरों की कलियों में गुंजार नवीनता का एवं रसपूर्ण वातावरण के बोध को प्रकट करती है।

हमारे यहां की फसलें पक जाती हैं जिसकी कटाई-गहाई का कार्य द्रुत गति से चलने लगता है वर्तमान में आधुनिक तकनीकों के आ जाने के उपरांत हंसिए की खेतों में खनक भले ही कम सुनाई देती हो किन्तु अभी भी ग्रामीण परिवेश में यह संस्कृति बनी हुई है।

नए अनाज के घर आगमन पर किसानों के चेहरे प्रसन्नता से भर जाते हैं।

इसी के साथ ही वर्तमान में लुप्त प्राय होने की कगार में लोककलाएं पुरानी पीढ़ी के द्वारा हमें देखने और सुनने को मिलती हैं इनमें से फसलों की कटाई के समय ही हमारे यहां विन्ध्य अर्थात बघेलखण्ड या कि लगभग सारे देश में अहीर यानि यादवों के द्वारा राई गायन भी इसी समय खेतों में सुनने को मिलता है यह सब हमारे नववर्ष के आगमन से प्रकृति एवं मानव सम्बन्धों की अभिव्यक्ति ही तो है।

चैत्रमास के आगमन एवं नववर्ष से सम्पूर्ण वातावरण आनंदित होकर मंगल गायन करने लगता है, सभी ओर आनंद की अमृत वर्षा होने लगती है पशु-पक्षी, जीव-जंतु सभी में नवजीवन के संचारित होने से प्रेम एवं आनंद से परिपूर्ण नावांकुर प्रस्फुटित होते है जिसकी पावनता में सुख-शांति एवं समन्वय की रसधारा बहने लगती है।

चैत्रमास की मुख्य विशेषता यह होती है कि इस ऋतु में न तो ज्यादा शीत और न ही ज्यादा गर्मी सरलतम रूप में कहें तो संतुलित सरसतापूर्ण वातावरण बना रहता सम्भवतः इसीलिए विधाता ने सृष्टि की रचना करने के लिए सर्वाधिक उपयुक्त समय माना होगा।

इसके साथ ही हमारे पूर्वजों मनीषियों ने चैत्रमास शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि से नववर्ष के आगमन का स्वागत करते आए हैं।

भारतीय नववर्ष या चैत्र मास की श्रेष्ठता यह बस ही नहीं बल्कि हमारे यहां धार्मिक, अध्यात्मिक ,पौराणिक एवं वैज्ञानिक महत्ता के प्रतिपादन का भी एक लम्बा इतिहास रहा है उसी वटवृक्ष की शाखाएं विविध रूपों में अपने मूलतत्व को समेटे हुए जीवटता का बोध कराती हैं।

चैत्रनवरात्रि के प्रारंभ के साथ शक्ति की उपासना का प्रारंम्भ इसी प्रतिपदा तिथि के साथ होता है इसके और पहले के समय अर्थात त्रेतायुग में हमारी संस्कृति के आधार मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम प्रभु का अवतरण चैत्र शुक्ल की नवमीं तिथि को हुआ था।

इसके साथ ही सबसे महत्वपूर्ण बात यह भी है कि अन्याय, अत्याचार एवं अधर्म रूपी रावण का समूलनाश करने के उपरांत भगवान श्रीराम के अयोध्या आगमन के उपरांत प्रभु का राज्याभिषेक भी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही हुआ था इसी के साथ रामराज्य के शंखनाद की ध्वनि से समूचा जगत एकरूपता में तल्लीन हो गया था।

इसी तिथि को भगवान झूलेलाल जिनका अवतरण सनातन धर्म की शाखा के सिन्धी समाज द्वारा चेटीचंड के रूप में मनाते हुए विश्व में सुख-शांति -सौहार्द एवं जीवमात्र के प्रति प्रेम की ईश्वर से कामना करते हैं।

भगवान झूलेलाल को हमारे धर्मग्रंथों में वरुणदेव अर्थात जल के देवता के रुप में भी पूजन किया जाता है, भगवान झूलेलाल की विभिन्न रूपों में आराधना करते हुए उनसे सभी दिशाओं में खुशहाली एवं हरियाली रहे जिससे जीवजगत चहकता रहे का वरदान मांगा जाता है।

महाभारत काल अर्थात द्वापर में भी चैत्रशुक्ल प्रतिपदा तिथि का अपना एक अलग महत्व रहा है इसी तिथि को सत्य व असत्य के महाभारत युद्ध के बाद दिग्विजयी होने के उपरांत महाराज युध्दिष्ठिर का भगवान श्रीकृष्ण के पाञ्चजन्य शंख के उद्घघोष के साथ ही राजतिलक हुआ था एवं धर्म की स्थापना का संकल्प लिया गया जिससे सम्पूर्ण आर्यावर्त में सुख-शांति एवं धार्मिक चेतना की अविरल धारा निरंतर प्रवाहित होती रही।

इसीलिए चैत्रशुक्ल प्रतिपदा तिथि का विशेष महत्त्व सहस्त्रों वर्ष पूर्व से हम सभी के लिए है, समय की गति के साथ ही चैत्रशुक्ल प्रतिपदा तिथि अपने अर्थ एवं महात्म्य बोध को अपने में समेटे हुए है।

इसीलिए हमारे धार्मिक, पौराणिक इतिहास के साथ अपने अद्वितीय महत्व को यह तिथि समेटे हुए है। इसी दिन महाराज विक्रमादित्य ने विक्रम संवत्सर का प्रतिपादन किया जिसे भगवान महाकाल की पावन नगरी तात्कालीन उज्जैनी वर्तमान उज्जैन की पावन पुनीता शिप्रा नदी के तट पर संवत पर्व मनाया था जिसे हम तभी से लेकर हिन्दूनववर्ष के रूप में मनाते आ रहे हैं।

भारतीय धार्मिक-सामाजिक एवं अध्यात्मिक चेतना के प्रखर पुरुष महर्षि दयानंद ने आर्य समाज की स्थापना चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही की थी जिसका उद्देश्य सम्पूर्ण वैदिक ज्ञान को पुनर्स्थापित एवं समाज को जागृत करने का था।

इसी तरह वर्तमान में विश्व के सबसे बड़े स्वयंसेवी सामाजिक संगठन राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के संस्थापक आद्य सरसंघचालक केशवराम बलिराम हेडगेवार जी की जयंती भी चैत्रशुक्ल प्रतिपदा तिथि को ही मनाई जाती है।

इस तरह चैत्रशुक्ल प्रतिपदा तिथि को मनाया जाने वाला हिन्दूनववर्ष हमारे राष्ट्र की सांस्कृतिक-पौराणिक,सामाजिक-ऐतिहासिक, आध्यात्मिक परम्परा के संवाहक के रुप में जीव व प्रकृति के मध्य अन्तर्निहित सम्बन्धों को व्यक्त करने के साथ धर्म व मानवीय चेतना के प्राणतत्व को समाहित किए हुए विश्व की श्रेष्ठतम संस्कृति का ध्वजवाहक है।

इस तरह हम भारतीयों का यह प्रथम कर्तव्य है कि पश्चिमी अंधानुकरण के भ्रमजाल से निकलकर अपनी जड़ों की ओर आएँ एवं महान सभ्यता के नववर्ष को बढ़चढ़कर मनाएं जिससे भारतवर्ष का गौरव पुनः विश्वपटल पर स्थापित हो सके जिसमें सभी प्रकार की उन्नति का सार छिपा हुआ है।
जयतु! मां भारती

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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