हम सबको पता है कि हम में से अधिकतर लोग या तो पाश्चात्य संस्कृति को पूर्णरूपेण अपना चुके हैं या फिर अपनाने की प्रक्रिया में गतिशील हैं। मुझे भलीभांति यह भी पता है कि आप हमारे इस खुले खत को पढ़कर या तो मेरा मजाक उड़ाएंगे, गालियां देंगे या फिर पुराने विचारों वाली कहेंगे, परंतु इसका डर हमें कतई नहीं है।
शायद हम सब यह भूल चुके हैं कि सदियों पहले भारत अपनी भारतीय सभ्यता एवं श्री संस्कृति की बदौलत ही विश्व गुरु था और यही भारत समूचे विश्व में अपने ज्ञान, कौशल और अध्यात्म के लिए एक नजीर भी था। किसी ने बिलकुल ठीक कहा था कि 'नष्टे मूले नैव फलं न पुष्पम्' यानी जिस देश को मिटाना हो तो उस देश की सभ्यता, संस्कृति एवं साहित्य को मिटा दो। साहित्य तथा उसकी वास्तविक संपत्ति- चरित्र को मिटा दो। धीरे-धीरे वह देश स्वत: मिट जाएगा।
हम सब भारतीय संस्कृति से भली-भांति परिचित हैं। भारतीय संस्कृति विश्व में सबसे प्राचीन और सभ्य मानी जाती है और यह सभी संस्कृतियों की जननी भी कही जाती है। भारतीय संस्कृति में वेदों, उपनिषदों तथा पुराणों का विपुल भंडार है, जरूरत है तो सिर्फ इसे आत्मसात करने की। यदि हमारे छात्र एवं युवा वर्ग इस ज्ञान का कुछ अंश भी ग्रहण कर लें तो उनके चरित्र का सर्वांगीण विकास स्वतः ही हो जाएगा फिर पाश्चात्य संस्कृति हम सबका चरित्र निर्माण क्या करेगी?
मैं पूछना चाहूंगी कि क्या पाश्चात्य संस्कृति आने से पहले हमारे यहां अच्छे विद्वान नहीं थे? हमारे देश ने तो आर्यभट्ट, चरक जैसे महान वैज्ञानिक दिए हैं। भारतीय संस्कृति जिसमें कहा गया है- 'अभिवादन शीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविन:, चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्' अर्थात जो नित्य प्रति माता-पिता का आदर-सम्मान एवं बड़े-बुजुर्गों की सेवा करते हैं उनकी आयु, विद्या, यश और बल में वृद्धि होती है, परंतु पाश्चात्य संस्कृति में तो यह दूर-दूर तक नहीं दिखता।
पाश्चात्य सभ्यता साइबेरिया से आने वाली उन ठंडी हवाओं के समान है, जो चलती तो हैं, परंतु हिमालय जैसे व्यक्तित्व से टकराकर घुटने टेक देती हैं। या फिर यूं कहें कि पाश्चात्य संस्कृति उस चमकती हुई वस्तु के समान है, जो दूर से तो सोना दिखती है, परंतु पास आने से भ्रम दूर हो जाता है। तो ऐसी संस्कृति हमारे छात्रों का चरित्र निर्माण क्या करेगी जिसका स्वयं का कोई आधार ही न हो?
हमारी श्री संस्कृति में शादी-विवाह को एक पवित्र बंधन माना जाता है। यहां जो स्त्री एक बार इस बंधन में बंध जाती है, वह जीवनभर अपने पति का साथ निभाती है या फिर यूं कहें कि भारतीय स्त्री मिट्टी के उस प्याले के समान है, जो सिर्फ एक व्यक्ति के होंठों में समाती है और फिर टूटकर उसी मिट्टी में वापस मिल जाती है, जबकि पाश्चात्य संस्कृति में महिलाएं होटल के उस कांच के गिलास के समान हैं, जो आज किसी के होंठों में तो कल किसी और के होंठों में। वे अपने जीवनसाथी उसी प्रकार बदलती हैं जिस प्रकार लोग अपने कपड़े बदलते हैं। मगर अफसोस है कि आज हमारे छात्र-छात्राएं भी इस सभ्यता को अपनाकर पवित्र बंधन को तोड़ डालने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे हैं। इस प्रकार की संस्कृति छात्रों का चरित्र निर्माण नहीं, बल्कि उनके चरित्र का विनाश कर रही है।
भारतीय संस्कृति में कहा गया है कि 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता' अर्थात जहां नारियों की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं, परंतु आज उसी नारी के साथ बलात्कार, दहेज प्रताड़ना जैसी घिनौनी घटनाएं आम हो चुकी हैं। यह उस पाश्चात्य संस्कृति की ही देन है, जहां ये रंगरेलियां खुलेआम होती हैं। आज गर्भ से ही पता लगा लिया जाता है कि पैदा होने वाली संतान लड़का है या लड़की। यदि लड़की है तो उसे इस दुनिया में कदम तक नहीं रखने दिया जाता है।
यदि हम इतिहास के पन्ने को पलटकर देखें तो हम सीता, सावित्री, अहिल्याबाई, कुंती, अपाला, गार्गी, पन्ना धाय, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई एवं इंदिरा गांधी जैसी वीरांगनाओं के चरित्र से रूबरू होंगे, जिनका लोग आज भी उदाहरण दिया करते हैं और आज उसी नारी को अपमानित होना पड़ रहा है। इसकी वजह सिर्फ पाश्चात्य संस्कृति ही है जिसका अनुसरण करके भारतीय नारी भी अंग-प्रदर्शन, वेश्यावृत्ति जैसे दल-दल की ओर अपने कदम बढ़ा रही हैं।
अब बात करें भारतीय रहन-सहन, खान-पान व वेशभूषा की तो यहां लोग सादगीपूर्ण जीवन जीने में खुश थे, लेकिन आज हालत ये बन गई है कि अगर पहनने को जीन्स-टीशर्ट न मिले तो अपने आपको हीन महसूस करने लगते हैं।
लोग बार-बार यही कहते हैं कि पाश्चात्य संस्कृति ने हमें अंग्रेजी दी जिसके सहारे हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने में कामयाब हुए हैं और उन्नति की ओर अग्रसर हुए हैं। हम उन्नति की ओर अग्रसर तो हो सकते है लेकिन जरूरी नहीं कि चरित्रवान ही हों, क्योंकि उन्नति एक चरित्रवान भी कर सकता है और चरित्रहीन भी।
यह जरूरी नहीं कि अंग्रेजी बोलने वाला हर व्यक्ति चरित्रवान ही हो, क्योंकि हमारा चरित्र वही रहता है, जो हमारे माता-पिता और समाज से मिला है। अगर हम गौर करें तो पाएंगे कि पाश्चात्य संस्कृति हमारा चरित्र निर्माण कर ही नहीं सकती। जब हमारी संस्कृति खुद उन्नति साधक एवं चरित्र निर्णायक है तो पाश्चात्य संस्कृति अपनाने की कोई आवश्यकता ही नहीं हैं।
बीते जमाने में पाश्चात्य देशों के मैगस्थनीज, ह्वेनसांग जैसे महान दार्शनिकों ने भी भारतीय संस्कृति को श्रेष्ठ बताया था। तो भी क्यों आज भारतीय ही पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने में अड़े हुए हैं? सच तो यह है कि हमें अतीत को कभी भूलना ही नहीं चाहिए।
अंत में समूचे देशवासियों से हमारी यही विनती है कि पाश्चात्य उद्दाम भोगवादी संस्कृति से ऊपर उठकर हम सब अपनी भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता के गौरव को समझकर इसे अपने चरित्र, कर्म और अंत:स्थल में उतारें ताकि एक बार पुन: हमारा राष्ट्र सोने की चिड़िया बने और विश्व गुरु बनकर समूचे विश्व में भारतीयता का परचम लहराए।