‘नवसंवत्सर’ भारतीय संस्कृति की गौरवशाली परंपरा

हिन्दू नववर्ष की शुरुआत अंग्रेजी के नए साल की तरह रात के घनघोर अंधेरे में नहीं बल्कि सूर्य की पहली किरण के साथ होती है।

भारतीय नव वर्ष यानी 'नव संवत्सर' की कोई निश्चित अंग्रेजी तारीख नहीं होती, क्योंकि यह भारतीय संस्कृति के अनुरूप नक्षत्रों तथा कालगणना पर आधारित होती है। इसका निर्धारण हिन्दू पंचांग गणना प्रणाली से होता है।

यूं तो नव-संवत्सर से जुड़ी कई बातें हैं जो एक अलग और विस्तृत विषय हैं। लेकिन इसके आने का आभास काफी पहले से ही प्रकृति कराने लगती है। यही वह समय होता है जब पतझड़ की विदाई और नए कोंपलों का आना शुरू होता है, वृक्षों पर फूल लदने शुरू हो जाते हैं, फाल्गुनी बयार का अलग ही अहसास होता है। संपूर्ण वातावरण ही कुछ यूं हो जाता है मानों नया वर्ष दस्तक देने वाला है।

सच कहा जाए तो विक्रम संवत् किसी धर्म विशेष से संबंधित न होकर संपूर्ण धरा की प्रकृति, खगोल सिध्दांतों और ग्रह-नक्षत्रों से जुड़ा है। इसका उल्लेख हमारे धर्मग्रन्थों में भी है। इसके कई वैज्ञानिक आधार और पूरे विश्व के मानने हेतु तर्क भी हैं।

महान ऋषि महर्षि दयानन्द जो अनेकों प्राचीन हिन्दू धर्म ग्रन्थों के गूढ़ एवं सूक्ष्म विवेचनकर्ता थे ने अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश में सृष्टि की उत्पत्ति की बेहद सटीक जानकारी दी है। इससे संसार की उत्पति की एक-एक दिन की गणना करने में सहजता तो हुई वहीं लोगों को सृष्टि उत्पत्ति की सही जानकारी भी हुई। सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि वैज्ञानिक भी यह मानने लगे हैं कि सृ्ष्टि की रचना 2 अरब वर्ष पूर्व हुई होगी।

इस वर्ष का हिन्दू नव वर्ष अर्थात नव संवत्सर 2078 की शुरुआत 13 अप्रैल 2021 से होगी। दूसरे शब्दों में भारतीय कालगणना के हिसाब से मंगलवार 13 अप्रेल को चैत्र शुक्ल-प्रतिपदा को सूर्योदय के समय सप्तम वैवस्वत मान्वंतर के 28वें महायुग में तीन युग सत, त्रेता और द्वापर बीत जाने के उपरांत कलियुग के इस प्रथम चरण में ब्रम्हा जी द्वारा रचित मौजूदा सृष्टि की उत्पत्ति का 1 अरब 95 करोड़ 58 लाख 85 हजार 122 वर्ष पूरा हो जाएगा तथा नया संवत्सर यानी नया वर्ष दस्तक देगा।

विक्रम संवत् का भी यह पहला दिन माना जाता है जिसकी स्थापना को लेकर विद्वानों व इतिहासकारों में थोड़ा मतभेद जरूर है फिर भी माना जाता है कि यह ईसा पूर्व 57 में शुरु हुआ होगा। तब इसका नाम मालवागण स्थिति और कृत संवत था, लेकिन मालवागण की पूर्ण स्थापना होने से उसी संवत का नाम मालवा और इसके प्रवर्तक विक्रमादित्य होने से विक्रम नाम से विख्यात हुआ। यह हिन्दू पंचांग की गणना प्रणाली भी है।

धारणा है कि यह एक ऐसे राजा के नाम पर प्रारंभ होता है जिसके राज्य में न कोई चोर हो, न अपराधी हो न ही भिखारी। महाराजा विक्रमादित्य ही वो राजा थे जिन्होंने संपूर्ण देश यहां तक कि प्रजा के ऋण को भी चुकाकर इसे चलाया।

उज्जयिनी (मौजूदा उज्जैन) के सम्राट विक्रमादि्तय ने 2077 ई.पू. इसी दिन अपने राज्य की स्थापना की थी। मार्च माह से ही दुनिया भर में पुराने कामों को समेटकर नए की रूपरेखा तैयार की जाती है। 21 मार्च को पृथ्वी भी सूर्य का एक चक्कर पूरा कर लेती है और रात-दिन बराबर होते हैं। 12 माह का एक वर्ष, 7 दिन का एक सप्ताह रखने की परंपरा भी विक्रम संवत् से ही शुरू हुई है। इसमें महीने का हिसाब सूर्य-चंद्रमा की गति के आधार पर किया जाता है। विक्रम कैलेण्डर की इसी पध्दति का बाद में अंग्रेजों और अरबियों ने भी अनुसरण किया तथा भारत के विभिन्न प्रान्तों ने इसी आधार पर अपने कैलेण्डर तैयार किए।

भारत में नवसंवत्सर संवत्सर पर पूजा पाठ कर पुरानी उपलब्धियों को याद करके नई योजनाओं की रूपरेखा भी तैयार की जाती है। इस दिन अच्छे व्यंजन और पकवान भी बनाए जाते हैं। इस पर्व पर विभिन्न प्रान्तों में अलग परंपराएं अब भी हैं जिसमें कहीं स्नेह, प्रेम और मधुरता की प्रतीक शमी वृक्ष की पत्तियों के आपस में लोग एक दूसरे को देकर परस्पर सुख और सौभाग्य की कामना करते हैं। कहीं काली मिर्च, नीम की पत्ती, गुड़ या मिश्री, आजवायइन, जीरा का चूर्ण बनाकर का मिश्रण खाने व बांटने की परंपरा है।

हिन्दू नव वर्ष का आरंभ चैत्र मास की शुक्ल प्रतिपदा को शक्ति-भक्ति की उपासना, चैत्र नवरात्रि से होता है। पंचाग रचना का भी यही दिन माना जाता है। महान गणितज्ञ भाष्कराचार्य ने इसी दिन सूर्योदय से सूर्यास्त तक दिन, महीना और वर्ष की गणना कर पंचाग की रचना की थी।

भारत सरकार का पंचांग शक संवत् भी इसी दिन से शुरू होता है। भारत के लगभग सभी प्रान्तों में यह नव वर्ष अलग-अलग नामों से मनाया जाता है जो दिशा व स्थान के अनुसार मार्च-अप्रेल में लगभग इसी समय पड़ते हैं। विभिन्न प्रान्तों में यह पर्व गुड़ी पड़वा, उगडी, होला मोहल्ला, युगादि, विशु, वैशाखी, कश्मीरी नवरेहु, चेटीचण्ड, तिरुविजा, चित्रैय आदि के नाम से मनाए जाते हैं।

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