कहते हैं धरमपुरी की राजकुमारी रूपमती सुरों की देवी थीं और मांडव के राजकुमार वायज़ीद अली शाह उर्फ़ बाज़बहादुर सुरों के शैदाई। रक़्स और राग के ये दोनों रूप बेशक पैदा अलग- अलग हुए थे, पर इनके दिलों के टुकड़ों पर, जन्मते ही, नूर के बादशाह ने 'राधा' और 'श्याम' लिख दिया था। क़ुदरत के निज़ाम में इनका मिलना तय था, मां नर्मदा की पूजा इनके मिलने की महज़ एक वजह हो गई थी। राग दीपक और राग भैरवी के सुरों को संगत देते बाज़बहादुर के सुर जब, नर्मदा किनारे, राग बसंत गाते रूपमती के सुरों को छू जाते, मुहब्बत का हैरतअंगेज़ नग़मा फूटकर मांडव की फ़िज़ा को गुलज़ार कर दिया करता था। जिस्मों ने जिस्मों को न छुआ, न चक्खा, पर रूहों ने रूहों के आग़ोश में जन्नत ज़रूर पा ली थी। आवाज़ ने आवाज़, अंदाज़ ने अंदाज़ और एहसास ने एहसास को कुछ ऐसे छुआ कि रूपमती की तड़प ने बाज़बहादुर के सूने पड़े संगीत को आबाद कर ही दिया। कहते हैं, 'प्यार सच्चा हो तो राहें भी निकल आती हैं, बिजलियां अर्श से ख़ुद रास्ता दिखलाती हैं' की तर्ज़ पर खुद मां नर्मदा की आज्ञा से रूपमती बाज़बहादुर के पास गई थी।