धड़कनों के सम पर मुहब्बतों के सुर : मांडव

रूपमती महल आकर मांडव सीमा समाप्त हो जाती है। यह आख़िरी पड़ाव, इश्क़ की दावत देता, मांडव को अलविदा कहने को मजबूर करता है। सैलानी सोचते हैं, सच है! क़ुदरत की कारीगरी के बीच मुहब्बत के बिखरते रंग सिर्फ मांडव में ही देखे जा सकते हैं, कहीं वादियों में गिरते झरने की शक्ल में, कहीं कोहरे में उठते कलमे की शक्ल में। कहीं निकलते सूरज की लाली के रूप में, कहीं अंधेरी शाम, जुगनुओं के झुंडों के बीच मनती दिवाली की शक्ल में।
 
जब अनमने क़दमों से घाट पार करते, चढ़ते चांद की चांदनी को पीछे छोड़, आप मांडव से विदा लेते हैं, आपके होंठ बरबस ही गुनगुना उठते हैं, 'रब की क़व्वाली है इश्क़-इश्क़...' सच!! बेख़ुदी में चूर कर देता है मांडव का कालजयी सौंदर्य।
धड़कनों के सम पर मुहब्बतों के सुर : मांडव
 
वक़्त कैसा भी हो इसकी ख़ासियत है, यह ठहरता नहीं, गुज़र जाता है। गुज़रकर कभी अफ़साने की शक्ल ले लेना, कभी गीत हो जाना, कभी एक ठंडी-सी सांस लेकर, किसी अनकहे जज़्बे-सा ही चमककर बुझ जाना इसकी तासीर है। इसी तासीर को हवा देने के लिए शायर गज़लें लिखते हैं और मुसव्विर अपने कैनवास को आवारा रंगों से भर देते हैं; भले आदमी और पुजारी मंदिरों और मस्जिदों की तामीर करवाते हैं और राजे-रजवाड़े महल-दुमहले। वक़्त, एहसास और ज़िंदगी को बांध लेने की ऐसी ही एक कोशिश है 'मध्यभारत के मालवा अंचल का मांडव', तारीखों के बनने और मिटने के बीच मुहब्बत को हमेशा-हमेशा के लिए वक़्त की पेशानी पर नक़्श कर देने की एक नन्ही-सी कोशिश और रक़्स और राग को ज़िंदगी के रंगों में घोल देने की मीठी-सी ख़्वाहिश।
 
और मांडव है भी क्या!!! सुरों की कशिश से ज़िंदगी के दर्द को भुला देने की ख़ातिर बसाया गया उदास आरज़ुओं और नामुकम्मल तमन्नाओं का ख़्वाब-नगर।
 
महलों, मज़ारों, नदियों और किनारों से आबाद, ऊंची-निचली ज़मीन के फूलों, पौधों, पत्तों और मुहब्बतों से अटा पड़ा एक ऐसा ज़खीरा जहां कहीं गुल-ए-अब्बास है तो कहीं गेंदा। कहीं चांदनी, तो कहीं सूरजमुखी। कहीं बेलें हैं, तो कहीं गुलाब। अलसाये अमरूदों, नीम और बबूलों के बीच बौराये आम हैं, तो कहीं नर्मदा के किनारे-किनारे जंगली झाड़ियों, घासों और बांसों के झुरमुटों के बीच उग आई खुरासानी इमली। कहीं खटियाती अम्बराइयों पर घिर आए झूले हैं तो कहीं ज़िंदगी के तल्ख़ एहसासों-सी ही नीम की पीली-ललछौहीं निम्बोलियां। मालवी वनस्पति से अटा पड़ा मांडव सोचने को मजबूर करता है, मांडव मालवा से आबाद है या मालवा मांडव से गुलज़ार...!
 
मालवा की अलसाई नींदों में ख्वाब के धागों से बंधी यह नगरी मध्यप्रदेश की औद्योगिक राजधानी इंदौर से 90 किमी के फ़ासले पर मौजूद है। अमूमन मुहब्बतों की नगरियों के रास्ते एक जैसे ही होते हैं, ख़ूबसूरत, ख़्वाबीदा और ख्यालों से अटे पड़े। मांडव के घुमावदार रास्ते भी बिलकुल ऐसे ही हैं। ख़ैर जी! खाइयों से ऊंचाइयों का यह सफर ऐसे ही करने को नहीं मिलता, रास्ते में चक्कर भी आते हैं, उल्टियां भी होती हैं, और इसका सिला यह मिलता है कि मांडव पांच-पांच दरवाज़ों में पलकें बिछाए आपका इस्तक़बाल करता है- औरंगज़ेब की यादों से गुलज़ार 'आलमगीर दरवाज़ा', हर तबके को इज़्ज़त देने की ख़्वाहिश लिए खड़ा 'भंगी दरवाज़ा', आपकी आमद पर कमर को कमानी-सा झुकाए कमानी दरवाज़ा, गाड़ियों के लिए 'गाड़ी दरवाज़ा' और साहिबों के लिए दिल्ली का रुख करता 'दिल्ली दरवाज़ा'। इतने दरवाज़ों में खुद का इस्तक़बाल करवाते, अपने आपको 'शाही' मान आखिरकार आप मांडव पहुंच ही जाते हैं।
 
मांडव की फ़िज़ा में पांव रखते ही आपका सामना होता है कांकड़ा खोह के बेहद दिलफ़रेब जल्वों से। ऊंचाइयों से गहराइयों को जाता पानी, कुहासे की चादर से ढंके दरख़्त, कड़वाती-सी जंगली ख़ुशबू, वादी में हर सिम्त उग आईं झाड़ियां, पथरीली, बेहद चटियल-सी नुकीली चट्टानों में बूंद- बूंद रिसता पानी और यहां-वहां घूमते शरीर बंदर। हरियाती उमंगों पर धूप का पर्दा कांकड़ा-खोह में आने वाले सैलानियों में से उन लोगों के जज़्बातों पर हैरतअंगेज़ असर डालता है जिनकी नस-नस में क़ुदरत से मुहब्बत रक़्स कर रही हो। कांकड़ा-खोह मांडव के हुस्न का वह दुर्ग है, जहां मालवा और निमाड़ की तहज़ीब बड़े ही गंगो-जमुनी अंदाज़ में मिली हुई दिखती है। भीलों के नन्हे बच्चे धनुष से निशाना साधने का लालच देते हैं और मक्के के निमाड़ी भुट्टो की सौंधी- सौंधी महक ख़ुद-ब-ख़ुद अपनी ओर खींच लेती हैं बस्स! रूह पर वही असर होता है, जो पचमढ़ी में प्रवेश के दौरान 'अप्सरा-विहार' देखकर होता है। आपकी गाड़ी और काफ़िला धूप-छांव के खेल से खुद को सरशार करता आगे बढ़ता है और आप मालवा की माटी में खिल आई गेंदे-गुलाबों के साथ पोई-चौलाई की क़िस्में गिन डालते हैं। घास-कास की हज़ारों क़िस्मों के बीच क़िस्म-क़िस्म के दरख्तों को देख आपको उन गधों पर भी रश्क़ आने लगता है, जो शहरी दुनिया से दूर, क़ुदरत की इस हरियायी गोद में बड़े ही लाड़ से चर रहे हैं। 
 
नजर ऊंचे-नीचे खपरैलों वाले इक्के-दुक्के घर, छप्परों पर पड़ीं। मौसम की सब्ज़ बेलें, चूल्हों से उठता, इठलाता धुआं। दालपानियों पर पड़ने वाले घी की सौंधी महक और खंडहरों की ज़िंदा ठंडक! कुल मिलाकर मांडव गर्मियों की शाम, ठंडे फालूदे-सा ही रूह को तर-ब-तर कर जाता है।
 
वैसे तो मांडव में क़दम-क़दम पर क़ुदरत के हुस्न को इंसान की ज़हानत के हाथों संवारकर महलों की शक्ल में ढाल देने के सुबूत मिलते हैं, पर महलों की इस नगरिया को इत्मीनान से देखें तो हम इसे 3 हिस्सों में तक़सीम कर सकते हैं- 
 
1. पहला हिस्सा : अ. राम मंदिर, ब. जामा मस्जिद, स. होशंगशाह का मक़बरा, द. अशरफ़ी महल। 
 
2. दूसरा हिस्सा : यह अमूमन नर्मदा किनारे का हिस्सा है जिसमें आते हैं- अ. ईको प्वॉइंट, दाई का महल, ब. रेवा कुंड, स. बाज़बहादुर का महल, द. रानी रूपमती का महल। 
 
3. तीसरा हिस्सा : यह शाही हिस्सा कहलाता है, जो कि अ. जहाज़ महल, ब. हिंडोला महल, स. जलमहल द. हम्माम, नीलकंठेश्वर, सूरजकुंड, संग्रहालय आदि हिस्सों से मिलकर मुकम्मल होता है। 
 

हिन्दू और मुस्लिम वास्तुकला का मिला-जुला नमूना 'जामा मस्जिद' परमारों और ख़िलजियों की सभ्यता की ज़िंदा मोहर है तो बालकनी, महराब, चबूतरे, आर्च और गुम्बद मांडव की साड़ी में मुगलों द्वारा टांकी गई ज़री की झालर; मकराना के पत्थरों से बना दायी का महल मुगलिया आर्ट में राजस्थानी जालियों का सुंदर संगम है तो रानी जोधा के लिए अकबर द्वारा बनाया गया क़ुरानी आयतों से सजा 'नीलकंठेश्वर' हिन्दुस्तान के सूफ़ी जज़्बों का वह राज़ है जिसके लिए कभी अल्लामा इक़बाल ने लिखा था, 'कुछ बात है कि मिटती नहीं हस्ती हमारी/ सदियों रहा है दुश्मन, दौरे-जहां हमारा'।
 
अशर्फी महल अपने आप में एक अनूठा महल कमसिन रानियों को अशर्फी के ज़रिए दुबला-पतला और चुस्त-दुरुस्त रखने का आकर्षक रानीवास है तो कपूर तालाब रानियों के कपूर से सने बाल धोने का वाहिद कोना। इन तमाम इमारतों के जानने-समझने के लिए इतिहास की किताबें भरी पड़ी हैं। इनका हुस्न, इनकी कुशादगी और शिल्पकारी परमार, ग़ौरी, ख़िलजी और मुग़लों समेत उन तमाम रजवाड़ों की तारीख का एक ऐसा हिस्सा है जिसके बग़ैर हिन्दुस्तान का इतिहास अधूरा ही है।
 
पहाड़ियों, ऊंचाइयों और खाइयों के दीवानों के लिए मांडव बेशक दिलचस्पी का सामान है, पर पत्थरों और इमारतों से मुहब्बत करने वालों के लिए भी यह कोई काम कुतूहल नहीं समेटे है! सीरिया की दमिश्क़ मस्जिद से होड़ रखती। लाल संगमरमर, उड़दिए और काले पत्थरों से बनी अनोखी-सी जामा मस्जिद, कभी ख्यालों के आर्किटेक्चर में पत्थर मारती लगती है तो कहीं ताजमहल से 20 साल क़ल्ब बना होशंगशाह का मक़बरा अचंभित करता दिखता है। कहीं सितारापाक बाबा और मीरां दातार के मज़ार बुलाते हैं तो कहीं राम मंदिर और नीलकंठेश्वर के गुम्बद अपनी ओर खींचते लगते हैं। हिंडोला महल, जहाज़ महल और रूपमती मंडप भी कोई कम खूबसूरत चीज़ नहीं! अपने जलवे बिखेरने पर आएं तो समां बांधकर रख देते हैं, पर मुहब्बत!!! मुहब्बत वह वाहिद कैटेलिस्ट (उत्प्रेरक) है जिसके दम पर इतना लंबा इतिहास, मांडव के इतने छोटे-से हिस्से में सिमटकर रह गया है। 
 
मुहब्बत के ज़िक्र के बगैर मांडव का ज़िक्र अधूरा है और क्यों न! मुहब्बत के बग़ैर क्या पूरा है! परियां चांद के इश्क़ में मुब्तिला हैं, चांदनी शायरों के दम से रोशन है, सितारों के जलवे चांदनी के शैदाई हैं, तो सूरज ज़मीन के इश्क़ में गिरफ्त हो उस पर अपनी शुआएं फेंक रहा है, भौंरा फूल का आशिक़ है तो फूल हवा की मुहब्बत में इतरा रहा है। जब पूरा आलम ही इश्क़ इबादत में गुम है तो मांडव जैसा इश्क़ अंगेज़ फ़िज़ा वाला शहर इश्क़ के जादू से कैसे अछूता रह सकता है!! रूपमती और बाज़बहादुर का वह रूहानी इश्क़ जिसमें जिस्मानी ख्वाहिशों की कोई मिलावट नहीं, मांडू को 'प्रेमियों के स्वर्ग' के ख़िताब से भी नवाज़ता है। यह वही इश्क़ है, जो सुरों से शुरू होता है, रक़्स में घुलता है और सुरूर में ढलकर यों मुकम्मल होता है कि रूह उसके जादू में कसककर ख़ुद-ब-ख़ुद गा बैठती है- 'ऐ काश! किसी दीवाने को, हमसे भी मुहब्बत हो जाए...'
 
कहते हैं धरमपुरी की राजकुमारी रूपमती सुरों की देवी थीं और मांडव के राजकुमार वायज़ीद अली शाह उर्फ़ बाज़बहादुर सुरों के शैदाई। रक़्स और राग के ये दोनों रूप बेशक पैदा अलग- अलग हुए थे, पर इनके दिलों के टुकड़ों पर, जन्मते ही, नूर के बादशाह ने 'राधा' और 'श्याम' लिख दिया था। क़ुदरत के निज़ाम में इनका मिलना तय था, मां नर्मदा की पूजा इनके मिलने की महज़ एक वजह हो गई थी। राग दीपक और राग भैरवी के सुरों को संगत देते बाज़बहादुर के सुर जब, नर्मदा किनारे, राग बसंत गाते रूपमती के सुरों को छू जाते, मुहब्बत का हैरतअंगेज़ नग़मा फूटकर मांडव की फ़िज़ा को गुलज़ार कर दिया करता था। जिस्मों ने जिस्मों को न छुआ, न चक्खा, पर रूहों ने रूहों के आग़ोश में जन्नत ज़रूर पा ली थी। आवाज़ ने आवाज़, अंदाज़ ने अंदाज़ और एहसास ने एहसास को कुछ ऐसे छुआ कि रूपमती की तड़प ने बाज़बहादुर के सूने पड़े संगीत को आबाद कर ही दिया। कहते हैं, 'प्यार सच्चा हो तो राहें भी निकल आती हैं, बिजलियां अर्श से ख़ुद रास्ता दिखलाती हैं' की तर्ज़ पर खुद मां नर्मदा की आज्ञा से रूपमती बाज़बहादुर के पास गई थी।
 
इस अफ़साने की हक़ीक़त से बस वही आश्ना हो सकता है, जिसने मुहब्बत की हो, इश्क़ की आग में ज़िंदगी को होम कर दिया हो और जिसे मेहबूब की बेचैनी आधी रात को तड़पाकर बिस्तर से उठा तहज्जुद के लिए खड़ा कर देती हो...। 
 
रूपमती की पूजा-आराधना अधूरी न रह जाए, वाजिद अली शाह ने इसका माकूल इंतेज़ाम किया था। रूपमती के इश्क़ को उसने इतनी ऊंचाई पर संभालकर रखा कि आज भी रूपमती मंडप की सीढ़ियां उतरते, हाफ़ते-कांपते सैलानी कह बैठते हैं, 'लिल्लाह! यह मुहब्बत क्या-क्या करवा दे।' 
 
रूपमती महल आकर मांडव सीमा समाप्त हो जाती है। यह आख़िरी पड़ाव, इश्क़ की दावत देता, मांडव को अलविदा कहने को मजबूर करता है। सैलानी सोचते हैं, सच है! क़ुदरत की कारीगरी के बीच मुहब्बत के बिखरते रंग सिर्फ मांडव में ही देखे जा सकते हैं, कहीं वादियों में गिरते झरने की शक्ल में, कहीं कोहरे में उठते कलमे की शक्ल में। कहीं निकलते सूरज की लाली के रूप में, कहीं अंधेरी शाम, जुगनुओं के झुंडों के बीच मनती दिवाली की शक्ल में।
 
जब अनमने क़दमों से घाट पार करते, चढ़ते चांद की चांदनी को पीछे छोड़, आप मांडव से विदा लेते हैं, आपके होंठ बरबस ही गुनगुना उठते हैं, 'रब की क़व्वाली है इश्क़-इश्क़...' सच!! बेख़ुदी में चूर कर देता है मांडव का कालजयी सौंदर्य।

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