खाद के संकट पर सरकार व प्रशासन का मौन?

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
समूचे मध्यप्रदेश में रबी के इस फसल चक्र में खाद का संकट किसानों की उम्मीदों पर पानी फेर रहा है। बोनी के शुरुआती दौर से लेकर दिसम्बर के इस अन्तिम चरण तक खाद की किल्लत यथावत बनी हुई है।

मुसीबत का मारा किसान इधर से उधर मारा-मारा भटक रहा है। जहां उसका किसानी का यह अमूल्य समय खाद ढूंढ़ने में नष्ट हो रहा है। तो वहीं सरकार द्वारा चिन्हित जिन स्थानों पर खाद मिलने की सूचना मिलती है, वहां वह दौड़ा चला जाता है। मगर,सहकारी समितियों व गोदामों से या तो उसे अपने कई दिन खर्च करने के बाद उसकी आवश्यकता के अनुरूप बेहद कम खाद मिल रही है, याकि उसे बेरंग ही लौटना पड़ रहा है।

प्रदेश के अधिकांशतः किसान छोटी और मझोली जोत के हैं, जिनकी आर्थिक स्थित व दयनीय दशा से हर कोई वाकिफ है। ऐसे में प्रदेश का अधिसंख्य किसान मजबूरी में दलालों और खाद के व्यापारियों के चंगुल में लगातार शोषण का शिकार हो रहा है। किसानों का धन व समय दोनों सरकार की इस बेलगाम नौकरशाही व अकर्मण्यता का शिकार हो रहे हैं।

प्रदेश की भाजपा सरकार और मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान आए दिनों कलेक्टरों की बैठक लेकर कह रहे हैं कि खाद का पर्याप्त स्टॉक है तो किसानों को खाद क्यों नहीं मिल पा रही है? जब प्रदेश के मुखिया ही इस तरह के वाजिब प्रश्न पूछकर हैरान और परेशान हैं, तब किसानों की स्थिति कैसी होगी इसका सहज ही अन्दाजा लगाया जा सकता है।

इससे स्पष्ट हो रहा है कि खाद की समस्या पर या तो सरकार झूठ बोल रही है याकि उनका प्रशासन। लेकिन इनके बीच यदि मारा जा रहा है तो वह है किसान। उसकी खेती पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं।

प्रदेश सरकार के कृषि मन्त्री कमल पटेल को फैशन शो में सुन्दरियों के साथ रैम्पवॉक का समय तो मिल जाता है, लेकिन किसानों की दशा-दिशा सुधारने व उनकी समस्या का निराकरण करने के लिए सम्भवतः उनका मन्त्रालय 'अक्षम' साबित होता है।

ऐसे में जब उनका मन कृषि क्षेत्र की ओर लगता ही नहीं है तो उन्हें अपने मन्त्रालय का नामकरण 'रैम्पवॉक मन्त्रालय' कर देना चाहिए। ताकि उन पर कोई प्रश्नचिन्ह न उठ सकें। मुख्य सवाल है कि सहकारी समितियों,गोदामों की खाद किसानों को क्यों नहीं मिल पा रही है?

किसान सहकारी समितियों, गोदामों के चक्कर लगाकर थक हार जाते हैं, लेकिन खेती के लिए खाद मिलना टेढ़ी खीर ही बनती चली जा रही है। औपचारिकता पूरी करने के लिए अधिक हुआ तो समितियों की लाईन में लगे किसानों पर पुलिसिया डंडे से भी प्रहार करने में सरकार व प्रशासन नहीं चूकते। मुख्यमन्त्री कह रहे हैं कि खाद का पर्याप्त स्टॉक है, लेकिन जब किसानों को खाद मिल ही नहीं पा रही। तो आखिर खाद गई तो गई कहां? किसानों की खाद सरकार निगल गई या प्रशासन ने कब्जा कर मुनाफा कमा लिया?

खाद न मिलने के कारण किसान दर-दर की ठोकरें खाता हुआ भटक रहा है और किसानों की आय दुगुनी करने का दम्भ भरने वाली सत्ता व उनका प्रशासन निद्रा में सो रहे हैं। जनप्रतिनिधि और सत्ताधारी दलों के नेतागण किसानों की समस्या से मुंहचुराते हुए क्यों फिर रहे हैं? क्या उन्हें किसानों की समस्या से कोई सरोकार नहीं रह गया है? याकि केवल भाषणों में ही विकास कार्य का इतिहास रचा जा रहा है। जब खाद न मिलने के कारण किसान अपनी बोनी नहीं कर पाएगा तो वह खाएगा क्या? और जिएगा कैसे?

इसी दमन के कारण किसान यह कहने को विवश हैं कि सरकार, प्रशासन व नेताओं की मिलीभगत के कारण ही उन्हें दुकानदारों,बिचौलियों से मनमाने दामों में ब्लैक में खाद खरीदने के लिए विवश होना पड़ रहा है।

अगर सरकारी तन्त्र किसानों का हितैषी होता तो खाद का संकट ही न उत्पन्न न होता और किसानों को ऐसे दुर्दिन ही नहीं देखने पड़ते। मुख्य सवाल यह है कि सहकारी समितियों और गोदामों में खाद नहीं है,लेकिन बाहर की दुकानें खाद के भण्डार से कैसे भर रही हैं?

सम्भवतः यही 'सुशासन' या 'सुराज' अभियान है जहां खाद के लिए परेशान किसान मारा-मारा फिर रहा है। उसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं हो रही है, और उसकी पीड़ा से किसी को भी कोई मतलब नहीं रह गया है। क्या इसके पीछे किसानों का दमन करने का षड्यन्त्र नहीं दिख रहा है? क्या सरकार व प्रशासन मिलकर किसानों को विवश कर रहे हैं कि वह मनमाने दामों से बाहर के दुकानदारों से खाद खरीदे?

वाकई यह कितने अजूबे की बात है कि सहकारी समितियों व गोदाम खाली पड़े हैं और बिचौलियों दुकानदारों के गोदाम मालामाल हैं,जिनसे वे किसानों का लहू चूसकर मालामाल हो रहे हैं।

क्या सरकार,जनप्रतिनिधियों, प्रशासन व सत्ताधारी दल के नेताओं को इसकी भनक तक नहीं है? सबका प्रतिशत तय है इसीलिए तो बिचौलियों- खाद व्यापारियों की जय है,वर्ना सरकार और प्रशासन अपने पर आ जाएं तो सात पुस्तों के मुर्दे भी उखाड़ लेते हैं। लेकिन यहां बात किसानों की है इसलिए उनकी कहीं कोई सुनवाई नहीं है।

हो भी क्यों न? आखिर सरकार, नेताओं को किसान तो सिर्फ़ वोट देता है, जबकि मनमाने दामों में किसानों को खाद बेंचने वाले नेताओं व सरकार को चन्दा देते हैं और उनकी आवभगत करते हैं। वहीं कोई न कोई दुकानदार किसी बड़े नेता या जनप्रतिनिधियों का सागिर्द होता है,जिसे भरपूर सरकारी खाद इसी एवज में मिलती है,ताकि वह मालामाल हो सके।

चिट्ट भी उनका पट्ट भी उनका और किसान को केवल सरकारी झटका ही मिलता है। यदि सरकार व प्रशासन शीघ्रातिशीघ्र अपनी गहरी निद्रा से नहीं जागते हैं। और खाद सहित उनकी अन्य समस्याओं का निराकरण करने के लिए आगे नहीं आते  तो किसानों को सत्ता और प्रशासन की ईंट से ईंट बजाने के लिए विवश होना पड़ सकता है।

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया का इससे कोई संबंध नहीं है।)

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