क्यों गुम हो रहा है जीवन का संगीत?

जीवन का तब तक कोई मतलब नहीं होता, जब तक इसे जीने वाला इसके लिए अर्थ न चुन ले। मानव जीवन का मूल्य तभी बढ़ता है, जब आप जीवन को समझते हैं, जीवन के प्रति आपका सकारात्मक नजरिया होता है। क्लियरवॉटर ने कहा भी है कि हरेक पल आप नया जन्म लेते हैं। हर पल एक नई शुरुआत हो सकती है। यह विकल्प है - आपका अपना विकल्प। 
 
ऐसे अनेक उदाहरणों से विश्व-इतिहास भरा पड़ा है। हमें सिर्फ समझ का दरवाजा खोलने की जरूरत है। अगर समझपूर्वक जीना आ गया तो जीवन के प्रत्येक धरातल पर ताजगी, तनावहीनता और खुशी को महसूस कर सकते हैं। जीवन के प्रति सकारात्मकता की सरिता स्वतः प्रवाहित होने लगेगी। आनंद का दरिया लहराने लगेगा। जिंदगी का हर एक लम्हा नया अंदाज देकर जाएगा। आप जीवन जीने के राज को पहचानें एवं निष्ठापूर्वक स्वयं पर-हितैषी बनकर हर सांस में सार्थकता का संवेदन भर दें। हर कण में साहस भर दें और धैर्यपूर्वक परिश्रम करते हुए अपने हर अधूरे सपने को पूरा कर लें।
 
ओल्गा आइलिन ने खुशियों की सौगात देते हुए जीवन को एक नया मोड़ दिया है। उन्होंने कहा है कि जब आप जिंदगी से बहुत ही नम्रता और दृढ़ता से कहते हैं कि ‘मैं तुम पर विश्वास करता हूं, वही करो जो तुम्हें ठीक लगता है।’ जिंदगी आपको अलौकिक तरीके से जवाब देती है। सार्थक और उपयोगी जीवन जीने वालों ने सदा अपने वर्तमान को आनंदमय बनाया है। शक्ति का सदुपयोग करने वालों ने वर्तमान को दमदार और भविष्य को शानदार बनाया है। मगर अफसोस इस बात का है कि शक्ति और समय का दुरुपयोग करने वाला न तो वर्तमान में सुख से जी सकता है और न ही अपनी भविष्य को चमकदार बना सकता है।
 
मनुष्य जीवन वह दुर्लभ क्षण है, जिसमें हम जो चाहें पा सकते हैं, जो चाहें कर सकते हैं। यह वह अवस्था है, जहां से हम अपने जीवन को सही समझ दे सकते हैं एवं मनरूपी उस पवित्र मंदिर में प्रविष्ट हो सकते हैं, जहां प्रेरणा-रूपी प्रभु विराजमान हैं, जिनके इर्द-गिर्द चिंतन, मनन की मंदाकिनी निरंतर प्रवाहमान हो रही है। 
 
शेड हेल्मस्टेटर ने कहा भी है कि आप कुछ भी कर पाने में सक्षम हैं, चाहे वह आपकी सोच हो, आपका जीवन हो या आपके सपने हों, सब सच हो सकते हैं। आप जो चाहें वह कर सकते हैं। आप इस अनंत ब्रह्मांड की तरह ही अनंत संभावनाओं से परिपूर्ण हैं।’ जरूरत बस सपने देखने और उन्हें पूरा करने के लिए समय नियोजित करने की है। यह आपकी गाड़ी को सितारों की ओर धकेलने में मददगार हो सकती है। 
 
अब हमें उस कक्ष में प्रवेश करने के लिए तैयारी करनी है, जहां हमारा हर कर्म हमारा आकाश होगा, पीछे उषाएं होंगी और आगे संध्याएं। जहां हमारा हर अक्षर हमें नया आयाम देगा। वहां का हर शब्द नया वेग देगा और हर वाक्य नया क्षितिज देगा। वाणी का हर स्वर आत्मा का संगीत होगा। यूं कहा जा सकता है कि अभ्युदय एवं जीवन विकास का ऐसा प्राणवान और जीवंत पल हमारे हाथ में आया है। एक दिव्य, भव्य और नव्य महाशक्ति हमारे पास में है। हम इसका उपयोग किस रूप में करते हैं, यह हम पर ही निर्भर करता है। शक्ति का व्यय तीन प्रकार से किया जा सकता है - उपयोग, सदुपयोग और दुरुपयोग। देखना यह है कि हमारी स्वतःस्फूर्त प्रेरणा हमें किस तरफ ले जाती है?
 
अपनी समस्त भावुकता और चंचलता को दूर करके हमें अपने अस्तित्व के गहनतम तल में डुबकी लगाने का प्रयास करना है। यह ऊर्जा अन्य सभी तलों की ऊर्जा की अपेक्षा सर्वोपरि है। हम यहां जो पा सकते हैं, वह अन्यत्र कहीं नहीं मिल सकेगा। यहां जो हो सकता है, वह अन्यत्र कहीं भी नहीं हो सकेगा। स्वयं पर विश्वास एवं आत्मशक्ति से जुड़कर बाहर की दुनिया से मुड़कर एक बार अंदर देखने का सही ढंग से प्रयत्न तो करें। मनुष्य जन्म की सार्थकता केवल सांसों का बोझ ढोने से नहीं होगी एवं केवल योजनाएं बनाने से भी काम नहीं चलेगा, उसके लिए खून-पसीना बहाना होगा। अपने स्वार्थों को त्यागकर परार्थ और परमार्थ चेतना से जुड़ना होगा।
 
कहावत है कि जैसा बीज बोओगे, वैसी फसल काटोगे। बबूल के पेड़ लगाकर कांटे ही पाए जा सकते हैं। यही बात कर्म के साथ है। जैसा कर्म करोगे, वैसा फल पाओगे। सत्कर्म करने वाला सदा आनंदित रहता है। उसे किसी बात का डर नहीं होता। उसका जीवन खुली पुस्तक की भांति होता है। उसके कर्म में कोई खोट नहीं तो उसे कुछ भी छिपाने की जरूरत क्या है? इसके विपरीत जो दुष्कर्म करता है, वह हर घड़ी भयभीत रहता है कि कहीं उसका भेद न खुल जाये। जिसके पैरों के नीचे की धरती कांपती रहती है, वह मजबूत पैरों से खड़ा कैसे रह सकता है? इसके साथ ही उसके अंतर में निरंतर बेचैनी रहती है, क्योंकि आत्मा, जो शुद्ध और बुद्ध है, मनुष्य के दुष्कर्मों को बड़ी हिकारत की निगाह से देखती है और उनके कत्र्ता को पीड़ा पहुंचाती है।
 
जीवन की सफलता का एक बड़ा मूल्यवान सूत्र है-मुंह में राम, हाथ में काम। ऐसा व्यक्ति कभी किसी बुरी बात को मन में नहीं आने देगा और अपने हाथों को कभी बिना काम के नहीं रहने देगा। किसी ने ठीक ही कहा है - खाली दिमाग शैतान का घर होता है। कर्म का सिद्धांत बड़ा सीधा-सादा है। जैसा करोगे, वैसा फल पाओगे। इसका हिसाब इस जन्म में ही हो जाता है। अच्छे काम करने वाला हमेशा फूल की तरह हल्का और खिला रहता है। हम तो यह भी मानते हैं कि आदमी जब राग-द्वेष की अंतर में लगी गांठे खोल देता है और नई गांठे बांधने नहीं देता तो उसे इस धरा पर ही स्वर्ग से साक्षात्कार का मौका मिल जाता है। लेकिन ऐसा करना उतना सरल नहीं है। इसके लिये जीवन को गुणों की सुवास से सुवासित करना जरूरी है।
  
जब कभी किसी उद्यान में जाता हूं और पुष्पों की सुगंध मुझ तक आती है तो मेरा मन पुलकित हो जाता है। सोचता हूं, इस सुगंध का पुष्पों के साथ रिश्ता क्या है? उत्तर मिलता है, वही रिश्ता है, जो गुण का मनुष्य के साथ है। जिस प्रकार सुगंध पुष्पों की गरिमा है, उसी प्रकार गुण मनुष्य की गरिमा है। गुण के कारण ही तो मनुष्य आदर पाता है।
 
गुण का संबंध मानव के साथ उस समय से जुड़ा है, जबसे उसने बर्बरता के युग से निकलकर सभ्यता के युग में पैर रखा है। उसका यह नाता उत्तरोत्तर प्रगाढ़ होता गया है और अब वह उस अवस्था में आ गया है, जबकि मनुष्य की पहचान उसके गुणों से ही होती है। कह सकते हैं, जिस मनुष्य में गुण नहीं, वह मनुष्य कहलाने योग्य नहीं है। अपने गुणों के कारण ही मनुष्य का सर्वत्र आदर होता है।
 
इसके दृष्टांतों से हमारा पुरातन साहित्य भरा पड़ा है। इतिहास साक्षी है कि मानवता के आसन पर विराजित संतों के चरणों में राजाधिराज भी अपना शीश झुकाते थे। उनका मार्गदर्शन प्राप्त करते थे। वर्तमान युग में भी उसकी मिसालें मिलती हैं। गांधी, विनोबा, आचार्य तुलसी, आचार्य महाप्रज्ञ तथा अनेक धर्म-पुरुष इसके जीवंत उदाहरण हैं। ऐसे वरेण्य व्यक्ति वही होते हैं, जो जीवन में मूल्यों को सर्वोपरि महत्व देते हैं।
 
ये गुण पूजनीय तब बनते हैं, जबकि मनुष्य के जीवन में विचार और आचरण का समन्वय होता है। इसके लिए कठोर साधना करनी होती है। वस्तुतः किसी मार्ग को पकड़कर उस पर चलते जाना साधना नहीं है। धन, सत्ता और भोग के पीछे आंख मूंदकर दौड़ने वालों की संख्या कम नहीं है, उनकी उस दौड़ को साधना नहीं कहा जा सकता। साधना सदा उच्चादर्शों की उपलब्धि के लिए की जाती है। महावीर ने साधना की थी, बुद्ध ने साधना की थी। उन्होंने राजपाट का मोह छोड़ा, घरबार का त्याग किया और सारे वैभव को ठुकराकर उस चरम लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयत्न किया, जिसकी प्राप्ति के बाद पाने को कुछ भी नहीं रह जाता। आधुनिक युग में विवेकानंद, गांधी और आचार्य तुलसी ने वही किया।
 
स्वेच्छा से अकिंचन बने और जीवन के अंतिम क्षण तक साधना के मार्ग पर अडिग निष्ठा और मजबूती से चलते रहे। इन युग-प्रवर्तकों का स्मरण करके आज भी श्रद्धा से मस्तक नत हो जाता है। अपने जीवन से उन्होंने बता दिया कि मूल्यों की स्थापना किस प्रकार की जाती है और अपने जीवन को किस प्रकार ढाला जाता है।
भारतीय जीवन दर्शन का एक मंत्र है-‘सादा जीवन उच्च विचार।’ देखने-सुनने में यह बड़ा सरल लगता है, लेकिन उतना ही कठिन है। जीवन में अधिकांश बुराइयां इस मंत्र की अवहेलना से होती हैं। सादगी और सात्विकता का चोली-दामन का साथ है। जिसमें सादगी का गुण होता है, वह असात्विक कभी हो नहीं सकता और ऐसा व्यक्ति सांसारिक मोह-माया से दूर रहता है।
 
भारतीय संस्कृति गुणों की खान है। हमारे यहां हमेशा इस बात पर जोर दिया है कि मनुष्य हर तरह से शुद्ध रहे। संयममय जीवन जीये। तप एवं साधना से जीवन को चमकाये। भगवान महावीर ने तो यहां तक कहा है कि कठोर साधना से आत्मा परमात्मा बन सकता है। गुणी मनुष्य सार को ग्रहण करते हैं, छाया को छोड़ देते हैं। जिसकी कथनी और करनी में अंतर नहीं होता, वही समाज में आदर के योग्य बनता है। इसी से आर्ष वचन है-‘गुणाः सर्वत्र पूज्यन्ते।’ गुण की सब जगह पूजा होती है।
आज के युग में इसकी ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। आज मानव-मूल्यों का ह्रास हो गया है, भौतिक मूल्य चारों ओर छा गये हैं। यही वजह है कि नाना प्रकार की विकृतियों से मानव, समाज और राष्ट्र आक्रांत हो गया है।इंसान का अपना प्रिय संगीत टूट रहा है। वह अपने से, अपने लोगों और प्रकृति से कट रहा है। उसका निजी एकांत खो रहा है और सामाजिकता भी कही गुम होती जा रही है। इलियट के शब्दों में कहां है वह जीवन, जिसे हमने जीने में ही खो दिया। फिर भी हमें उस जीवन को पाना है, जहां इंसान आज भी पूरी ताकत, अभेद्य जिजीविषा और अथाह गरिमा के साथ जिंदा है। 
 
आज मानवता ऐसे चैराहे पर खड़ी है, जहां उसके आगे का रास्ता अंधेरी सुरंग से होकर गुजरता है। लगता है, जैसे स्वार्थ इस युग का ‘गुण’ बन गया है। भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार हो गया है। उसी की आराधना में सब लिप्त हैं। यह देखते हुए भी कि हम निचाई की ओर जा रहे हैं, अपनी गति और मति को हम रोक नहीं पाते। जीवन भार बन गया है। इस स्थिति से उबरने का एक ही मार्ग है वह यह कि हम अपने अंतर को टटोलें, अपने भीतर के काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दुर्गुणों को दूर करें और उस मार्ग पर चलें, जो मानवता का मार्ग है। हमें समझ लेना चाहिए कि इस धरा पर मानव-जीवन बार-बार नहीं मिलता और समाज उसी को पूजता है, जो अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए जीता है। इसी से गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है-‘परहित सरिस धरम नहीं भाई।’

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