जीवन के बसंत खाक कर उसके अनुभव की राख लिए मनुष्य जीवन में आगे बढ़ा, तो पाया कि संसार का कोई एक रंग नहीं कोई सिद्धांत नहीं, बिना धुरी के घुमने वाला एक गृह है। यहां सत्य निष्ठा न्याय इज्जत सवाभिमान धर्म की बात तो होती है, इस पर कई ग्रंथ किताब भी लिखे गए पर जिसने इसका पालन किया इस मार्ग पर चलने की कोशिश की, उसका जीवन नरक से भी बतर हो जाता है। क्योंकि यह तमाम बातें दुनिया के आभाव प्रभाव में बदल जाती हैं। कल जो अच्छाई थी, आज वह बुराई है।
यहां हर रिश्ते को निभाने के लिए झूठ सहारा लेना पड़ता है, फिर चाहे आप का परिवार हो, मित्र हो या व्यवसायिक रिश्ते। अगर सत्य बोला तो संबंधों का समीकरण बदल जाता है। फिर सत्य चाहे उन्ही की भलाई के लिए हो या रिश्तो में पारदर्शिता के लिए हो। और नीति भी यही है कि जो जीवन का आधार है, जिनका जीवन में सहयोग है, उनसे राजनीति औपचारिकता नहीं की जाती। लेकिन यह अटल सत्य है कि सत्य की राह में सामाजिक मानसिक और आर्थिक नुकसान तय है। एकांत और ईश्वर के अलावा कोई आप का वास्तविक मित्र नहीं होगा और ऐसे लोगों का संख्या बल संसार में ज्यादा है, इसलिए दोषी भी आप ही होंगे। इसलिए अधिकतर लोग अपनी आवश्यकता और अकेलेपन को देखते हुए दुनियादारी को अपना लेते हैं और जो नहीं अपनाता, सच के साथ है। प्रतिकार करता हे वो नायक से खलनायक बन जाता है। अधिकतर खलनायक की यही कहानी है। इसलिए किसी के भी जीवन और आचरण के प्रति क्रिया प्रतिक्रिया करने से पहले एक विचार जरुरी है।
इस दुनियादारी के खेल में सब से बड़ा दुःख दर्द धन, शारीरिक घावों और किसी के जाने का नहीं बल्कि मन के घावों का है, जो अपनों से मिले। इंसान आया अकेला, जाएगा अकेला। दर्द भावनाओं के प्रतिघात का है। एक दिलचस्प उदाहरण भारत के सबसे बड़े गीतकार शैलेन्द्र का है, जिन्होंने तीसरी कसम फिल्म बनाई थी। इस फिल्म को रिलीज होने में पांच साल लग गए जो उन की मौत का कारण बनी। लोगो में खबर थी की आर्थिक तंगी उन की मौत की वजह है, जबकि असली कारण जब अपने लोगों ने साथ नहीं दिया, काम पर प्रश्न चिन्ह लगाए और अपनों के चेहरों से नकाब उतरने लगे तो उनकी मौत का कारण बने। इसका खुलासा उनके पुत्र ने किया क्योंकि जितनी गंभीरता से वे कम कर रहे थे, उतना पैसा तीन माह में कमा लेते, जितना पांच साल में लगाया। एक शेर है -