गांधीवाद के प्रचार को क्यों रोकना

क्या हर्ज है चरखा चलाने में ? किसी को मनाही है क्या ? जो जितना चाहे चलाए, कोई नहीं रोक रहा। वैसे भी प्रधानमंत्री संपूर्ण देश के साथ समस्त विभागों के एम्बेसेडर भी होते हैं। इस लिहाज से उनके सूत कातते चित्र में कोताही कैसे ? बीते कुछ दशकों में कोई एक प्रधानमंत्री का उदाहरण नहीं मिलता, जिन्होंने गांधी जी के विचारों को मुख्यतः प्रचारित किया हो या उन्हें पुनः स्थापित किए जाने पर जोर दिया हो।



कुछ समय अंतराल से गांधी जी को महज खाना पूर्ति या जयंति-तिथि पर याद करने के सिवा कुछ नहीं हुआ। पूरा विश्व जिस शख्स के विचारों को आज के युग में प्रासंगिक मानता है, उसे हमने सिर्फ दिवस-जयंति तक सीमित कर दिया। जबकि जोर उनके सिद्धांतों के अनुपालन में होना था, जिससे समतामूलक समाज के गठन में प्रजातंत्र को और अधिक कारगर बनाया जा सकता था।
 
पूर्वाग्रहों को दरकिनार कर देखा जाए, तो वर्तमान प्रधानमंत्री सही मायने में गांधी जी को पुनः स्थापित करने की मंशा लिए हुए हैं जो दशकों से लगभग गायब होकर हाशिए पर डाल दी गई थी। उनके स्वच्छता अभियान, योग दिवस, मेकिंग इंडिया, उज्जवला योजना, एलईडी बल्ब वितरण, भृष्टाचार के खिलाफ लड़ाई, पारदर्शिता इत्यादि चीजें कहीं न कहीं गांधी जी की नीति को उभारने के परिप्रेक्ष्य में ही एक कदम है। इसके साथ ही प्रधानमंत्री अपने विदेश दौरों पर हरदम गांधीजी के सिद्धांतों, विचारों का आह्वान तथा उनकी प्रासंगिकता के पक्ष में विश्व को मोड़ने का संदेश देते रहे हैं। यह सब देखते हुए प्रधानमंत्री के गांधी से जुड़ाव को दरकिनार नहीं किया जा-सकता। इसलिए तमाम विरोधाभासी बातों और गांधी विरोधी छवि को जनमानस में उलड़ने के पहले हमें यह गौर जरूर करना चाहिए कि पहले शायद गिनती के कोई एक-दो प्रधानमंत्री ही इस तरह देश-विदेश में गांधी अलख जगाए होंगे। अतः हमारे वर्तमान प्रधानमन्त्री के इस योगदान को नजरअंदाज किया जाना एक तरह से गांधी नीति अनुरूप भी नहीं है। फिर चरखा चलाते चित्र का विरोध यदि गांधी विरोधी लोग करते, तो भी बात समझ में आती लेकिन इधर तो गांधीवादी ही विरोध में दिखते हैं जो कम आश्चर्य नहीं है। ऐसे में लगता है कि उपलब्ध गांधीवादियों में गांधीवाद की शिक्षा अभी पूर्णता के करीब नहीं है। इससे बेहतर होगा कि सभी गांधीवादी स्वयं आकलन करें कि उनके रहते क्योंकर बीते दशकों में गांधीवाद हाशिए पर चला गया ? 
 
असल में उनकी गांधीवाद और नैतिक शिक्षा के प्रचार-प्रसार में निष्क्रियता के कारण ही नई पीढ़ी गांधीजी के प्रति लगभग अंजान हो गई है। नई पीढ़ी को यदि इस वक्त पुनः गांधीवाद-विचार से रूबरू नहीं रखा गया, तो आने वाला कल खुद-ब-खुद गांधी विहीन हो जाएगा। इससे बचने के लिए और मौजूदा युथ को जोड़े रखने के लिए भगीरथ प्रयास की जरूरत है ताकि हम आचार-विचार, नेकनीयती, देशप्रेम, अहिंसा, एकजुटता, सामाजिक समभाव, समान अवसर प्रदान करने वाली आधारशिला की लौ को जलाए रखें। 
 
युवाओं को इस मार्ग पर मोड़ने के लिए एक आइकॉन हमेशा चाहिए होता है। और इस वक्त हमारे प्रधानमंत्री का युवाओं में जबरदस्त क्रेज है। उनकी अपील करने पर फिर से देश में गांधीवाद की लहर बना सकते है। यदि ऐसा होता है तो यह देश और गांधीवाद दोनों के लिए संजीवनी की तरह कार्य करेगा ।
 
गांधी जी चिरकाल तक प्रासंगिक रहेंगे, यह बात पुनः स्थापित होने की ओर एक मील का पत्थर स्थापित हो रहा है। आज मानिए या कल, कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। क्योंकि गांधी एक विचार का नाम है और विचार अमर रहते हैं, चाहे मन समझाने को कान किसी भी तरह से पकड़ लीजिए, पर कान तो कान ही रहेगा बदलेगा नहीं...।

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