आज भारत के अधिकतर क्षेत्रों में निःस्वार्थ भाव से समाज को प्राथमिक शिक्षा बांटता हुआ प्राइमरी स्कूल गांवों, कस्बों या शहरों के एक कोने में तन्हा दिखाई दे रहा है। कई दशक पुराना प्राइमरी स्कूल गांव में बसा होने के बावजूद गांव से ही अलग-थलग पड़कर अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है। स्कूल पल हरपल टकटकी लगाए विद्यार्थियों का इंतजार कर रहा है। परन्तु आज के बदलते मंजर ने उसके नेक इरादों पर पानी फेर दिया है।
जी हां, सचमुच प्राइमरी स्कूल अपनी किस्मत कोसता हुआ बदहाली की मर्म कहानी सुना रहा है। मगर आज की आपाधापी भरी जिन्दगी में भला किसके पास इतना वक्त है कि वह उसके करीब जाकर उसकी खबर लें, ख़ामोशी की वजह पूछे और दशकों पहले दिए हुए अतुलनीय योगदान की सराहना करें, यानी उसके वजूद को याद करें। यह वही प्राइमरी स्कूल है जिसने बीते समय में समाज को वैज्ञानिक, क्रान्तिकारी, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रशासक और राजनीतिज्ञ तक सौपें हैं।
बेहाली का हाल :
बदहाली का आलम यह है कि आज प्राइमरी स्कूल शिक्षकों की कमी, मिड ड़े मील की अव्यवस्था, बच्चों की गिरती संख्या, सरकारी गैर-जमीनी नीतियां और खास तौर पर शासन सत्ता एवं समाज के गैर जिम्मेदाराना रवैया की वजह से मायूस हैं। जमीनी हकीकत तो यह है कि प्राइमरी स्कूलों में कहीं बच्चे हैं तो मूलभूत सुविधाएं नहीं, कहीं सुविधाएं है तो बच्चे नहीं।
जनता की नुमाइंदगी करने सत्ता के गलियारे तक पहुंचे अधिकतर नेता, ऊंचे ओहदेदार अधिकारी एक बार ओहदा हथियाने के बाद पीछे मुड़कर देखते तक भी नहीं, बस ये सब लोक लुभावनी नीतियां बनाने में मशगूल रहते हैं और इनका इससे दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं रहता कि ये नीतियां जमीनी स्तर पर कैसे उतारी जाए कि जरूरतमंद लोगों को लाभ मिले। समय के साथ-साथ नीतियां बनती हैं, चलती हैं और अन्ततः दफ्तरों की फाइलों में ठीक-ठाक ढंग से सुपुर्द भी हो जाती है। चुनाव आने पर सरकार अपनी पीठ थप-थपाकर इनका श्रेय भी लेती है।
सार्थक परिणाम से कोसों दूर नीतियां :
विशेष गौरतलब है कि आजादी के दशकों बीत जाने के बाद भी आज शिक्षा और उसकी गुणवत्ता का हाल बेहाल है। संविधान के अनुच्छेद-45 में राज्य नीति निर्देशक तत्वों के अन्तर्गत यह व्यवस्था बनाई गई थी कि संविधान को अंगीकृत करके 10 वर्षों के अन्दर 6-14 वर्ष के सभी बालक/बालिकाओं के लिए निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था की जाएगी। किन्तु कई दशक गुजर जाने के बाद भी इस लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सका। सरकार द्वारा प्रारम्भिक शिक्षा को लेकर प्रत्येक पंचवर्षीय में अहम फैसले लिए जाते है।
वर्तमान में कक्षा 1 से 8 तक सभी बालक/बालिकाओं के लिए निःशुल्क पाठ्य- पुस्तक, मध्याह्न पोषाहार और छात्रवृत्ति की अधिकाधिक व्यवस्था है। विद्यालय को लेकर तरह-तरह के अन्य मानक भी बनाए गए है। प्राथमिक विद्यालय की स्थापना हेतु तकरीबन 1 किमी तथा उच्च प्राथमिक विद्यालय की स्थापना हेतु 2 किमी की अनुमानित दूरी निर्धारित की गई है। इतना ही नहीं, सरकार का करोड़ों का बजट प्रतिवर्ष प्राथमिक शिक्षा हेतु व्यय किया जाता है। फिर भी आज ऐसी हालत क्यूं.... ??
सोचने वाली बात :
जरा गौर कीजिए, आज से 50 वर्ष पूर्व समाज के अधिकतर लोग इन्हीं प्राइमरी स्कूलों में पढ़ते थे, आगे बढ़ते थे और अलग-अलग क्षेत्रों में पहुंच कर परिवार एवं समाज का नाम रोशन करते थे। स्कूल आज भी वही हैं, इनमें पढ़ाने वाले शिक्षकों के चयन का मानक शायद तब से आज कहीं ज्यादा बेहतर है, मूलभूत सुविधाएं अधिक है, प्राथमिक विद्यालय की संख्या तब से कई गुना आज ज्यादा है। यहां तक कि आज तकरीबन प्रत्येक कस्बों में प्राइमरी स्कूल मिल ही जाएंगे। परन्तु अहम सवाल यह है कि इतना सब कुछ होने के बावजूद भी प्राइमरी स्कूलों की हालत दिन-प्रतिदिन क्यूं बिगड़ती जा रही है.... ?
एक अहम कारण यह भी :
मुख्य बात यह है कि आज के कुछ दशक पहले समाज के अधिकतर लोग इन्हीं प्राइमरी स्कूलों में पढ़ते थे। जहाँ से छात्र अपनी-अपनी बुद्धिमत्ता के अनुसार अलग-अलग क्षेत्रों में सफल भी होते थे। परन्तु आज समाज का अधिकतर बच्चा प्राइवेट स्कूलों में शिक्षा ग्रहण कर रहा है, इसके विपरीत कुछ गिने-चुने सामाजिक दबे-कुचले गरीब लोगों के ही बच्चे आज प्राइमरी स्कूलों में आ रहे हैं। यकीनन हम यह कह सकते हैं कि प्राइमरी स्कूलों के अभिभावकों का अधिकांश तबका गैर-जागरूकता के साथ-साथ गरीबी और भुखमरी से जूझ रहा है।
यह तो वही बात हो गई कि किसी को पूर्णतय: मक्खन निकाला हुआ दूध दिया जाए और कहा जाए कि अब तुम इससे मक्खन निकालों। आज के प्राइमरी स्कूलों की हालत यही है। पहले प्राइमरी स्कूलों में शुद्ध दुग्ध रूपी छात्र आते थे, जिनसे घी, मक्खन, दही, मट्ठा ( डॉक्टर, इंजी, नौकरशाह...) सब बनाए जाते थे और आज पहले से ही दूध से सब कुछ निकालकर प्राइमरी स्कूलों को अशुद्ध दूध दिया जा रहा है और कहा जा रहा है कि अब तुम इससे घी, मक्खन, दही और मट्ठा निकालों। क्या यह जमीनी तौर पर सम्भव है ? शायद कभी नहीं।
सामाजिक लगाम की कमी :
दूसरी अहम बात यह है कि दशकों पहले जब समाज के प्रत्येक तबकों के बच्चे इन्हीं प्राइमरी स्कूलों में पढ़ते थे, तो समाज की लगाम भी इन प्राइमरी स्कूलों पर रहती थी। हर अभिभावक प्राइमरी स्कूलों की शिक्षा की गुणवत्ता पर ध्यान रखते था, क्योंकि उनके पास ये स्कूल ही शिक्षा प्राप्ति के मुख्य विकल्प हुआ करते थे। सामाजिक सहभागिता के चलते ही शिक्षक भी अपने अध्यापन कार्य को पूर्ण ईमानदारी और निष्ठापूर्वक करते थे। आज दिशाहीन सत्ता ने शिक्षा का व्यवसायीकरण करके समाज के मध्यम एवं उच्च तबकों के लिए कई प्रकार के विकल्प तैयार कर दिए। रईसों और सुविधा सम्पन्न घरानों के बच्चे बड़ी-बड़ी अकादमियों, पब्लिक स्कूलों और प्राइवेट स्कूलों में पढ़ने लगे।
अत्याधुनिकता भरे दौड़-भाग वाले दौर में स्वकेन्द्रित समाज आज कस्बों की इन प्राइमरी स्कूलों की तरफ देखता भी नहीं है। खैर किसी से मतलब ही क्या है ? उनका बच्चा तो आलीशान स्कूल में पढ़ ही रहा है। शेष गरीब, अशिक्षित और गैर जागरूक समाज दो वक्त की रोटी में इतना व्यस्त है कि यदि एक दिन भी मजदूरी न करें तो खाए क्या ?
लाजमी है कि इस तबके को शिक्षा में कोई खासी रूचि नहीं है। एक बार जैसे-तैसे करके बच्चे का दाखिला प्राइमरी स्कूल में करा दिया, सर का भार उतार लिया और यह मान बैठा कि अब तो सरकार कॉपी-किताब, ड्रेस, मिड ड़े मील और छात्रवृत्ति देगी ही। परिस्थितियों को देखकर हम यह कह सकते हैं कि आज प्राइमरी स्कूलों से सामाजिक लगाम पूर्णरूपेण हट चुकी है, जिसका नतीजा हमारे सामने है।
शिक्षक भी भयहीन होकर स्वयं को सरकारी दामाद समझ बैठे हैं। देर से विद्यालय आना, जल्दी जाना और कई बार तो बिना छुट्टी ही विद्यालय से नदारद रहना अपनी दिनचर्या समझ बैठे है। खैर मास्टर साहब ! आप स्वयं विचारिए कि यदि आप दूसरे के बच्चे का भविष्य गर्त में ढकेलेंगे तो आपके बच्चे का भविष्य कितना अच्छा होगा, इसको आप स्वयं सोच सकते हैं ?
जन-जन की जिम्मेदारी :
अभी हाल में ही मैं व्यक्तिगत रूप से प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश के कई प्राइमरी स्कूलों में गई और वहां के शिक्षकों एवं विद्यार्थियों से अपने विचारों का आदान-प्रदान किया। कुछ शिक्षकों जिनमें डॉ. विष्णु मिश्रा, कैलाश नाथ मौर्या, नागेश पासी, अमित लाल वर्मा समेत अन्य कई शिक्षकों से खास बातचीत भी की, प्राइमरी स्कूलों की बदहाली के संबंध में कुछ नए पहलू भी सामने उभरकर आए। जो निम्नवत् हैं -
1- शिक्षा का व्यवसायीकरण होना।
2- समाज का प्राइमरी स्कूलों से अंकुश हटना।
3- वर्तमान में समाज के सिर्फ दबे, कुचले, निम्न वर्ग के बच्चों का प्राइमरी स्कूलों में जाना।
4- प्राइमरी स्कूलों और शिक्षकों पर सत्ता एवं शासन तंत्र का कानूनी लगाम लचीला होना।
5- समाज के अधिकतर लोगों की सोच का स्वकेन्द्रित होना।
6- भ्रष्टाचार के चलते नीतियों का ठीक ढ़ंग से जमीनी स्तर पर संचालन न होना।
7- बदलते आधुनिक जमाने के मुताबिक प्राइमरी स्कूलों और उससे जुड़ी नीतियों में सकारात्मक बदलाव न होना।
आइए बदलाव करें :
अहम बात यह है कि किसी भी चीज की बेहतरीकरण में जन-जन की सहभागिता अति आवश्यक है और देश भी आगे तभी बढ़ेगा, जब समाज का अंतिम जन आगे बढ़ेगा। हम अधिकतर इंसान स्वयं के विषय में दिन-रात सोचते रहते हैं, आप ही बताइए की क्या यह सच्ची मानवता है ? आप की थोड़ी-सी भागीदारी समाज को एक नई दिशा दे सकती है। बस आवश्यकता सिर्फ शुरुआत करने की है, आप देखेंगे कि स्वयं सेवा का कारवां बढ़ता जाएगा, समाज बदलता जाएगा, देश खुद-बखुद आगे बढ़ता जाएगा। सच मानिए, उस वक्त हमें 'देश बदल रहा है, आगे बढ़ रहा है' जैसे नारों का ढिंढ़ोरा पीटने की जरूरत ही नहीं रहेगी। देर मत कीजिए, आप भी अपने कस्बे के प्राइमरी स्कूलों में जाइए, उन पर नजर रखिए और शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने हेतु हर सम्भव प्रयास कीजिए। शायद इससे बड़ी देश सेवा आपके लिए कुछ भी नहीं हो सकती है। सो रहे सरकारी तंत्र और समाजिक नुमाइंदों को जगाइए। सरकार भी गली-मोहल्ले में थोक के भाव चल रहे प्राइवेट स्कूलों को तय मानक के मुताबिक न होने पर उनकी मान्यता रद्द करें और उन पर नकेल कसे।
कुछ नई पहल ऐसी भी प्रारम्भ करें, जिससे समाज के प्रत्येक तबके के बच्चे प्राइमरी स्कूलों में विद्यार्जन करना ज्यादा पसन्द करें। प्राइमरी स्कूलों को अत्याधुनिक बनाने पर बल दिया जाए, नवोदय और केन्द्रीय विद्यालय जैसे ही कई और विद्यालयों की स्थापना की जाए। प्राइमरी स्कूलों की ही तर्ज पर प्राइमरी अंग्रेजी माध्यम स्कूल भी खोले जाए। निष्कर्षत: हम कह सकते हैं कि देश की दिशा दशा तय करने वाले इन प्राइमरी स्कूलों के साथ जन-जन जुड़कर अंतिम जन को अग्रसित करने में अपना बहुमूल्य योगदान दें, ताकि राष्ट्र समग्रता की ओर बढ़े और गौरव का परचम लहराए।