बिहार चुनाव अभियानों के प्रचंड शोर से के बीच से निकलने वाले संकेतों को आप समझ सकते हैं। दोनों प्रमुख गठबंधनों तथा तीसरी शक्ति के रूप में खड़ा होने की कोशिश कर रही जन सुराज व उम्मीदवारों तक ने अपने मुद्दे भी घोषित कर दिए। मतदाताओं के सामने मुख्य प्रश्न यही है कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार और प्रदेश की नीतीश कुमार सरकार को कायम रखनी है या बदलने के लिए विपक्षी गठबंधन को सत्ता में लाना है?
प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में केंद्र और भाजपा ने राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने कार्यों, वक्तव्यों तथा व्यवहारों से स्थायी एवं तात्कालिक मुद्दे लगातार बनाए रखें है। छोटे से छोटे चुनाव में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा एक प्रबल कारक की भूमिका निभाते हैं। इसमें चुनावी आकलन की मुख्य वस्तुनिष्ठ कसौटियां क्या हो सकतीं हैं?
एकमात्र कसौटी यही होगी कि आखिर सामने दिखने वाले तीनों प्रमुख धाराओं के चुनाव में उद्देश्य क्या हैं? जब हम उद्देश्यों पर विचार करेंगे तो यह भी प्रश्न उभरेगा कि क्या उनकी संपूर्ण भूमिका उन उद्देश्यों के अनुरूप हैं? इन्हीं के अगले चरण में आपको चुनावी संभावनाओं के भावी दृश्य भी धीरे-धीरे स्पष्ट हो जाएंगे।
पहले दोनों मुख्य गठबंधनों यानी सत्तारुढ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन या राजग तथा दूसरी ओर जिसे महागठबंधन कहते हैं उनकी चर्चा। हालांकि विपक्ष को महागठबंधन तब कहा गया था जब नीतीश कुमार जदयू के साथ इस ओर आ गए थे। जब नीतीश कुमार इससे निकल चुके हैं तो यह महागठबंधन नहीं है। दोनों ओर सामान्य गठबंधन है। विपक्षी गठबंधन के सामने सीधा लक्ष्य महाराष्ट्र, हरियाणा तथा दिल्ली में भाजपा के विजय अभियान को रोक कर लोकसभा चुनाव में दिए गए धक्के को फिर सतह पर लाना है।
राहुल गांधी ने चुनाव आयोग पर हमला करते हुए यही कहा कि वोट चोरी नहीं होती तो भाजपा की सीटें घट जातीं और उनकी सरकार नहीं बनती। यह स्पष्ट है कि 2014 से हिंदुत्व, हिंदुत्व अभिप्रेरित राष्ट्रवाद के साथ सामाजिक न्याय एवं विकास आदि के आधार पर भाजपा का स्थिर ठोस वोट आधार कायम हो चुका है। भाजपा चाहे चुनाव जीते या हारे इसकी शुरुआत उस निश्चित वोट प्रतिशत से ही होती है।
इस नाते विपक्ष का पहला लक्ष्य हर हाल में उम्मीदवारों, राजनीतिक मुद्दों और चुनाव अभियानों में सशक्त एकजुटता प्रदर्शित करनी चाहिए थी। इससे मतदाताओं के बीच संदेश जाता कि वाकई ये विचार और मुद्दों के आधार पर भाजपा का विरोध करते हैं केवल सत्ता पाने के लिए इनका साथ नहीं है। राहुल गांधी, वम दल, स्वयं तेजस्वी यादव आदि सेक्युलरिज्म आदि के आधार पर भाजपा से विचारधारा का टकराव घोषित करते हैं । क्या इनका आचरण इसके अनुरूप रहा?
23 अक्टूबर की संयुक्त प्रेस वार्ता के पहले विपक्षी गठबंधन के शीर्ष नेताओं की एक भी बैठक नहीं हुई। इसके उलट जब लालू प्रसाद यादव, राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव दिल्ली में अपने मुकदमों के लिए न्यायालय में उपस्थित होने आए थे तो माना गया था कि कांग्रेस के शीर्ष नेताओं साथ उनकी बैठक होगी। केवल यह समाचार आया कि लालू यादव ने कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे से फोन पर बातचीत की। यानी तेजस्वी यादव और राहुल गांधी की बैठक नहीं हो सकी।
सभी पार्टियों ने स्वयं ही उम्मीदवारों की घोषणा की है। इसका संदेश यही है कि चूंकि इनको मालूम है कि आपस में लड़ने पर हम चुनाव नहीं जीत पाएंगे इसलिए इन्होंने एक दूसरे की सीट से कुछ उम्मीदवार हटाए और या उम्मीदवार खड़ा नहीं किया। बावजूद 11 स्थानों पर गठबंधन के उम्मीदवार एक दूसरे के विरुद्ध लड़ रहे हैं और अनेक स्थानों पर बिना पार्टी चुनाव चिन्ह के निर्दलीय खड़े हैं।
क्या चुनाव पर इसका असर नहीं होगा? गठबंधन में पार्टियों द्वारा अधिक से अधिक सीटों की चाहत अस्वाभाविक नहीं है। किंतु कांग्रेस का रवैया गठबंधन धर्म के विपरीत रहा। कांग्रेस का तर्क था कि पिछले चुनाव में 70 सीटों पर केवल 19 पर ही जीत इसलिए मिली क्योंकि ये स्थान हमारे अनुकूल नहीं थे।
दरअसल, कांग्रेस मान रही है कि राहुल गांधी सेकुलरिज्म के सबसे बड़े चेहरे हैं, उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा, संघ और हिंदुत्व विचार पर लगातार आक्रमण किया और चुनाव आयोग तक को भाजपा समर्थक घोषित करने के लिए अभियान चलाया इस कारण उनकी लोकप्रियता विपक्ष के सभी नेताओं से ज्यादा है।
इसीलिए गठबंधन या सीटों के बंटवारे में आत्मविश्वास और समानता से हमें व्यवहार करना है। कांग्रेस राजद को ब्लैंक चेक देने के मूड में नहीं रही और इसी कारण तेजस्वी यादव गठबंधन के मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित करने में काफी विलम्ब हुआ। ऐसा लगा कि कुछ विरोधियों तथा विश्लेषकों द्वारा लगातार इस पहलू को उठाने के बाद चुनावी क्षति का भय पैदा हुआ और फिर ये तेजस्वी यादव को नेता घोषित करने को बाध्य हो गए।
स्वयं कांग्रेस के अंदर टिकटों को लेकर पटना सदाकत आश्रम कार्यालय में मारपीट, गाली-गलौज तथा प्रदेश अध्यक्ष, विधानसभा में विपक्ष के नेता एवं प्रभारी के हवाई अड्डे पर उतरने के बाद कार्यकर्ताओं के गुस्से वाले दृश्य ने बहुत कुछ स्पष्ट कर दिया।
झारखंड मुक्ति मोर्चा पहले गठबंधन का भाग हुई लेकिन नाराज होकर झारखंड के मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन ने घोषणा कर दिया कि उनकी पार्टी बिहार में चुनाव नहीं लड़ेगी और झारखंड उपचुनाव में भी अकेले उतरेगी। इससे तो राष्ट्रीय स्तर पर आईएनडीआईए का अवशेष भी प्रश्नों के घेरे में आ गया।
दूसरी ओर भाजपा जद-यू के समान वर्चस्व वाले राजग के नेताओं ने बार-बार स्पष्ट किया कि वे नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ रहे हैं। सीटों के बंटवारे पर भी स्पष्ट वक्तव्य जारी किया। यहां भी सीटों पर मतभेद थे तथा रालोमो प्रमुख उपेंद्र कुशवाहा और हम के जीतन राम मांझी ने इसे सार्वजनिक प्रकट भी किया। गहराई से देखेंगे तो समस्या चिराग पासवान की लोजपा को 29 सीटें देने के कारण पैदा हुई।
उनके खाते कुछ सीटें ऐसी जिनमें कुछ क्षेत्रों से रालोमो और हम के साथ भाजपा प्रदेश नेतृत्व भी अपना उम्मीदवार लडाना चाहता था। इसीलिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने राजगीर और सोनबरसा में अपने उम्मीदवार को चुनाव चिन्ह देकर नामांकन करवा दिया। ऐसा होने के बावजूद नीतीश कुमार ने हर पार्टी के लिए अपना चुनाव प्रचार जारी रखा, सभी ने एक स्वर से एकजुट होने के बयान जारी किए।
आज की स्थिति में राजग के सभी घटक एकजूट चुनाव लड़ रहे हैं। पार्टियों के अंदर उम्मीदवारों को लेकर असंतोष हैं। स्थानीय भाजपा कार्यकर्ताओं में हम और लोजपा नेतृत्व द्वारा अपने परिवार रिश्तेदारों तथा कुछ गलत लोगों के टिकट देने का भी विरोध है। इनका थोड़ा असर चुनाव परिणाम पर पड़ता है।
मुद्दों की दृष्टि से राहुल गांधी ने चुनाव आयोग पर भाजपा के लिए वोट चोरी करने का आरोप लगाते हुए वोट अधिकार यात्रा निकाली और इसे बिहार सहित आगामी सभी चुनाव के लिए सबसे बड़ा मुद्दा बनाने की रणनीति अपनाई। वास्तव में जानबूझकर किसी मतदाता का नाम हटा नहीं इसलिए यह मुद्दा बन ही नहीं सका। तेजस्वी यादव और उनके रणनीतिकारों को इसका आभास हुआ तो उन्होंने राहुल की यात्रा के बाद बिहार अधिकार यात्रा शुरू कर दी।
आप देखेंगे कि चुनाव में राजद या अन्य घटक यह मुद्दा नहीं उठा रहे थे। इतना शोर वाले मुद्दा ही निराधार हो तो मतदाताओं के मनोविज्ञान पर इसका असर नकारात्मक ही होता है। दूसरी ओर भाजपा और जदयू लगातार लालू राबड़ी काल के कुशासन व जंगल राज को शीर्ष पर ला रही है तथा अपने काल में बिहार में आधारभूत संरचनाओं से लेकर स्वास्थ्य आदि के विकास की तस्वीर प्रस्तुत करते हुए मतदाताओं के सामने दोनों के बीच तुलना का विकल्प दे रहे हैं। जब विपक्ष एकजुट नहीं होगा तो सरकार के विरुद्ध प्रभावी तरीके से मुद्दे भी नहीं बनाये जा सकते। यही बिहार चुनाव में दिख रहा है।
प्रशांत किशोर ने पिछले दो वर्ष में बिहार से जुड़े मुद्दे उठाए। किंतु मुद्दे उठाने और राजनीतिक नेतृत्व का चेहरा बनने में मौलिक अंतर है। बिहार में तीसरी शक्ति को मत तीन स्थितियों में ही मिल सकता है। एक, जब मतदाताओं के अंदर सरकार के विरुद्ध इतना व्यापक असंतोष हो कि वे उसे उखाड़ फेंकना चाहें।
दो, यह मान लें कि वर्तमान विपक्ष भाजपा जदयू कि मुकाबला करने में बिल्कुल सक्षम नहीं है। और तीन , सामने तीसरा विकल्प इन दोनों से बेहतर चेहरों मुद्दों और रणनीति के साथ सामने है। ये तीनों स्थितियों बिहार में नहीं हैं। इसके बाद आप निष्कर्ष निकालिए कि आखिर चुनाव की अंतिम तस्वीर क्या होगी?
(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)