शाहीन बाग: नाटकीय पाखंड और अलोकतांत्रिक मुद्दाविहीन सियासी रंगमंच

कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
दिल्ली का शाहीन बाग बीते लगभग डेढ़ महीने से मुसलमानों की भीड़ के तमाशे और उसमें दिखावटी अन्य समुदायों के कुछेक चेहरों को आगे कर कौमी एकता की शिगूफेबाजी के नाम पर सबसे खतरनाक अलोकतांत्रिक मुद्दाविहीन सियासी रंगमंच बना हुआ है।

शाहीन बाग के जमघट में जुटे लोग नागरिकता संशोधन कानून, जनसंख्या रजिस्टर और देश की आन्तरिक व्यवस्थाओं के सुदृढ़ीकरण के लिए भविष्य में नागरिकता रजिस्टर की रुपरेखा के सीधे विरोध में है।

सोचिए कि यह सब केवल अपने देश में ही संभव है, जहां भीड़ बनाकर किसी भी रास्ते को महीनों तक के लिए कैद कर लिया जाता है। सरकार द्वारा लाए गए कानून को मानने से साफ इंकार किया जाएगा और यह बतलाया जाएगा कि हम देश के भाईचारे के लिए लड़ रहे हैं।

उसी संविधान की प्रतियां हाथों में उठाकर और तिरंगे ध्वज को लहराते हुए संविधान बचाने की दुहाई देती भीड़ जो स्वयं ही संविधान का माखौल उड़ा रही है।

ये देश की सरकार, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और न्यायपालिका की बातों को नहीं मानेंगे, तो बतलाइए कि ये चाहते क्या हैं?

महिलाओं को आगे कर उनके पीछे छिपे हुए शातिर चेहरे नकाब ओढ़कर देश के माहौल को बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं।
इस नौटंकी के लिए ज्ञात-अज्ञात स्त्रोतों से आई मोटी रकम के बलबूते बकायदे भोजन-पानी, बिरयानी और महीनों का राशन लेकर उन्होंने बिगुल फूंक दिया है, वो भी इस देश की चुनी हुई संवैधानिक सरकार के खिलाफ। अब वो कह रहे हैं कि कोई कुछ नहीं रहा? कि आखिर वो चाहते क्या हैं?

बात-बे बात पर प्रायोजित रहनुमाई का एजेंडा सबकी जुबां में खुलकर आ जाता है, लेकिन ये लटपटी जुबां से यही बोल रहे हैं कि हम देश के लिए लड़ रहे हैं।

यह कैसी लड़ाई है, जहां मुद्दे का कोई अता-पता नहीं है, बस भीड़ बनकर मीडिया के विभिन्न धड़ों की चमचमाती लाईमलाईट में आने की खुमारी और देश की सरकार पर खीझ उतारने का जुनून ही तो सर चढ़कर बोल रहा है।
आखिर यह कैसा प्रदर्शन है? जहां भीड़ को यह मालूम ही नहीं है कि इस देश के नागरिकों को इन कानूनों से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है।

या कि वहां की भीड़ जानबूझकर सबकुछ जानते हुए भी अनजानी बन रही है और किसी को भी सुनने के लिए तैयार नहीं है।

नारों के शोरगुल में रहगुजर कर हिन्दुत्व की कबर खुदेगी, भारत के टुकड़े करने की धमकियों की आवाजें सुनाई ही दे जाती हैं।

वहीं से लांचिंग पैड पर बैठा हुआ एक डरा हुआ शरजील इमाम नामक नवयुवक देश से 5 लाख भीड़ के दम पर असम को अलग करने के लिए खुलेआम लाउडस्पीकर से अपना एजेंडा बतलाता है और जमकर तालियां बजती हैं।
तथाकथित बुध्दि के बलबूते जीने वाले ‘बुध्दिजीवी’ ,फिल्मी दुनिया के कलाकार, पत्रकार, नेताओं की प्रजाति और डरे एवं दबे पुरूस्कृत चमचमाते चेहरे इस पर सब चुप्प! खामोशी का सन्नाटा पसर गया और उफ! तक की आवाज किसी के मुंह से नहीं निकली।

सोच लीजिए कि आखिर वहां की भीड़ क्या करना चाह रही है? लेकिन सब चुप्पी साधे अपने एजेंडों को आगे बढ़ाने के लिए बैठे हुए हैं।

इसके साथ ही जारी है पर्दे के पीछे और सामने से वोटबैंक के तुष्टीकरण के प्रयास जिसमें सबको अपने-अपने दल के खाते में भीड़ के तौर पर वोटबैंक की मोटी रकम दिख रही है, तो कइयों को इसी भीड़ के अन्दर से आगे का उज्ज्वल भविष्य।

शाहीन बाग सियासी शतरंजी चाल का एक ऐसा अड्डा बन गया है, जहां पुलिस की बैरिकेडिंग के बाद देश का कानून लागू ही नहीं होता है। एकत्रित भीड़ जो चाहती है, वह करने के लिए स्वतंत्र है।

अभिव्यक्ति की आजादी और सेकुलरिज्म की जन्मजात घुट्टी पीने-पिलाने की कवायद करने वाले लोग खुलेआम लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा रहे हैं, लेकिन कह यही रहे हैं कि हमारे साथ अन्याय हो रहा और सरकार को झुकना ही पड़ेगा।

इसी की ही बानगी है कि देश की राजधानी दिल्ली में संविधान की आड़ लेकर, झण्डे लहराते हुए देशभक्ति का मुखौटा लगाकर  देश के पत्रकारों से बदसलूकी और हाथापाई करने से वहां की भीड़ नहीं चूकती, और तो और  रिपोर्टिंग तक भी नहीं करने देती हो वहां क्या-क्या रचा जा रहा है? इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं।
मीडिया के भी धड़े बंटे हुए हैं, जिनमें जो शाहीन बाग की भीड़ को ऑपरेट कर रहे हैं या कि देश को आग में झोंकने के लिए तैयार बैठे हैं, उन्हें बकायदे वो भीड़ मंचासीन कर, पुष्पगुच्छों से स्वागत करती है।

इसके बाद कैमरे में प्रायोजित पूर्व निर्धारित एजेंडाधारी रिपोर्टिंग कर तालियां बजवाई जाती हैं।
देश रहे या न रहे, विदेशों में प्रायोजित रिपोर्टिंग का हवाला देकर भले ही देश की छवि धूमिल हो, लेकिन उन्होंने तय कर लिया है कि हम हर हाल में ऐसा प्रपंच रचेंगे ही चाहे इसका परिणाम कुछ भी निकले। लेकिन कोई उफ! तक नहीं निकलती इन सियासी प्रपंचधारियों के मुंह से कि आखिर यह सब क्या हो रहा है?

गांधी के सत्याग्रह का पाखण्ड दिखलाने वाले यह भूल जाते हैं कि जो यह भीड़ कर रही है उसका रत्तीभर अंश भी गांधी जी के मार्ग का अनुसरण नहीं है।
नागरिकता संशोधन कानून क्या है? और क्या नहीं तथा इसका जब कोई मतलब ही नहीं है भारतीय नागरिकों से तो सारे फसाद की जड़ क्या है?

सब बातें पूर्वनिर्धारित हैं जिसमें देश-विदेश में बैठे और छिपे हुए शातिर दिमाग शाहीन बाग की भीड़ को कठपुतली की तरह नचाते हुए देश में आराजकता और कलह का निर्माण करना चाह रहे हैं।

इस आग में विपक्षी दल जहां सबसे बड़े विलेन की भूमिका निभाते हुए सत्तासुख का स्वप्न देख रहे हैं। ये फिराक में हैं कि कब कौन सा मौका आए और हम वहां आगे खड़े होकर अपनी योजना को विस्तार दें, इनके लिए शायद शाहीन बाग जैसी भीड़ अंतिम दाव बनकर उभर रही हो जिसे ये हर हाल में भुनाना चाहते हैं।

धीरे-धीरे इस नाटकीय प्रपंच से पर्दा उठ रहा है और इन सबके चेहरे मुखौटे से बाहर आ रहे हैं, इनके अन्दर जो कटुता भरी हुई है वह खीझ बनकर सामने निकल कर आ रही।

शाहीन बाग की भीड़ वैसे तो सीएए, एनपीआर और भविष्य की एनारसी के लिए तमाशेबाजी कर रही है, लेकिन जब सच का तमाचा लगता है तो हवाइयां खाते हुए अन्य मुद्दों पर गोता लगाने लगती है । लेकिन इन सबके पीछे इनका जो असली मकसद है वह तय और पूर्वनिर्धारित एकदम से स्पष्ट है।

ये चाहते हैं कि सरकार ये कानून वापस ले और अगर वापस नहीं लेती है तो मुसलमानों को भी उसमें सम्मिलित करे जिससे इनकी रहनुमाई पाक, अफगानिस्तान, बंग्लादेश के मुसलमानों के साथ साबित हो जाए तथा ये यह भी सिद्ध कर सकें कि हम जो चाहेंगे सरकार को घुटनों के बल झुकाकर झपट कर छीन लेंगे।

किन्तु परन्तु गृहमंत्री अमितशाह ने भी सरकार का पक्ष स्पष्ट कर दिया है कि जिसे जो करना हो करे, यह कानून न तो वापस होगा और न ही संशोधन।

बस देखते रहिए कि यह पाखंड कब तक चलता है और नाटक के इस मंच के दर्शक बनकर बड़ी ही गंभीरता से इनके कारनामों का लुत्फ़ उड़ाते रहिए और समझिए भी कि सफेदपोश चेहरे देश में क्या करवाने की जुगत लगाए बैठे हुए हैं!

(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)

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