पिछले दिनों लोकतंत्र बचाओ अभियान में नेताओं को लज्जित करने के उद्देश्य से चूडियां पहुंचाईं गईं। खबर तो पढ़ी ही होगी। ये कोई पहली बार नहीं हैं। हम भारतीय जो न करें वो थोड़ा है। जब-तब पुरुषों को चूड़ियां भेंट करने की ख़बरें आती रहतीं हैं। चूड़ियां नारी के सिंगार, सौभाग्य और समृद्धि का प्रतीक तो हैं ही, किंतु पुरुषत्व की प्रेरणा और चुनौती भी बन जाती हैं।
जब भी पुरुष को पीछे हटता हुआ देखा गया नारियों ने ही चूड़ियां भेजकर ललकार दिया, पुरुषों ने भी चूडियां दे कर नक्कारा करार दिया। नारी-पुरुष दोनों का आभूषण होकर भी चूड़ियां इस अवसर पर ‘रण-निमंत्रण’ बन जाती हैं।
कितना दुःखद है कि इसी लोकतंत्र का आधा हिस्सा जिससे आबाद है, उसी के, और कुछ हद तक तुम्हारे भी हाथों का अलंकर आभूषण अपनी कच्ची मानसिकता के प्रदर्शन में हथियार बना रहे हो। होता रहा होगा कभी जब यह नादानी में किया जाता रहा होगा। लेकिन अब जमाना बदल गया है। तुम्हें भी बदलना होगा। यदि मानसिकता नहीं बदली तो तुम बदल दिए जाओगे। पहले ये जान लो कि हमारे देश और संस्कृति में इन चूड़ियों का महत्व क्या है? यदि समझ गए तो कभी इस तरह की जलील हरकतें करने का कोई भी साहस नहीं करेगा। यदि किया भी तो देश व लोकतंत्र के आधे हिस्से को उसे जवाब देना होगा, जिसमें उनके घर की भी महिलाएं शामिल होंगी। जानिये जरा हमारे देश, संस्कृति, धर्म में चूड़ियों का क्या महत्व रहा है।
भारत के प्रागैतिहासिक काल की नारी मूर्तियां भी कराभरणों से अलंकृत हैं। यह मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा से प्राप्त वसुओं से सिद्ध होता है। उज्जैन, अमरावती और मथुरा के उत्खनन से प्राप्त नारी मूर्तियों से ज्ञात होता है कि उनके करों के अलंकार सोने व चांदी के कंगन होते थे। रामायण काल के हस्ताभरण मणि-मुक्ताओं से सुसज्जित थे।
महाभारत में शंख की चूड़ियों का उल्लेख है। मेघदूत में यक्षप्रिया पालित मयूरों को अपनी चूड़ियों की मधुर खनकार पर नचाती हैं। कादंबरी में सरस्वती की शंख की चूड़ियों का वर्णन है और नारियों की रत्नजटित चूड़ियां भी प्राप्त होती हैं। शिशुपाल-वध में भी शंख की चूड़ियों का उल्लेख है। मुनि-कन्या शकुंतला वन में रहकर भी कमलनाल से अपनी कलाइयों को सुसज्जित करती हैं। सिद्ध हेमशब्दानुशासन में कांच की चूड़ियों का वर्णन विरह के समय किया गया है।
मौर्य, शुंग और सातवाहन काल में भारतीय महिलाएं दोनों हाथों में बहुत-बहुत चूड़ियां धारण करती थीं। सांची से प्राप्त नारी मूर्तियों के हाथों में चूड़ियां हैं। कुषाण काल की महिलाएं अनेक चूड़ियां पहनती थीं। मथुरा से प्राप्त नारी मूर्तियों में घुंडीदार कड़े और महीन चूड़िया प्राप्त होती हैं।
गुप्तकालीन प्राप्त नारी-मूर्तियों के हाथों में तीन-चार चूड़ियां हैं। अजंता से प्राप्त नर्तकी के चित्र में अधिक चूड़ियां सुशोभित हैं। खजुराहो की नायिका के दोनों हाथों में रत्नजटित दो-दो चूड़ियां हैं। लक्ष्मण मंदिर की नारी मूर्ति बीच में पांच चूड़ियां पहने हुए हैं। गांधार शैली की तक्षशिला से प्राप्त मूर्तियां कड़े और चूड़ियों से युक्त हैं। नालंदा से प्राप्त नारी-मूर्ति के हाथ पांच चूड़ियों से सुशोभित हैं।
वर्तमान में हमारे देश के राज्यों में प्रत्येक पर्व एवं शुभ कार्य से पूर्व चूड़ियों को प्रधानता दी जाती है। भारत के सभी प्रदेशों की नारियों को चूड़ियां अत्यंत प्रिय हैं। देवियों को सदा सुहागिन मानकर विशेष अवसरों पर उनके लिए प्रथमतः चूड़ियां बांध दी जाती हैं। मनिहारिन विभिन्न प्रकार की चूड़ियां पहनाकर, वधुएं रंग-बिरंगी चूड़ियां पहनकर और बड़ी-बूढ़ियां आशीर्वाद देकर प्रसन्न होती हैं।
विवाहित नारियों के लिए भारत के कोने-कोने में चूड़ियों का विशेष महत्व है। मारवाड़ी दुल्हनें सोने व आइवरी की चूड़ियां पहनती हैं। राजपूत दुल्हन की चूड़ी में साधारण आइवरी की चूड़ियां होती हैं जो आकार के हिसाब से कलाई से लेकर कंधे तक पहनी जाती हैं। उत्तर प्रदेश में दुल्हनें लाह की लाल व हरी चूड़ियां पहनती हैं। इनके आसपास कांच (शीशा) की चूड़ियां पहनी जाती हैं। राजस्थान व गुजरात की अविवाहित आदिवासी महिलाएं हड्डियों से बनी चूड़ियां पहनती हैं, जो कलाई से शुरू होते हुए कोहनी तक जाती हैं लेकिन वहां की शादीशुदा महिलालाएं कोहनी से ऊपर तक ये चूड़ियां पहनती हैं।
लाह की लाल रंग की चूड़ी, सफ़ेद सीप व मोटी लोहे की चूड़ी जिसे सोने में भी पहना जाता है। परंपरागत रूप में केरल में दुल्हन सोने की चूड़ियां कम संख्या में पहनती हैं। कई मुस्लिम परिवारों में चूड़ियां नहीं पहनी जाती हैं, फिर भी हल्दी की रस्म के दौरान कुछ राज्यों की महिलाएं लाल लाह की चूड़ियां पहनती हैं। इसके बावजूद हमारे देश में इस प्रकार की हरकत क्या शोभा देतीं है?
यही नहीं, सोमेश्वर कृत 'मानसोल्लास' में स्वर्ण-निर्मित, रत्न, मुक्ता-माणिक्य से जटित 'चूड़क' शब्द का उल्लेख है। 'वर्णरत्नाकर' में चुलि (चूली) शब्द सोने-चांदी की चूड़ियों के लिए प्रयुक्त किया गया है। यह 'चुलि' शब्द ही प्राकृत अपभ्रंश के 'चूड़' का विकसित रूप है। 'सभाशृंगार' में भी चूड़ी का उल्लेख है। 'निंबार्क' संप्रदाय के प्रसिद्ध ग्रंथ 'महावाणी' में पोइंची के साथ चूरा-चूरी का वर्णन आया है-
‘कबहू बाहु निहारि बारिके बाजूबंध सुधारै जू। कबहुंक चूरा-चूरी पहुँची हैकरि है रस सारै जू’।।
पंद्रहवीं शताब्दी के प्रारंभ में श्री राजशेखर सूरि ने 'नेमी नाथ फागु' में बाहु के शृंगार में चूड़ियों का उल्लेख किया है- ‘कंचन कंकण चूड़िय बाहू शृंगार।'
मध्यकाल में भारतीय नारियों के सौभाग्यपूर्ण सिंगार के रूप में चूड़ियों की उनके विभिन्न प्रकार से रसमय चर्चा की गई है। सूरदास ने चार-चारर के जोड़े के रूप में सुंदर वर्णन किया है-
'डारनि चार-चार चूरी बिराजति।'
परमानंद सागर में चूड़ियों के साथ गजरा और पहोंची का प्रयोग दृष्टव्य है-
‘नवग्रह गजरा जगमगै नव पाहौंची चुरियन आगे’।
इन चूड़ियों, कड़े, ब्रेसलेट्स ने इतनी कथा ग्रहण की है कि ज्योतिष व स्वास्थ्य से भी इसका गहरा नाता सिद्ध हो चला है। चूड़ियां केवल सौन्दर्य ही नहीं बढ़ातीं हैं, बल्कि स्वास्थ्य और मानसिक दशा को भी ठीक रखती हैं। चूड़ियां कई रूपों में प्रयोग की जाती हैं - चूड़ी, कंगन, कड़ा और ब्रेसलेट। पुरुष भी इसको कड़े के रूप में या ब्रेसलेट के रूप में धारण करके स्वास्थ्य और ग्रहों को ठीक रख सकते हैं। विशेष प्रयोगों से प्रेम और करियर में भी सफलता पायी जा सकती है।
मान्यता है कि चूड़ियां शनिवार या मंगलवार को नहीं खरीदनी चाहिए। पहनने के पूर्व चूड़ियां मां गौरी को जरूर समर्पित करें। नयी चूड़ियां प्रातः काल या संध्या काल ही पहनना शुरू करें। अविवाहित होने पर किसी भी रंग की चूड़ियां पहनीं जा सकती हैं। विवाहिता महिलाओं को काले रंग की चूड़ियां नहीं पहननी चाहिए।
अगर विवाहिता महिलाओं को सफेद चूड़ियां पहननी हैं तो साथ में लाल चूड़ियां जरूर पहनें। महिलाओं को कांच की या सोने चांदी की ही चूड़ियां पहननी चाहिए। पुरुष लोहे का,ताम्बे का,सोने या चांदी का कड़ा पहन सकते हैं।
इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने ब्रज में कृष्ण-राधा के अगाध प्रेम को प्रकट करनेवाली 'मनिहारी लीला' अभिनीत की है, जिसमें राधा से मिलने हेतु कृष्ण मनिहारी का रूप धारण करके आवाज़ लगाते हैं- 'कोउ चुरियां लेउजी चुरियां।' बाद में उनका कृष्ण रूप प्रकट हो जाता है। 'चूड़ियां टूटना' कहना अमंगल माना जाता है। 'चूड़ियां मौल गईं’ कहा जाता है। या जहां जैसी भाषा।
आधुनिक काल में राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने भी साकेत निवासिनी नारियों के मणिमय चूड़ियां पहनने का वर्णन किया है। साकेत के प्रथम सर्ग में-
‘चूड़ियों के अर्थ जो है मणिमयी, अंग ही कांति कुंदन बन गईं’।
कृष्णप्रेम दीवानी मीरा ने वैरागिन बनने पर सभी सौभाग्य और सौंदर्य वृद्धि के चिह्न मिटा दिए थे-
'चूरियां फोरूं मांग बखेरूं, कजरा डारूंगी धोय रे।'
सुभद्राकुमारी चौहान ने अपनी 'झांसी की रानी' शीर्षक प्रसिद्ध कविता में लिखा है-
‘तीर चलानेवाले कर में उसे चूड़ियां कब भाईं’?
ये कोई साधारण वस्तु या केवल सिंगर साधन नहीं है। ज्योतिष और आम जीवन में इनका प्रभाव बड़ा सूक्ष्म होता है, और ये मन पर सीधा असर डाल सकती हैं। यही नहीं चूड़ियों के विशिष्ट प्रयोग भी हैं।
स्वास्थ्य लाभ के लिए सोने और चांदी की बराबर मात्रा में मिश्रित चूड़ियां, प्रेम प्राप्ति और वैवाहिक जीवन को सुखी रखने के लिए गुलाबी रंग की चूड़ियां, शीघ्र विवाह के लिए मां दुर्गा को लाल चुनरी में लाल चूड़ियों का अर्पण, संतान प्राप्ति के लिए पीले कांच की चूड़ियां पहनने से लाभ होगा ऐसा कहा जाता है।
चूड़ियां मुख्य रूप से गोल होती हैं जो कि बुध और चन्द्रमा का प्रतीक हैं। वैवाहिक जीवन और सौंदर्य से सम्बन्ध रखने के कारण ये शुक्र का भी प्रतीक हैं। मणिबंध पर्वत को स्पर्श करने के कारण स्वास्थ्य पर भी सीधा असर डालती हैं। कहा जाता है सही नियमों से अगर सही रंगों की चूड़ियां पहनीं जायें तो वैवाहिक जीवन को सुखी किया जा सकता है।
इन रंग-बिरंगी, खनखनातीं, मंहगी-सस्ती, हर प्रकार की उत्सवप्रतीक, सौभाग्य चिह्न, स्वास्थ्य-ज्योतिष, धार्मिक आस्था से परिपूर्ण, ऐतिहासिक, मानव-मानवी, देव-देवियों के इस ब्रह्माकार लिए आभूषण को इस तरह से इस्तेमाल तो केवल और केवल आपकी नादानी, मूर्खता को ही प्रदर्शित करता है।
इतना सब होने के बावजूद यदि इसे किसी को भेंट दें तो केवल उसे ही जिसको बहुत अधिक प्रेम करते हों। क्योंकि इसे श्री राम, श्री कृष्ण ने भी स्वयं धारण किया हुआ है। इन्हीं के कारण आज हमारी विश्व के नक़्शे में पहचान भी है। उम्मीद करती हूं अब जब भी कोई इस कृत्य को करेगा, पहले इन सभी मुद्दों पर विचार जरूर करेगा। वर्ना वो खुद अपनी कच्ची बुद्धि का प्रदर्शन करेगा और फिर टूट भी जाएगा उन्हीं कच्ची चूड़ियों के सामान...