क्‍या सुशांत सिंह राजपूत ‘जलालुद्दीन रूमी’ और ‘फ्रेडर‍िक नीत्‍शे’ के लिखे गलत रास्‍तों पर निकल गया था!

जैसे सुशांत सिंह राजपूत किसी सामुहिक ‘प्रार्थना की आवाज’ की तरह लौट आया हो। जैसे वो किसी साये की तरह इस जिंदगी में हैं भी, और नहीं भी हैं, ‘Like the shadow, I am, and I am not’… -Rumi

उसने 50 स्‍वप्‍न की एक सूची बनाई थी। वो एक किताब लिखना चाहता था, उसे ‘क्र‍िया योग’ सीखना था। वो ‘भगवान शंकर’ के सामने ध्‍यान पर बैठना चाहता था। ‘ब्‍लू होल’ में डाई लगाना चाहता था। फ‍िर ‘स्‍वामी विवेकानंद’ पर एक डाक्‍यूमेंटरी बनाना उसकी फेहर‍िस्‍त में था। चांद-तारे और स्‍पेस के सपने, नासा की यात्रा। जंगल की सफारी और पौधें उगाना।

वो 15 अक्‍तूबर को फ्रेडरिक नीत्शे को जन्‍मदिन की बधाई देता और अहमद फराज के शेर लिखता। अपने इंटरव्‍यू में उसने कई बार कनेड‍ियन गायक लियोनार्द कोहेन को कोट किया। अपनी तस्‍वीरों के साथ वो तेरहवीं सदी के संत जलालुदृीन रूमी की पंक्‍त‍ियां लिखता, उसने अपनी एक तस्‍वीर में लिखा था; Like the shadow, I am, and I am not… ‘साये की तरह, मैं हूं, मैं नहीं भी हूं।

अब इस स्‍वप्‍न की दुनिया के बाहर की बात करता हूं…

हमेशा एक जैसा नजर आने वाले इस संसार में कोई एक आदमी अपनी अलग दुनिया बनाकर किस तरह से ‘मिसफ‍िट’ हो जाता है, प्रेम में भी और अपने व्‍यवसाय में भी।

क्‍या यह दुनिया गलत तरह से बनाई गई है, या सुशांत सिंह गलत आदमी था? शायद, जिंदगी को बेहद मानवीय, सामान्‍य या बैसिक तरीके से देखना और जीना गलत है?

इस दुनिया में किसी आदमी को अलग से अपने खुद के लिए ‘सब्‍लाइम’ होने का कोई अर्थ नहीं? क्‍या वही लोग दुनिया में ‘फ‍िट’ हैं जो अपनी कमर में पिस्‍तौल फंसाकर चलते हैं। जो अपनी पि‍स्‍तौल की गरम-गरम नाल लोगों के गर्दन पर रखकर प्रेम छीन लेते हैं, पैसा और कामयाबी भी?

क्‍या दुनि‍या के सारे कव‍ि और शायर झूठ नहीं लिखते हैं कि उनके नर्म- मुलायम ख्‍याल दुनि‍या के तमाम दुख और आंसू अपने में जज्‍ब कर सकते हैं? उनकी कलम जिंदगी के सारे प्रेम और प्रपंचों से मुक्‍त कर सकती है?
क्‍या यह गलत रास्‍ता था! क्‍या सुशांत ने रूमी, नीत्‍शे और अहमद फराज वाले गलत रास्‍ते को चुन लिया था?

क्‍या इसीलिए दसवीं और बारहवीं फेल बॉलीवुड भांडों की जमात के बीच एक जहीन और डीप थिंकर आदमी को बेहद ब्रूटली से मार दिया जाता है?

आलम यह है कि ऐसे आदमी को मारकर उसकी हत्‍या को भूल जाने के लिए कहा जाता है। उसके कात‍िलों को बचाने के लिए एक पूरा सरकारी भ्रष्‍ट तंत्र अपनी पूरी सत्‍ता और उसका असला झौंक देता है।

एक हत्‍या के बाद न्‍याय हालांकि एक ‘भ्रामक’ शब्‍द है/ सजा दिलाने का एक भ्रम, एक तसल्‍ली। क्‍योंकि मौत के बाद कहीं कुछ नहीं होता है, जैसा सुशांत ने अपनी एक तस्‍वीर के साथ लिखा था- मैं हूं भी, मैं नहीं भी हूं।

फ‍िर भी मुझे रूमी की ही एक दूसरी कव‍िता में यकीन है, जिसमें लिखा गया था, Don’t grieve. Anything you lose comes round in another form.

संभवत: प्रार्थना की तरह गूंजता सुशांत सिंह राजपूत न्‍याय की किसी उम्‍मीद, किसी तसल्‍ली की शक्‍ल में लौट आया हो।

अभी इतना ही यथेष्‍ट है,

नोट: इस लेख में व्‍यक्‍त व‍िचार लेखक की न‍िजी अभिव्‍यक्‍त‍ि है। वेबदुन‍िया का इससे कोई संबंध नहीं है।

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