आखिर हम क्यों मनाएं वेलेंटाइन डे?

देवेंद्रराज सुथार
फरवरी माह की 7 से 14 तारीख के बीच मनाए जाने वाले 'वेलेंटाइन डे' से आज कोई भी अनभिज्ञ नहीं है। खासकर इस दिवस के लिए युवा पीढ़ी पूरे साल लालायित और बेसब्र दिखती है। मानो हमने वेलेंटाइन डे को एक परंपरा का रूप देकर इसका निर्वहन करना अपना परम कर्तव्य समझ लिया है।
 
आज की युवा पीढ़ी जिस 'वेलेंटाइन डे' को 'प्रेम दिवस' की संज्ञा देकर मना रही है, उन्हें वेलेंटाइन डे की हकीकत से रू-ब-रू कराना बेहद जरूरी है। कहा जाता है कि पहले यूरोप में लोग बिना शादी के ही वो सबकुछ करने में स्वतंत्र थे, जो शादी के 7 फेरों के बाद करने की हमें समाज इजाजत देता है। एक बेहूदा कल्चर चल पड़ा था संपूर्ण यूरोपीय महाद्वीप में। लोग किसी के भी साथ चले जाते थे और मनमर्जी पर छोड़ भी देते थे।
 
यह सब इटली के संत वेलेंटाइन को रास नहीं आया और उन्होंने इसकी भर्त्सना कर एक अलग मार्ग अपनाया। संत वेलेंटाइन ने लोगों को शादी के बंधन में बांधकर दांपत्य जीवन के सच्चे अर्थों से परिचित करवाया। लेकिन ईसाई व चर्च के पादरी होने के कारण लोगों का धर्म परिवर्तन भी खूब कराया। यह सब रोम के राजा क्लोडियस को नागवार गुजरा और उसने संत वेलेंटाइन को बुलाकर इसे अपनी यूरोपीय संस्कृति और परंपराओं के विरुद्ध बताकर इस पर तुरंत रोक लगाने को कहा, पर वेलेंटाइन नहीं माने और उन्हें राजा ने फांसी पर टांग दिया।
 
एक कुप्रथा के कलंक से यूरोप को मुक्त कराने के लिए संत वेलेंटाइन का ये कत्लेआम इतिहास में यादगार हो गया। बेशक, वेलेंटाइन ने एक बुरी परंपरा का दमन कर एक नई परंपरा का शुभारंभ करना चाहा, जो काबिले तारीफ है लेकिन जबरन धर्म परिवर्तन कराकर लोगों को ईसाई बनाने की उनकी ये गलती कभी माफ न की जाने वाली है। यह सब यूरोप में हुआ है जिसका दूर-दूर तक भारत से कोई ताल्लुक ही नहीं है। फिर भी हमारे देश की नौजवान पीढ़ी इस सबको अपने बाप-दादाओं की बनाई परंपरा मानकर वेलेंटाइन डे मनाते ही जा रही है। हमारी युवा पीढ़ी आज अंधी होकर इन सब चीजों में अपना धन बर्बाद कर रही है।
 
अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण-उत्तर कोरिया, चीन जैसे कई देशों को वेलेंटाइन डे के नाम पर अपनी वस्तुओं को बेचने के लिए भारत जैसा देश एक सर्वश्रेष्ठ बाजार के रूप में नजर आता है और यहां के लोग उनको अपने 'सबसे बड़े ग्राहक' दिखते हैं। ग्रीटिंग कार्ड, टेडी बियर, चॉकलेट, तरह-तरह के गुलाब, गिफ्ट्स इत्यादि वस्तुओं को बेचकर विदेशी कंपनियां भारी मात्रा में मुनाफा कमाती हैं। इन सबसे अनजान रहकर युवा अपनी प्रेमिका के लिए ये सारी चीजें मुंहमांगे दामों पर खरीदता है। यदि ये सारी चीजें नहीं खरीदें तो आपने वेलेंटाइन डे भी नहीं मनाया, कंपनियां यह साफतौर पर कहती हैं।
 
अब सवाल यह उठता है कि क्या वेलेंटाइन डे मनाने के लिए ये सब संसाधन होने जरूरी हैं, जो विदेशी कंपनियां मुनाफे की आड़ में हमें मूर्ख बनाकर बेचती हैं। क्या इनके बगैर वेलेंटाइन डे न मनाया तो संत वेलेंटाइन नाराज हो जाएंगे? और सबसे जरूरी बात यह है कि क्या हमें प्रेम और उसका अर्थ यूरोप जैसे पाश्चात्य देशों से ही सीखना पड़ेगा? जो आज तक भोगवाद की बीमारी से ग्रस्त है। जहां प्यार की आड़ में छल, कपट और फरेब सब चलता है जबकि हमारी भारतीय संस्कृति का आधार प्रेम है और हमारे जीवन की शुरुआत ही प्रेम से होती है। वो हमारा प्रेम ही है, जो हमें 29 राज्यों और 7 केंद्र शासित प्रदेशों के बावजूद एक बनाकर रखता है।
 
हमारी संस्कृति प्रेम के मार्ग पर चलकर ही फलीभूत हुई है। जिस देश में सिर्फ सजीव ही नहीं, निर्जीव चीजों में भी प्रेम का भाव देखा जाता हो और जिस देश के लोग गुड़ से भी ज्यादा मधुर हों और जिस सरजमीं पर प्रेममूर्ति व 16 हजार रानियों के दिलों के राजा श्रीकृष्ण ने अवतरित होकर प्रेम के प्रतिमान गढ़े हों, जहां की माटी के कण-कण में प्रेम की सुगंध शरीर में रक्त की तरह घुली-मिली हो, क्या उस देश के लोगों को प्रेम का ढाई अक्षर किसी यूरोप या उस जैसे किसी अन्य देश से सीखने की जरूरत है? वेलेंटाइन डे जैसे दिन केवल शारीरिक संबंधों तक ही सीमित है। जिनके अंत में हताशा और दु:ख ही छिपा हुआ है। ये सारे ढकोसले तो चमड़े के पुजारियों की देन है।
 
आज जरूरत है कि इस वेलेंटाइन डे की बीमारी से पीड़ित हुए युवाओं को प्रेम के सच्चे अर्थों और असल मायनों से परिचित कराते हुए इस बला का भूत उनके सिर से अतिशीघ्र उतारें। और प्रेम का इजहार करना ही है तो भारतीय रीति-रिवाजों के अनुरूप करें और उपहार देने इतने ही जरूरी हैं, तो भारतीय कंपनियों की निर्मित वस्तुएं ही भेंट करें ताकि देश का धन देश में ही रहे।
 
अंततः हमें विदेशी षड्यंत्रों की चंगुल में फंसती देश की युवा पीढ़ी को इन खतरों के प्रति आगाह करना होगा।

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