स्त्री ईश्वर की एक खूबसूरत कलाकृति!

स्त्री ईश्वर की एक खूबसूरत कलाकृति!
यूं तो समस्त संसार एवं प्रकृति ईश्वर की बेहतरीन रचना है किंतु स्त्री उसकी अनूठी रचना है, उसके दिल के बेहद करीब। इसीलिए तो उसने उसे उन शक्तियों से लैस करके इस धरती पर भेजा, जो स्वयं उसके पास हैं मसलन प्रेम एवं ममता से भरा ह्दय, सहनशीलता एवं धैर्य से भरपूर व्यक्तित्व, क्षमा करने वाला हृदय, बाहर से फूल-सी कोमल किंतु भीतर से चट्टान-सी इच्छाशक्ति से परिपूर्ण और सबसे महत्वपूर्ण वह शक्ति जो एक महिला को ईश्वर ने दी है, वह है उसकी सृजन शक्ति। सृजन, जो केवल ईश्वर स्वयं करते हैं, मनुष्य का जन्म जो स्वयं ईश्वर के हाथ है उसके धरती पर आने का जरिया स्त्री को बनाकर उस पर अपना भरोसा जताया। उसने स्त्री और पुरुष दोनों को अलग-अलग बनाया है और वे अलग-अलग ही हैं।
अभी हाल ही में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने लिंगभेद खत्म करने के लिए 'ही' और 'शी' के स्थान पर 'जी' शब्द का प्रयोग करने के लिए कहा है। यूनिवर्सिटी ने स्टूडेंट्स के लिए नई गाइडलाइन जारी की है। 'जी' शब्द का प्रयोग अकसर ट्रांसजेंडर लोगों द्वारा किया जाता है। यूनिवर्सिटी का कहना यह है कि इससे ट्रांसजेंडर स्टूडेंट्स असहज महसूस नहीं करेंगे, साथ ही लैंगिक समानता भी आएगी तो वहां पर विषय केवल स्त्री-पुरुष ही नहीं, वरन ट्रांसजेंडर्स में भी लिंगभेद खत्म करने के लिए उठाया गया कदम है।
 
समाज से लिंगभेद खत्म करने के लिए किया गया यह कोई पहला प्रयास नहीं है, लेकिन विचार करने वाली बात यह है कि इतने सालों से संपूर्ण विश्व में इतने प्रयासों के बावजूद आज तक तकनीकी और वैज्ञानिक तौर पर इतनी तरक्की के बाद भी महिलाओं की स्थिति आशा के अनुरूप क्यों नहीं है? प्रयासों के अनुकूल परिणाम प्राप्त क्यों नहीं हुए? क्योंकि इन सभी प्रयासों में स्त्री ने सरकारों और समाज से अपेक्षा की किंतु जिस दिन वह खुद को बदलेगी, अपनी लड़ाई स्वयं लड़ेगी, वह जीत जाएगी।
 
महिला एवं पुरुषों की समानता, महिला सशक्तीकरण, समाज में उन्हें पुरुषों के समान अधिकार दिलाने के लिए भारत समेत संपूर्ण विश्व में अनेक प्रयास किए गए हैं। महिलाएं भी स्वयं अपना मुकाबला पुरुषों से करके यह सिद्ध करने के प्रयास करती रही हैं कि वे किसी भी तरह से पुरुषों से कम नहीं हैं। भले ही कानूनी तौर पर उन्हें समानता के अधिकार प्राप्त हैं किंतु क्या व्यावहारिक रूप से समाज में महिलाओं को समानता का दर्जा हासिल है? केवल लड़कों जैसे जींस-शर्ट पहनकर घूमना या फिर बाल कटवा लेना अथवा स्कूटर, बाइक व कार चलाना, रात को देर तक बाहर रहने की आजादी जैसे अधिकार मिल जाने से महिलाएं, पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त कर लेंगी? इस प्रकार की बराबरी करके महिलाएं स्वयं अपना स्तर गिरा लेती हैं।
 
हनुमानजी को तो उनकी शक्तियों का एहसास जामवंतजी ने कराया था, लेकिन आज महिलाओं को अपनी शक्तियों एवं क्षमताओं का एहसास स्वयं कराना होगा। उन्हें यह समझना होगा कि शक्ति का स्थान शरीर नहीं, ह्दय होता है। शक्ति का अनुभव एक मानसिक अवस्था है। हम उतने ही शक्तिशाली होते हैं जितना कि हम स्वयं को समझते हैं।
 
जब ईश्वर ने ही दोनों को एक-दूसरे से अलग बनाया है तो यह विद्रोह वे समाज से नहीं, स्वयं ईश्वर से कर रही हैं। यह हर स्त्री के समझने का विषय है कि स्त्री की पुरुष से भिन्नता ही उसकी शक्ति है, उसकी खूबसूरती है। उसे वह अपनी शक्ति के रूप में ही स्वीकार करे। अपनी कमजोरी न बनाए अत: बात समानता की नहीं, स्वीकार्यता की हो! बात 'समानता' के अधिकार के बजाय 'सम्मान के अधिकार' की हो और इस सम्मान की शुरुआत स्त्री को ही करनी होगी स्वयं से। सबसे पहले वह अपना खुद का सम्मान करे, अपने स्त्री होने का उत्सव मनाए। स्त्री यह अपेक्षा भी न करे कि उसे केवल इसलिए सम्मान दिया जाए, क्योंकि वह एक स्त्री है तथा यह सम्मान किसी संस्कृति या कानून अथवा समाज से भीख में मिलने वाली भौतिक चीज नहीं है।
 
स्त्री समाज को अपने अस्तित्व का एहसास कराए कि वह केवल एक भौतिक शरीर नहीं वरन एक बौद्धिक शक्ति है, एक स्वतंत्र आत्मनिर्भर व्यक्तित्व है, जो अपने परिवार और समाज की शक्ति हैं न कि कमजोरी। जो सहारा देने वाली है, न कि सहारा लेने वाली। सर्वप्रथम वह खुद को अपनी देह से ऊपर उठकर स्वयं स्वीकार करें, तो ही वे इस देह से इतर अपना अस्तित्व समाज में स्वीकार करा पाएंगी। हमारे समाज में ऐसी महिलाओं की कमी नहीं है जिन्होंने इस पुरुष प्रधान समाज में भी मुकाम हासिल किए हैं, जैसे इंदिरा गांधी, चंदा कोचर, इन्द्रा नूयी, सुषमा स्वराज, जयललिता, अरुंधती भट्टाचार्य, किरण बेदी, कल्पना चावला आदि।
 
स्त्री के स्वतंत्र सम्मानजनक अस्तित्व की स्वीकार्यता एक मानसिक अवस्था है, एक विचार है, एक एहसास है, एक जीवनशैली है, जो जब संस्कृति में परिवर्तित होती है जिसे हर सभ्य समाज अपनाता है तो निश्चित ही यह संभव हो सकता है। बड़े से बड़े संघर्ष की शुरुआत पहले कदम से होती है और जब वह बदलाव समाज के विचारों, आचरण एवं नैतिक मूल्यों से जुड़ा हो तो इस परिवर्तन की शुरुआत समाज की इस सबसे छोटी इकाई से अर्थात हर एक परिवार से ही हो सकती है।
 
यह एक खेद का विषय है कि भारतीय संस्कृति में महिलाओं को देवी का दर्जा प्राप्त होने के बावजूद हकीकत में महिलाओं की स्थिति दयनीय है। आज भी कन्या भ्रूण हत्याएं हो रही हैं, बेटियां दहेजरूपी दानव की भेंट चढ़ रही हैं, कठोर से कठोर कानून इन्हें नहीं रोक पा रहे हैं तो बात कानून से नहीं बनेगी। हर व्यक्ति को, हर घर को, हर बच्चे को, समाज की छोटी से छोटी इकाई को इसे अपने विचारों में, अपने आचरण में, अपने व्यवहार में, अपनी जीवनशैली में व समाज की संस्कृति में शामिल करना होगा। यह समझना होगा कि बात समानता, नहीं सम्मान की है। तुलना नहीं, स्वीकार्यता की है। स्त्री परिवार एवं समाज का हिस्सा नहीं, पूरक है।
 
अत: संबोधन भले ही बदलकर 'जी' कर दिया जाए, लेकिन ईश्वर ने जिन नैसर्गिक गुणों के साथ 'ही' और 'शी' की रचना की है, उन्हें न तो बदला जा सकता है और न ही ऐसी कोई कोशिश की जानी चाहिए।

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