World bicycle day : पर्यावरण की दोस्त साइकिलें लौट रही हैं

राजकुमार कुम्भज
प्रति व्यक्ति मोटर वाहन स्वामित्व तुलनात्मक दृष्टि से ज्यादा होने के बावजूद विकसित देशों में प्रति व्यक्ति साइकिल स्वामित्व भारत से कहीं अधिक है। भारत में साइकिल की भूमिका निःसंदेह आवश्यकता आधारित ही अधिक है, जबकि विकसित देशों में उसकी भूमिका आधारभूत संरचनाओं के साथ ही साथ पर्यावरण अनुकूलता का भी प्रतीक है। विकसित देशों में साइकिल, पर्यावरण के प्रति सजगता और सेहत के प्रति सद्इच्छा से जोड़कर भी देखी जाती है। अन्यथा नहीं है कि तेजगति से संचालित इस युग में साइकिल के प्रति स्नेह वाकई पर्यावरण के प्रति स्नेह और संरक्षणता की भावना दर्षाने में साइकिल अग्रणी है, तो तय रहा कि साइकिलें लौट रही हैं, जो कि पर्यावरण हितैषी भी हैं।
 
दुनिया के कई-कई देशों में स्थापित साइकिल-लेन पर्यावरण संरक्षता और सजगता दर्शाने के ही उदाहरण हैं, किंतु डेनमार्क की राजधानी कोपेनहेगन में साइकिल-ट्रैक दुनियाभर में सबसे ज्यादा विकसित हैं, इसलिए डेनमार्क के लोग समय पर और शीघ्र पहुंचने के लिए इसका खूब व बखूबी उपयोग करते हैं, जाहिर है कि साइकिलें पर्यावरण-पक्षधरता का जीता जागता सबूत हैं।
 
इधर भारत में भी शहरी परिवहन इन्फ्रास्ट्रक्चर तीव्र गति से विकास कर रहा है, किंतु हमारे यहां विकसित की जा रही ज्यादातर आधारभूत आधुनिक संरचनाएं मोटर-वाहनों को ही सुविधा प्रदान करने के लिए बन रही हैं और साइकिल जैसे पर्यावरण-हितैषी वाहन को नजरअंदाज किया जा रहा है, जबकि शहरी सहित ग्रामीण परिवहन में भी साइकिल का महत्वपूर्ण स्थान है। खासतौर से निम्न आय-वर्ग गरीबों के लिए साइकिल उनके जीविकोपार्जन का एक सस्ता, सुलभ और जरूरी साधन है। यह इसलिए भी कि भारत का निम्न आय-वर्ग गरीब अपने श्रम और रोजगार की कमाई से प्रतिदिन सौ-पचास रुपये परिवहन पर खर्च करने में सक्षम नहीं हैं। उसकी असमर्थता तो रोटी-कपड़े का इंतजाम करने में ही टें बोल जाती है। फिर यातायात के लिए किसी साधन का उपयोग कर पाना उसके हिस्से में आता ही नहीं है।
 
बेहतर आधारभूत संरचनाएं और अन्य सुविधाएं करवाकर भारत साइकिल परिवहन के क्षेत्र में निम्न आय-वर्ग के गरीबों को एक बेहतर यातायात-व्यवस्था दे सकता है। साइकिल परिवहन की बेहतर व्यवस्था, मध्यम और उच्च आय-वर्ग को भी आकर्षित कर सकती है। क्योंकि इस व्यवस्था से लोगों को सुरक्षित और सुव्यवस्थित यातायात का एक नया विकल्प सहज ही प्रदान किया जा सकता है और इसके मार्फत एक हद तक पर्यावरण-संरक्षण भी किया जा सकता है। 
   
   
भारत अपनी साइकिल परिवहन व्यवस्था में कुछ जरूरी किंतु मूलभूत सुधार करके आम और खास लोगों को साइकिल चलाने के लिए प्रेरित कर सकता है। सरकार के इस कदम से ऐसे सभी लोग प्रेरणा पा सकते हैं, जिनकी प्रतिदिन औसत यातायात दूरी पांच-सात किलोमीटर के आसपास बैठती है, किंतु वे भारी यातायात में दुर्घटनाग्रस्त हो जाने के भय और संकोच से साइकिल नहीं चला पाते हैं। एक शोध में बताया गया है कि भारत के छोटे शहरों में सभी वाहनों से दैनिक यात्रा की औसत दूरी ढाई से साढ़ेचार किलोमीटर तक ही होती है, जबकि मध्यम और बड़े शहरों में यह औसत दूरी चार से सात किलोमीटर के करीब रहती है, जिसे कि साइकिल परिवहन के लिए बिलकुल उपयुक्त माना गया है और कि जिससे साइकिल-परिचालक का थोड़ा जरूरी व्यायाम भी हो जाता है। यहीं यह भी उल्लेखनीय सच्चाई है कि साइकिलें हमें यातायात के भीड़ भरे जाम और अनावश्यक प्रदूषण से भी मुक्ति दिलाने में सहायक होती हैं, किंतु इस सबके बरअक्स सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि इनके लिए भारतीय सड़कें पर्याप्त सुरक्षित नहीं हैं।
 
होता यह है कि शहरी गरीब साइकिल सवार भारी यातायात में दुर्घटनाग्रस्त होकर मर जाता है और वहां उपस्थित जन-समुदाय उसे किसी भी तरह बचाने की कोशिश करने की बजाए, उस दुर्घटनाग्रस्त गरीब की फोटो खींचने अथवा वीडियो बनाने में व्यस्त हो जाते हैं। बेशक यह सब सोशल मीडिया के पागलपन में धुत्त और दम तोड़ती मानवीयता का भद्दा उदाहरण बनकर गुम हो जाता है। अन्यथा नहीं है कि हमारे देश में प्रतिदिन कहीं न कहीं कोई न कोई साइकिलसवार सड़क दुर्घटना का शि‍कार हो जाता है। 
 
सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय और राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक सड़क दुर्घटनाओं में मरने वाले तकरीबन अस्सी फीसदी मामले, मोटर वाहन चालकों की गलती का नतीजा होते हैं, जबकि साइकिल चालकों की गलती एक-डेढ़ फीसदी से कभी भी आगे नहीं गई है। इन तथ्यों से भी यही साबित होता है कि हमारे देष की सड़कें साइकिल चालकों के लिए उतनी भी सुरक्षित नहीं हैं, जितनी कि उन्हें न्यूनतम तो होना ही चाहिए। दिक्कत यह भी है कि सड़कों को साइकिलों के लिए सुरक्षित बनाने की कोई ख़ास बड़ी कोशिश भी कहीं दिखाई नहीं दे रही है।

दूसरी तरफ हमारे देश की भिन्न राज्य सरकारें अपने स्कूली छात्र-छात्राओं को बड़ी संख्या में साइकिल वितरण कर रही हैं, जिससे साइकिल सवारों की संख्या में वृद्धि हुई है, किंतु शहरों में साइकिल सवारों की संख्या में निरंतर गिरावट दर्ज हो रही है। ‘द एनर्जी ऐंड रिसर्च इंस्टीट्यूट’ के अनुसार पिछले एक दशक में साइकिल चालकों की संख्या ग्रामीण क्षेत्रों में 43 फीसदी से बढ़कर 46 फीसदी हुई है, जबकि शहरी क्षेत्रों में यह संख्या 46 फीसदी से घटकर 42 फीसदी पर आ गई है। इसकी मुख्य वजह साइकिल सवारी का असुरक्षित होना ही पाया गया है।
 
माना कि दिल्ली, मुंबई, पुणे, अहमदाबाद और चंडीगढ़ में सुरक्षित साइकिल लेन का निर्माण किया गया है। हाल ही में उत्तरप्रदेश में भी एशिया का अभी तक का सबसे लंबा साइकिल हाइवे बना है, जिसकी लंबाई दो सौ किलोमीटर से कुछ ज्यादा ही है। हालांकि देष में अभी भी साइकिल चालकों के अनुपात में साइकिल लेन विकसित किए जाने की प्रबल आवश्कता है। इसके साथ ही सड़कों को अतिक्रमण और अवैध पार्किंग से भी मुक्ति दिलाना बेहद ज़रूरी है। इस अवधारणा पर अलग से किसी खास विमर्श की आवश्यकता नहीं है कि सड़क पर पहला अधिकार पैदल चलने वाले का ही है और दूसरा अधिकारी साइकिल सवार ही होना चाहिए, लेकिन भारत भाग्य विधाताओं द्वारा हाइवे-निर्माण को दी जा रही प्राथमिकता खेद का विषय है, जबकि चीन ने साइकिल को, अपने समाज-रचना की परिचायक और उसके तकनीकी-विकास को पहचान से जोड़ दिया है। विश्व-पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से देखा जाए तो साइकिलों का लौटना एक शुभ संकेत है।
 
सार्वजनिक परिवहन के अलावा चीनी-सड़कों पर कारें ही कारें चारों तरफ नजर आने लगीं। सड़कों पर सामान्य यातायात का ठप्प होना एक सामान्य बात हो गई। आमतौर पर छोटी दूरी तय करने के लिए लोगों को टैक्सी, बस या फिर बैटरी वाली बाइक लेना जरूरी होता गया, लेकिन अब साइकिल शेयरिंग ने छोटे रास्तों के सफर को सरल बना दिया है। लोग इसे फिटनेस के लिहाज से भी बेहतर मान रहे हैं। चीनी सरकार भी साइकिल-चलन को बढ़ावा दे रही है। सरकार ने साइकिल सवारों के लिए अलग लेन भी बनाई है। साइकिल को सामाजिक सम्मान और नई तकनीक से भी जोड़ दिया गया है। चीन ने जिस तरीके से साइकिलों का लौटना सुनिश्चित किया है, वह अनुकरणीय है। 
 
स्मरण रखा जा सकता है अब से यही कोई दो दशक से पहले चीन के बड़े शहरों में यातायात जाम की समस्या आम हो गई थी। इससे निजात पाने के लिए वर्ष 2000 में चीन की म्युनिसिपल सरकार ने साइकिल शेयरिंग को प्रारंभ किया था। लेकिन योजना सफल नहीं हो पाई थी, क्योंकि एक तो इस योजना में कोई नयापन नहीं था और दूसरे साइकिल को वापस स्टैंड पर ही खड़ी करना पड़ती थी। इससे सीख लेते हुए सरकार ने इस योजना को वर्ष 2012 में रिलांच किया, जिससे चीन में साइकिलों की संख्या फिर से 43 करोड़ के पार पहुंच गई। साइकिलों की संख्या का यह आंकड़ा दुनिया में सबसे ज़्यादा बताया जाता है। वैश्विक-स्तर पर अगर साइकिलों की वापसी की बात करें, तो साइकिलों के विषय और संदर्भ में दुनियाभर में इस समय कुल जमा छः सौ तरह की योजनाओं पर काम चल रहा है। चीनी साइकिलें दुनियाभर में लोकप्रिय हो रही हैं और दुनियाभर में लौट रही हैं।
 
चीन की इन प्रचलित पीली-नारंगी साइकिलों में ‘क्यूआर कोड’ एवं ‘जीपीएस सिस्टम’ लगे हैं और ये साइकिलें खुद-मालिकी की न होकर शेयरिंग की हैं। स्मार्ट फोन यूज़र ‘क्यूआर कोड’ से लॉक खोलकर साइकिल किसी भी गली-कोने में ले जा सकते हैं, सुविधानुसार सड़क किनारे कहीं भी खड़ी कर सकते हैं और जरूरत के हिसाब से दूसरी साइकिल ले जा सकते हैं। इनके किराये का भुगतान मोबाइल एप के ज़रिये और सुरक्षा की भी कोई जरूरत ही नहीं। साइकिल अपनाने के इस क्रांतिकारी मोबाइल एप ने परिवहन के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया है। चीन के युवा ही नहीं, बल्कि उम्रदराज लोग भी अब साइकिल को प्रथमिकता से पसंद कर रहे हैं। चीन में दो दर्जन से अधिक कंपनियां साइकिल शेयरिंग के व्यापार में सक्रिय हो चुकी हैं। तीन हजार युआन (तीस हजार रुपए) कीमत वाली मोबाइक कंपनी की साइकिल का किराया एक युआन प्रतिघंटा है, जबकि हल्की तकनीक वाली साइकिलों का किराया आधा युआन प्रतिघंटा है। ट्यूबरहित टायर होने से इनके पंक्चर होने का संकट भी नहीं रहता है। तो तय रहा कि साइकिलें लौट रही हैं।

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