आंध्र प्रदेश में 5 उपमुख्यमंत्री : एक फूहड नजीर

किसी भी राज्य की सरकार में उपमुख्यमंत्री बनाया जाना कोई नई बात नहीं है। विभिन्न राज्यों के मुख्यमंत्री अपने मंत्रिमंडल में अपने सूबे की राजनीतिक और सामाजिक समीकरण साधने या प्रशासनिक तकाजे के तहत अपने किसी वरिष्ठ मंत्री को उपमुख्यमंत्री मनोनीत करते रहे हैं।

किसी-किसी प्रदेश में गुटीय या सामाजिक संतुलन साधने के मकसद से दो उप मुख्यमंत्री बनाए जाने के भी कई उदाहरण हैं। लेकिन आंध्र प्रदेश में नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी ने अपने मंत्रिमंडल के भीतर ही एक उप मुख्यमंत्री मंडल भी बना डाला है।
 
अपनी 25 सदस्यीय मंत्रिपरिषद में उन्होंने पांच उपमुख्यमंत्री बनाए हैं। ये पांच उपमुख्यमंत्री पांच अलग-अलग वर्गों- अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछडा वर्ग, अल्पसंख्यक और कापू (किसान) समुदाय से बनाए गए हैं। आजाद भारत के राजनीतिक इतिहास में इससे पहले कभी ऐसा नहीं हुआ।
 
हाल ही में हुए आंध्र प्रदेश विधानसभा के चुनाव में जगनमोहन रेड्डी की पार्टी वाईएसआर कांग्रेस ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की है। जाहिर है, सामान्य वर्गों के अलावा उन्हें इन पांचों समुदायों का भी समर्थन मिला है और वे चाहते हैं कि अपनी सरकार में इन्हें समुचित प्रतिनिधित्व दिया जाए। जगनमोहन की मंशा सही हो सकती है पर यह तरीका हमारे राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था को हल्का बनाने वाला है।
 
जबसे गठबंधन राजनीति का दौर शुरू हुआ है, उपमुख्यमंत्री का पद आमतौर पर सबसे बड़े साझीदार दल को दिया जाता है। अलग-अलग समुदायों का प्रतिनिधित्व दिखाने के लिए एक या दो उपमुख्यमंत्री बनाने का चलन भी पहले से चला ही आ रहा है। इस समय कई राज्यों में कहीं एक तो कहीं दो-दो उपमुख्यमंत्री काम कर रहे हैं। लेकिन जगनमोहन ने तो पांच उपमुख्यमंत्री बनाकर एक नई परंपरा ही कायम कर दी है।
 
हालांकि अपने देश के संविधान में उप प्रधानमंत्री या उपमुख्यमंत्री जैसे पदों का कोई प्रावधान ही नहीं है। फिर भी कई मौके ऐसे आते हैं जब प्रधानमंत्री अपने किसी वरिष्ठ मंत्री को उपप्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री अपने किसी वरिष्ठ मंत्रिमंडलीय सहयोगी को उपमुख्यमंत्री मनोनीत करते हैं।

चूंकि यह पद संवैधानिक नहीं होते हैं, लिहाजा इन पदों को धारण करने वाले व्यक्तियों को कोई विशिष्ट अधिकार या शक्तियां हासिल नहीं होती हैं और व्यावहारिक तौर पर वे भी अन्य कैबिनेट मंत्रियों की तरह ही काम करते होते हैं। इन पदों पर मनोनयन विशेष परिस्थितियों में ही होता है, खासकर गठबंधन सरकारों में संतुलन साधने और सरकार को मजबूती देने के लिए।
 
कभी-कभी किसी मंत्री के विशिष्ट राजनीतिक कद को गरिमा प्रदान करने के लिए भी उसे इस पद पर मनोनीत किया जाता है। आमतौर पर उपप्रधानमंत्री का दर्जा गृह, वित्त और रक्षा जैसे अहम मंत्रालय की जिम्मेदारी संभाल रहे मंत्री को ही दिया जाता है। आजादी के बाद जवाहरलाल नेहरू की अगुवाई में गठित पहले मंत्रिमंडल में गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल को इसी मकसद से उपप्रधानमंत्री मंत्री बनाया गया था। 1950 में उनकी मृत्यु के बाद लंबे समय तक कोई उप प्रधानमंत्री नहीं रहा।
 
1967 में इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्री बनने के बाद गुटीय संतुलन साधने के मकसद से वित्त मंत्री मोरारजी भाई देसाई उपप्रधानमंत्री बनाए गए थे। 1977 में मोरारजी देसाई की अगुवाई में बनी जनता पार्टी की सरकार में भी वित्त मंत्री चौधरी चरणसिंह और रक्षा मंत्री बाबू जगजीवन राम को गुटीय संतुलन साधने के मकसद से यह ओहदा दिया गया।

बाद में कांग्रेस के समर्थन से बनी चौधरी चरण सिंह की सरकार में कांग्रेस नेता यशवंतराव चव्हाण को गृह मंत्रालय सौंपकर उपप्रधानमंत्री बनाया गया था। उसके बाद लंबे समय तक कोई उपप्रधानमंत्री नहीं रहा। 1989 में बनी विश्वनाथ प्रताप सिंह की और 1990 में चंद्रशेखर की सरकार में कृषि मंत्री चौधरी देवीलाल उपप्रधानमंत्री रहे। उसके बाद 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार में गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी भी इस पद पर रहे। 
 
उपप्रधानमंत्री और उप मुख्यमंत्री भी पद और गोपनीयता की शपथ कैबिनेट मंत्री के रूप में ही लेते हैं, लेकिन 1989 में जब देवीलाल ने उपप्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली थी तो विवाद खडा हो गया था और मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गया था।

तब तत्कालीन अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी ने सुप्रीम कोर्ट के सामने स्पष्ट किया था कि देवीलाल ने भले ही शपथ में उपप्रधानमंत्री शब्द का इस्तेमाल किया हो पर वे मंत्री के रूप में ही कार्य करेंगे और प्रधानमंत्री की कोई शक्ति उनमें नहीं होगी। सुप्रीम कोर्ट ने यह दलील मान ली थी और यही व्यवस्था बन गई। यही व्यवस्था उपमुख्यमंत्री के संबंध में भी लागू होती है।
 
केंद्र में उपप्रधानमंत्री की तरह ही राज्यों में उपमुख्यमंत्री बनाने का चलन भी पुराना है। कई राज्यों में अलग-अलग समय पर अलग-अलग परिस्थितियों में उपमुख्यमंत्री बनाए गए। इस समय भी उत्तर प्रदेश में दो और बिहार, राजस्थान, कर्नाटक, गुजरात, दिल्ली, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, गोवा आदि राज्यों में एक-एक उपमुख्यमंत्री कार्यरत हैं।
 
बहरहाल आंध्र प्रदेश में पांच अलग-अलग वर्गों से जो पांच उपमुख्यमंत्री बनाए गए हैं, उसमें भी प्रदेश की आधी आबादी यानी महिलाओं का प्रतिनिधित्व नहीं है। मुख्यमंत्री जगनमोहन से पूछा जा सकता है कि किसी महिला को उपमुख्यमंत्री बनाने लायक उन्होंने क्यों नहीं समझा? यह भी संभव है कि आने वाले दिनों में कुछ और समुदायों के लोग अपना-अपना उपमुख्यमंत्री बनाने की मांग करे। अगर ऐसा हुआ तो जगनमोहन किस-किसको यह पद बांटेंगे?
 
यह भी विचारणीय है कि दिखावटी पद बांटकर विभिन्न समुदायों को संतुष्ट करने की यह राजनीति सूबे की प्रशासनिक व्यवस्था की कैसी गत बनाएगी? असल में यह एक नेता में आत्मविश्वास की कमी का सूचक है। शायद जगनमोहन को यह भरोसा नहीं है कि अपने कामकाज से वे राज्य की पूरी जनता का दिल जीत सकते हैं या शायद उन्हें यह आशंका है कि विभिन्न समुदायों के प्रतिनिधि कहीं बीच में ही उनका साथ न छोड़ दें।

क्या इसी स्थिति से बचने के लिए जगनमोहन ने उन्हें उपमुख्यमंत्री का पद बतौर एडवांस में पेश कर दिया है? जो भी हो, जगनमोहन ने पांच उपमुख्यमंत्री बनाकर देश के अन्य राज्यों के लिए एक बहुत ही फूहड राजनीतिक नजीर पेश की है। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण वेबदुनिया के नहीं हैं और वेबदुनिया इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है)

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