नई सरकार के सामने 10 बड़ी चुनौतियां

देश के सर्वाधिक लंबे और खर्चीले चुनाव अभियान के बाद सत्ता संभालने वाली नई सरकार के समक्ष घरेलू और वैश्विक पटल पर अनेक चुनौतियां रहेंगी। इन चुनौतियों में वे मुद्दे प्रमुख होंगे जिनके कारण जनता ने पिछली सरकार से आजिज आकर नई सरकार के हाथों में देश की कमान सौंपी है। घोटाले, भ्रष्टाचार, महंगाई और कालाधन इस बार के चुनाव से पूर्व ही जन-जन की जुबान पर चढ़ गए थे और चुनाव के लिए यही महत्वपूर्ण मुद्दे बने। अब देखना यह है कि नई सरकार कैसे इन समस्याओं से पार पाती है और जनता को खुश कर पाती है।

* सामने पहली लड़ाई महंगाई : संप्रग सरकार के 10 साल के कार्यकाल में महंगाई का मुद्दा जनता के लिए सबसे अहम बना रहा। खासतौर से दूसरे कार्यकाल में तो महंगाई रॉकेट की गति से बढ़ी और जनता त्राहिमाम कर उठी। अब नई सरकार के लिए यह सबसे बड़ी चुनौती रहेगी कि वह कैसे आम उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों को नियंत्रण में रखती है और जनता को महंगाई से निजात दिलाती है।

अपने चुनाव प्रचार अभियान के दौरान भाजपा नेताओं ने राजग की अटल सरकार की दुहाई देते हुए कई बार कहा कि उस दौर में महंगाई पर पूरी तरह से काबू पाया गया और जनता पर खर्चों का बोझ नहीं बढ़ने दिया गया। अब यही चुनौती है कि महंगाई को नियंत्रित कर जनता को राहत देने के प्रयास किए जाएं।

वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ तालमेल... अगले पन्ने पर...


पिछले कुछ वर्षों से दुनिया में मंदी का माहौल है। अमेरिका समेत दुनिया की प्रमुख अर्थव्यवस्थाएं इस दौर में ध्वस्त होती दिखाई दीं। इसके बावजूद भारत की पिछली सरकार ने मंदी का ज्यादा असर देश की अर्थव्यवस्था पर नहीं पड़ने दिया।

अब नई सरकार को भारत की अर्थव्यवस्था में दुनिया का भरोसा बनाए रखने की चुनौती रहेगी। भारत का विदेशी मुद्रा कोष समृद्ध है और किसी भी विषम परिस्थिति से निबटने में सक्षम है। इसे बनाए रखने के लिए जरूरी है कि आयात-निर्यात और भुगतान संतुलन की स्थिति को उचित स्तर पर बनाए रखा जाए।

अगले पन्ने पर... विदेशों में जमा कालेधन की वापसी...


देश में पिछले कुछ वर्षों से कालेधन का हंगामा व्यापक स्तर पर चल रहा है। बाबा रामदेव और अन्ना हजारे जैसी सामाजिक हस्तियां सार्वजनिक मंचों से देश का धन विदेशों से वापस लाने की मांग उठाते रहे हैं।

उनका आरोप है कि भ्रष्ट तरीकों से कमाया गया यह कालाधन विदेशी बैंकों में जमा है। अगर यह धन वापस आ जाता है तो देश की अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जाएगी और जनता को अनेक करों से मुक्ति मिल सकेगी। नई सरकार के नेता भी यह वादा करते रहे हैं कि वे कालाधन वापस लाएंगे। अब यह वादा पूरा करने की चुनौती उनके सामने है।

भ्रष्टाचार पर लगाम... अगले पन्ने पर...


नई सरकार के समक्ष भ्रष्टाचार पर लगाम लगाना सबसे बड़ी चुनौती रहेगी, क्योंकि पिछली सरकार के पतन में सबसे बड़ा हाथ घोटालों और भ्रष्टाचार के मुद्दे को ही माना जा सकता है।

संप्रग सरकार ने जाते-जाते भ्रष्टाचार विरोधी विधेयक पारित करवाकर जनता की सहानुभूति हासिल करने की कोशिश भी की, अन्ना हजारे ने सरकार के लोकपाल विधेयक पर अपनी सहमति भी दे दी थी, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी। अब जनता की पैनी नजर इस पर होगी कि यह सरकार कैसे उसे भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाती है।

अगले पन्ने पर... सांप्रदायिकता के आरोपों से बचाव...


मोदी सरकार पर सबसे बड़ा खतरा सांप्रदायिकता फैलाने के आरोप लगने का है। विपक्षी दलों के हाथों में भाजपा के विरुद्ध सबसे बड़ा हथियार सांप्रदायिक होने के आरोप लगाने का ही रहता है।

चुनाव प्रचार के दौरान नरेन्द्र मोदी समेत लगभग सभी प्रमुख नेताओं ने इस बार इन आरोपों को ज्यादा सिर नहीं उठाने दिया, लेकिन अब सरकार बनने के बाद भी संयम बरतने की चुनौती रहेगी। खासतौर से बजरंग दल जैसे कट्टर हिन्दूवादी संगठनों की लगाम कसकर रखना होगी।

आंतरिक चुनौतियों का सामना कैसे करेंगे... अगले पन्ने पर...


हालांकि मोदी ने अभी तक कश्मीर और देश के अन्य तनावग्रस्त क्षेत्रों की समस्याओं को सुलझाने का कोई रोडमैप नहीं बताया है, न ही बताया है कि वे देश की आंतरिक चुनौतियों का सामना कैसे करेंगे? जानकार विशेषज्ञों का कहना है कि मोदी ऐसी व्यवस्था को पसंद कर सकते हैं, जो कि सेना, पुलिस केंद्रित हो और नौकरशाही बहुत अधिक शक्तिशाली हो।

ऐसी व्यवस्‍था में राजनीतिक प्रक्रियाओं को खारिज किया जा सकता है और हो सकता है कि सरकार कठोर, बर्बर कानूनों का सहारा ले, पोटा, मकोका का विस्तार किया जाए और इससे मानवाधिकारों का हनन हो और लोगों के अधिकारों के पक्षधरों को जेलों में ठूंस दिया जाए। लेकिन यह सिक्के का एक ही पहलू है, क्योंकि हो यह भी सकता है कि मोदी कश्मीर समेत अन्य समस्याओं का हल निकाल लें। यह बात उनके विरोधी भी मानते हैं कि उनमें निर्णय लेने की क्षमता है।

पीडीपी नेता और जम्मू-कश्मीर विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष महबूबा मुफ्ती मानती हैं कि 'मोदी में निर्णय लेने की क्षमता है और वे कश्मीर मसले का कोई सकारात्मक हल निकाल सकते हैं।' लेकिन अगर स्टेट आक्रामक हुआ तो आंतरिक चुनौतियां और समस्याओं को बढ़ने से नहीं रोका जा सकता है।

अमेरिका और पाकिस्तान से संबंध...अगले पन्ने पर...


अगर मोदी प्रधानमंत्री बनते हैं तो अंतरराष्ट्रीय संबंधों के क्षेत्र में बड़े बदलावों की संभावना बनती है। सबसे बड़ा मामला अमेरिका का ही है जिसने देश में मोदी के प्रवेश पर रोक लगा दी है। यह प्रतिबंध 12 वर्ष से लागू है लेकिन क्या भारत के प्रधानमंत्री को अमेरिका आने से रोक सकता है? अमेरिका के आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक हित भारत के साथ जुड़े हुए हैं, तो क्या अमेरिका इनकी उपेक्षा कर सकता है? क्या मोदी भी अमेरिका की उपेक्षा करने का जोखिम मोल ले सकते हैं?

मोदी के समर्थक मानते हैं कि ऐसे मुद्‍दों पर अमेरिका को ही घुटने टेकने होंगे, लेकिन क्या यह संभव होगा? पाकिस्तान के साथ भी भारत के संबंध तनावग्रस्त अधिक रहने की आशंका है, क्योंकि संघ के प्रभाव के चलते मोदी के लिए पाकिस्तान एक दुश्मन देश है। बांग्लादेश को लेकर भी मोदी का रुख नरम नहीं है और ऐसे में उनके प्रधानमंत्री बनने पर इन देशों के साथ संबंधों का अंदाजा लगाया जा सकता है।

केंद्र और राज्यों के संबंध...


मोदी के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही यह आशंका जाहिर की जा रही है कि उनके राज्य सरकारों के साथ संबंध ठीक नहीं रहेंगे। वे भाजपा शासित राज्यों की सरकारों के सामने भी रोड़े अटकाने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।

लेकिन इसके साथ ही, इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि केंद्र में सत्ता में आने के बाद मोदी की कार्यप्रणाली में बहुत परिवर्तन आए और वे राज्य सरकारों के साथ संतुलन बनाने की कोशिश करें। चूंकि केंद्र और राज्य सरकारें अलग-अलग रहकर काम नहीं कर सकती हैं इसलिए दोनों को आपस में तालमेल बैठाना ही होगा।

विकास का मुद्दा... अगले पन्ने पर...


देश के विकास के मामले में वे गुजरात मॉडल को पूरी तरह समुचित बताते रहे हैं। लेकिन अर्थशास्त्री मानते हैं कि गुजरात में विकास के पूंजीवादी मॉडल का उपयोग हुआ है जिसके चलते विकास तो हुआ, लेकिन इस विकास में सड़कें, बिजली, फैक्टरियां, कारखाने आदि तो होंगे लेकिन मानव विकास का पक्ष छूट जाएगा।

मानव‍ विकास के कई मानकों पर गुजरात का विकास मॉडल खरा नहीं उतरता है। बच्चों की जीवन वृद्धि, उनमें खून की कमी, महिलाओं में खून की कमी, भुखमरी और मजदूरों की प्रति व्यक्ति की आय में गुजरात पीछे है।

मोदी के राज्य में गुजरात पर कर्ज का बोझ भी 4 गुना बढ़ गया है। यहां स्कूल ड्रॉप आउट की दर भी 58 फीसदी है। राज्य सरकार सरकारी स्कूलों की उपेक्षा कर निजी स्कूलों को बढ़ावा दे रही है। ज्यादातर जोर निजीकरण पर है और राज्य के 43 फीसदी घरों में शौचालय नहीं हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों में यह दर 67 फीसदी तक है। इस तरह समग्र विकास के 10 मानदंडों- प्रति व्यक्ति व्यय, शिक्षा, स्वास्थ्य, घरेलू सुविधाएं, गरीबी दर, महिला साक्षरता, दलित और आदिवासी समुदाय का विकास, शहरीकरण, वित्तीय समावेश और कनेक्टिविटी- पर भी गुजरात पूरी तरह खरा नहीं उतरता है।

पिछले वर्ष सौराष्ट्र और कच्छ के इलाके समेत आधे गुजरात में पानी का बड़ा संकट रहा और लोगों के पास पीने का पानी तक नहीं था। इस तरह एक देश की अर्थव्यवस्था और विकास को लेकर मोदी की समझ लोगों के सामने तभी आ पाएगी जबकि वे पूरा देश संभालेंगे, क्योंकि एक राज्य और देश में बहुत बड़ा अंतर होता है।

मोदी के प्रधानमंत्री बनने से लोकतांत्रिक संस्थाओं और उदारवादी रुख पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने की आशंका जताई जा रही है। विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर शिकंजा कसा जा सकता है और लोगों का कहना है कि अपनी आलोचना के बारे में मोदी जितने असहनशील और असहिष्णु हैं, उनके समर्थक उससे भी कई गुना अधिक हैं। ऐसे में लोकतांत्रिक संस्थाओं का ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो सकता है या कि हम उम्मीद कर सकते हैं कि प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी के विचार अधिक लोकतांत्रिक हो जाएंगे?

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