लखनऊ। किसी ने सच कहा है अपने पर विश्वास हो तो परेशानियां भी खुद ब खुद आपसे दूर चली जाती हैं। एक तरफ जहां करोना महामारी के चलते प्रवासी मजदूरों को रोजगार छोड़ अपने गांव वापस आना पड़ा। फिर नए सिरे से रोजगार की तलाश करना एक कठिन परिश्रम से कम नहीं है। लेकिन बांदा के कुछ प्रवासी मजदूर आपदा को अवसर में बदलते हुए भगीरथ बन गए और उनके प्रयासों से सूखी नदी में भी पानी आ गया।
लॉकडाउन में दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात से भीषण झंझावातों को झेलते 53 मजदूर बांदा जिले की नरैनी तहसील के अपने गांव भावंरपुर वापस आ गए। बदहाली के दौर में भी इनके हौसलें परास्त नहीं थे। इसी के परिणाम स्वरूप इन सभी ने गांव में ही रह कर श्रम करने की ठान ली ताकि पेट की ज्वाला और परिवार पालने हेतु परदेश जाने की नौबत न आए।
इस पर गांव के खेतिहर भी खेत देने के लिए तैयार हो गए। किस्मत बदलने की इसी आशा पर 7 जून को प्रवासी श्रमिकों की एक बैठक घरार नदी किनारे हुई। महिला मजदूर सबिता उनके पति महेश, रानी पत्नी राम सजीवन, चंदा पत्नी रति राम, ललिता पत्नी नत्थू प्रसाद, बृजरानी पत्नी नन्हू, सियाप्यारी पत्नी महेशुरा, शांति पत्नी कैथी, आशा पत्नी श्री विशाल, रंची पत्नी रामकृपाल, चंपा पत्नी छुट्टो, पुनीता पत्नी राजकुमार, रूकिया पत्नी गोपी, राजाबाई पत्नी रामलाल शामिल हुए।
बुंदेलखंड की सैकड़ों वर्ष पुरानी परंपरा जीवित हो उठी। सभी गांव से आए हुए लोग अपने साथ आटा-दाल, सब्जी आदि लेकर के खाना बनाने का समान लेकर आए। श्रम दानियों के साथ श्रम दान कर नदी किनारे सुबह और शाम सामूहिक रसोई बननी लगी। सभी लोग सह भोज करते हैं।
मजदूरों का कहना है कि घरार नदी में पानी आ जाने के कारण वे अब मिली हुई जमीन पर पहले धान लगाएंगे। धान की फसल लेने के बाद गेहूं की फसल करेंगे। इसके अलावा वे बकरी पालन तथा मजदूरों के लिए अन्न बैंक भी बनाएंगे। इसके माध्यम से अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत करेंगे कि उन्हें रोजी-रोटी के लिए पलायन को मजबूर न होना पड़े।