कश्मीर पर बरखा दत्त का चेतन भगत को खुला खत

प्रिय चेतन,  
'कश्मीरी युवाओं को लिखे खुले खत' के संदर्भ में ट्‍विटर पर हम कुछेक संक्षिप्त टिप्पणियों का आदान-प्रदान कर चुके हैं। इससे मुझे आपको एक खुला खत लिखने का प्रोत्साहन मिला।
पहले हम उन बातों की सूची बना लें जिन पर हम एकमत हैं। आप इस बात को लेकर पूरी तरह सही हैं कि सेना यहां पर एक ऐसी अत्यधिक मुश्किल और निरर्थक लड़ाई लड़ रही है जोकि न तो इसके पसंद की है और न ही इसने पैदा की है। विशेष रूप से इसलिए क्योंकि इसका कोई भी हल राजनीतिक होना चाहिए, सैन्य तरीके से नहीं।
 
मैं आपके इस तर्क से सहमत हूं कि पाकिस्तान किसी के लिए आदर्श विकल्प और वांछनीय घर नहीं हो सकता है क्योंकि यहां बढ़ता आतंकवाद और लोकतांत्रिक प्रक्रिया बहुत कमजोर हालत में है। और इस बात पर दो राय नहीं हो सकती है कि कश्मीरी पंडित वहां फिर वापसी करें जहां उन्हें जबर्दस्ती निकाल बाहर किया गया। 
 
पर मेरी आपके विचारों की अहसमति उस संदर्भ में है, जहां आप उनको अपनी सलाह देते हैं कि 'कश्मीर घाटी में कुछ भयानक घट रहा है। एनआईटी श्रीनगर में हुई हाल की घटनाओं ने पूरे देश का ध्यान आकर्षित किया है। चेतन, हिंसा और संघर्ष के 25 वर्षों के बाद अब डल झील सूरज की रोशनी से रंगबिरंगी नहीं है, शिकारों में पर्यटक नहीं भरे हैं और गुलमर्ग के स्की ढलानों पर भी चहल पहल नहीं है। वरन इसके स्थान पर ताबूत, अंतिम संस्कार और लोगों के टूटे हुए दिल हैं- जो कि खाइयों के सभी ओर हैं और जो अब राज्य की सुंदरता को परिभाषित कर रही हैं। एक छात्र परिसर के अंदर क्रिकेट मैच को लेकर इस बात को लेकर झगड़ा कि कौन भारत के पक्ष में तालियां बजा रहा था और कौन नहीं , और बाद में पुलिस का घटनास्थल पर पहुंचना ‍निश्चित तौर पर गलत था, एक ऐसी बात है जोकि सारे देश के लोगों के दिमाग में यह बात ला सकती है कि कश्मीर पूरी तरह से गड़बड़ी की हालत में है। 
 
मुझे आश्चर्य है कि एनआईटी की घटना ने देश का ध्यान इतना क्यों खींचा कि जितना कि वर्षों तक इससे भी ज्यादा गंभीर खतरों या गहरी त्रासदियों ने भी नहीं खींचा। क्या इस बात का इस तथ्‍य से लेना देना नहीं है कि इससे पहले देश में राष्ट्रवाद को लेकर बहस कभी भी इत‍नी राजनीतिक नहीं हुई जितनी कि आज है? क्या यह बात आपको चिंतित नहीं करती है कि एनआईटी विवाद के घटने के बाद से प्रतियोगी राजनीति और भड़काने की कार्रवाई का सुर और अधिक तेज हो गया है और मेलमिलाप के तरीकों को आजमाने की बजाय खाई को और चौड़ा किया गया है?  
 
चूंकि हमारा विषय क्रिकेट है और एनआईटी छात्रों के बीच लड़ाई का मैदान भी क्रिकेट ही था, मुझे आश्चर्य होता है कि कश्मीर की भावी पी‍ढ़ी के लिए पत्र में आपने 19 वर्षीय लड़के नईम भट्ट के अस्तित्व को क्यों नहीं स्वीकारा जो कि अपने कस्बे की टीम 'द हंदवाडा स्टार इलेवन' का ओपनर बल्लेबाज था और जिसके सोने का कमरा सचिन तेंदुलकर, वसीम अकरम, राहुल द्रविड़, ब्रायन लारा और कश्मीरी क्रिकेटर परवेज रसूल के पोस्टरों से भरा है।
 
आपका पत्र कश्मीर की भावी पीढ़ी से यह महसूस करने को कहता है कि भारत के साथ समाहित राज्य में उनके हित सर्वाधिक सुरक्षित हैं। काफी सही है, लेकिन इस युवा के जीवन के बारे में भी सोचिए। नईम एक हफ्ते में तीन बार तीस किलोमीटर की यात्रा करता था ताकि वह अपने स्थानीय क्लब कश्मीर जिमखाना के शीर्ष क्रम के बल्लेबाज के तौर पर खेल सके।  
 
तीन वर्ष पहले वह देश की अंडर 19 टीम के कैम्प में रह चुका था और वह परवेज रसूल की तरह से राष्ट्रीय टीम में स्थान पाने का सपना देखता था। चेतन, ये वे सपने हैं जोकि आपके पत्र में कश्मीर घाटी के युवा महिला, पुरुषों को बताए जाने चाहिए थे, क्या ऐसा नहीं है? लेकिन इसके बावजूद आप इस लड़के के साथ क्या हुआ, जैसे विषय पर पूरी तरह चुप रहे। नईम स्थानीय बाजार से अपने पत्रकार भाई के लिए एक कैमरा खरीदने निकला था जोकि प्रदर्शनकारियों और सुरक्षा बलों के बीच सड़क पर हो रहे टकराव की तस्वीरें लेना चाहते थे।
 
लौटते समय वह अपने सेल फोन पर एक तस्वीर लेने के लिए रुका, तभी एक गोली उसके पेट के आरपार निकल गई। एक बग्गी पर उसे समीपवर्ती अस्पताल ले जाया गया पर तब उसके शरीर से तेजी से खून बह रहा था। पर इससे पहले कि वह समुचित इलाज के लिए श्रीनगर पहुंच पाता, उसकी मौत हो गई। नईम की व्याकुल मां केवल यह गुहार लगा सकी कि 'मेरा गावस्कर घर वापस ला दो।' 
 
विडम्बनाओं का खेल देखिए कि दक्षिण कश्मीर की क्रिकेट फैक्ट्रियों में हजारों, लाखों बल्ले बेंत की तरह लचकदार डालियों वाले पेड़ों (विलो) और चिनार के पेड़ों से बनाए जाते हैं और इन्हें राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय बाजारों में बिकने के लिए भेजा जाता है। क्रिकेट जहां छोटे स्तर पर एनआईटी में कश्मीरी और गैर-कश्मीरियों के बीच या बड़े स्तर पर घाटी और शेष भारत के बीच संबंधों को जोड़ने वाली ताकत बन सकता था, लेकिन कश्मीर में क्रिकेट संघर्ष और विवाद का पर्याय बन गया है। 
 
नईम की मौत को आपने अपने पत्र में पूरी तरह से 'अतिरिक्त हानि' करार दिया, लेकिन इस मुहावरे का इस्तेमाल करते हुए क्या आपने पिछले हफ्तों में झड़पों में मारे गए अन्य लोगों और नईम को मानवोचित गरिमा से अलग नहीं कर दिया? इस मामले में आपकी चुप्पी ने परिणामस्वरूप उसे अदृश्य बना दिया और यह मान लिया कि उनका कोई अस्तित्व ही नहीं था। जब मैंने इस मामले पर आपसे सवाल किया तो आपने दयालुता और खुले दिमाग से एक ट्‍वीट में जवाब दिया कि आपके विचारों के केन्द्र में 'एक बड़ा मुद्दा' था। लेकिन क्या कानून का शासन, सहानुभूति, मानवीयता और सभी पक्षों के लिए न्याय किसी समस्या को सुलझाने में सहायक नहीं होते हैं?  लेकिन यहां पर सीमा पार के आतंकवादी गुटों को संरक्षण दिए जाने और कश्मीरियों की नई पीढ़ी में बढ़ रहे कट्‍टरपन की छूट नहीं दी जा सकती है। 
 
लेकिन लोगों के एक बड़े वर्ग में भावनात्मक अलगाव को नकारने से कोई मदद नहीं मिलती है। आप तब तक किसी चीज को जोड़ नहीं सकते तब तक कि आप यह नहीं मानते हैं कि यह चीज टूटी हुई है।  
 
आपसे ऑनलाइन बहस के बाद आपके स्तंभ के एक प्रशंसक ने ट्‍वीट किया: '@bdutt आप कश्मीरियों को लेकर इतनी सहानुभूतिपूर्ण क्यों हैं? क्या इसका कोई विशेष उद्देश्य है?' मेरे लिए यह शेष भारत और घाटी के बीच संबंधों के बंद होने का प्रतीक है। हम मानते हैं और हमें मानना चाहिए कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है ‍तब क्या हमारा अर्थ केवल भूभाग से है और इसके लोगों से नहीं?
और क्या लिखा बरखा दत्त ने... पढ़ें अगले पेज पर....
 

क्या यह बात हंदवाड़ा में मारे गए लोगों पांच लोगों की मौत पर सहानुभूति और पूरी तरह से दिलचस्पी का अभाव नहीं दिखाती है? इनमें से ज्यादातर लोग उसी वर्ग के हैं जिन्हें आपने अपने पत्र में लक्षित किया है। यह अच्छी बात है कि एनआईटी के गैर-कश्मीरी छात्रों के समर्थन में बहुत सारे लोग एकजुट हो गए और उन्होंने इस बात का विरोध किया कि इन लड़कों के साथ बहुत बुरा व्यवहार किया गया। इन लोगों ने आपको एक पत्र लिखने के लिए प्रेरित किया? आपकी सहानुभूति की बात तो छोडि़ए, क्या नईम भट्ट और अन्य लोग आपकी टिप्पणी के भी लायक नहीं थे?
 
यह बात स्पष्ट रूप से कही जा सकती है कि हंदवाड़ा में झड़पों के बाद सेना ने अपने जवाब में बहुत अधिक परिपक्वता और नरमी दिखाई है और उसने मौतों को 'अत्यधिक खेदजनक' बताया है जो कि ट्विटर पर सक्रिय 'फौजियों' की तुलना में बेहतर है। इसलिए हम नकली दोहरे चश्मे से चीजों को देखना छोड़ें क्योंकि सेना के लिए अधिक सम्मान और नागरिकों की मौत पर स्पष्ट रूप से तिरस्कार में बड़ा विरोधाभास है।
 
हां, हंदवाडा में इन विरोध प्रदर्शनों को पैदा करने वाले आरोप के केन्द्र में उस किशोरी ने एक मजिस्ट्रेट के सामने बयान दिया है कि किसी सैनिक ने उसके साथ छेड़छाड़ नहीं की है। पर चूंकि आवेशित और परिवर्तनशील वातावरण में अफवाहों और तथ्यों का घालमेल हो जाता है इसलिए हम सभी लोगों पर यह अनिवार्य जिम्मेदारी है कि हम सभी को अत्यधिक संवेदनशील होने की जरूरत है।           
 
 
कृपया मुझे गलत न समझें क्योंकि कश्मीर को लेकर वाद-विवाद में सभी तरह से दुखांत घटनाएं, हिंसा और इन सब से बढ़कर अन्याय शामिल है। एक रिपोर्टर के तौर पर मेरी पहली बीट (इलाका) जम्मू और कश्मीर था जो कि मेरा पहला प्यार भी है। मैंने घाटी में दुख के ध्रुवीकरण और राजनीतिकरण के‍ खिलाफ दो दशक से अधिक समय तक अपनी बात जोरदार तरीके से रखी है। जब मैं मेजर मुकुंद वरदराजन की पत्नी इंदु से मिली जिनकी दक्षिण कश्मीर में तीन आतंकवादियों का सामना करते हुए मौत हो गई थी तब मैं उनके आत्मसंयम और  साहस की गरिमा से अभिभूत हो गई थी। इसी तरह से जब मैं ट्यूशन क्लासेज से घर लौट रहे 17 वर्षीय किशोर तुफैल मट्‍टू के सिर में आंसू गैस का गोला लगने से मौत हो गई थी, के पिता मोहम्मद अशरफ से मिली तो मैं उनकी निराशा और पीड़ा की गहराई को अनुभव कर सकी थी। 
 
जब मैंने देश के सैनिकों के बलिदानों को प्रमुखता से बताया तो लोगों ने मुझे एक अंधराष्ट्रवादी कहा और सरकार की एक एजेंट करार दिया गया। जबक‍ि मैंने सैनिकों के घर लाए गए मृत शरीरों का सामना कर रहे युवा परिजनों को हृदयविदारक दुख से सामना करते भी देखा। जब मैंने कश्मीर में भारत सरकार की ऐतिहासिक गलतियों को बताया और मानव अधिकारों के उल्लंघन को रेखांकित किया तो मुझे 'राष्ट्र-विरोधी' और एक गद्दार कहा गया। वास्तव में मैंने इन विरोधाभाषी लेबलों से यह संतोष हासिल किया क्योंकि मैं सोचती हूं कि मैंने सच्चाई के बहुत से रंगों को आंशिक तौर पर पकड़ने की कोशिश की जोकि राज्य की जटिल वास्तविकता को परिभाषित करती है। वास्तव में, यह वही जटिलता है जोकि मैं मानती हूं कि आपके खुले खत में नहीं है।  
 
एक ऐसे राज्य में जहां विभिन्न तत्वों ने एक घातक मिश्रण तैयार किया है, जहां नारों और निरर्थक लड़ाइयों में अधिक अंतर नहीं हैं। इस राज्य में एक पड़ोसी देश आग लगाने और उसे निरंतर सुलगाए रखने के लिए आमादा है, आतंकवाद की चुनौती है, आतंकवादियों का भय है, एक समय पर पूरी तरह से राजनीतिक अलगाववादी आंदोलन के अधिकाधिक इस्लामीकृत होते जाने का खतरा है, लोगों का गुस्सा और अलगाव है,  नई दिल्ली में बैठी रही विभिन्न सरकारों की भूल-चूक के पाप हैं और यहां चारों से इकट्ठा हुए अनसुलझे अन्यायों का भंडार है।
 
यह जटिलता, सच्चाई और मेलमिलाप की मांग करती है और इसमें आधुनिक युग के हैश टैग योद्धा, जोकि टीवी के प्रमुख समय के ऐंकर के तौर पर कर्णकटु शब्दों का आडम्बर रचते हैं,   ऐसे लोगों की जरूरत नहीं है। आप उन लोगों से पूछिए जिन्हें वास्तव में युद्ध लड़ने जाना पड़ता है, वे आपको बताएंगे कि अगर आपको वास्तव में सैनिकों के कल्याण की चिंता है, अगर आप निरर्थक हिंसा के चक्र को रोकना चाहते हैं तो आपको घाटी में एक लगातार बनाए रखने वाली शांति प्रक्रिया की जरूरत है।

वेबदुनिया पर पढ़ें