देश के सबसे बड़े, नामचीन, पुराने और विश्वस्त माने जाने वाले टाटा औद्योगिक घराने से आनी वाली ख़बरें जिस रूप में अभी सुर्खियों में हैं वैसी पहले कभी नहीं रहीं। चेयरमैन के पद से साइरस मिस्त्री की अचानक विदाई ने टाटा 'परंपरा' और उसके समूचे भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। कई सवाल खड़े हो रहे हैं और कई कारण सामने आ रहे हैं। इस पूरे विवाद पर गहराई से गौर करें तो इसमें ज़मीन, जायदाद और वर्चस्व की लड़ाई नहीं बल्कि अविश्वास के बीज नज़र आते हैं। वो ही शक और अविश्वास जिसने अतीत में भी इतिहास की धारा बदल दी और कई सारी सत्ताएँ उलट दीं।
चार साल की यात्रा : ये सवाल तो पिछले एक दशक से ही पूरे टाटा समूह को परेशान किए हुए था कि रतन टाटा के बाद कौन? 24 नवंबर 2011 में सायरस मिस्त्री को टाटा ग्रुप में डिप्टी चेयरमैन बनाया गया। एक साल तक चली लंबी कवायद के बाद चार साल पहले यानी दिसंबर 2012 में मिस्त्री की चेयरमैन पद पर ताजपोशी हुई तो लगा कि एक लंबी ख़ोज का अंत हुआ। अब नए नेतृत्व के जोश और पुराने के मार्गदर्शन में टाटा समूह नई ऊँचाइयाँ छुएगा। और रतन टाटा बाआसानी सेवानिवृत्त हो जाएँगे। ... पर ये सिलसिला पूरे चार साल भी नहीं चल पाया। चार साल पूरे होने के करीब दो महीने पहले, 24 अक्टूबर 2016 को सायरस मिस्त्री की टाटा सन्स के चेयरमैन पद से विदाई की घोषणा कर दी गई।
कॉर्पोरेट जगत के साथ ही समूचा देश और दुनिया इससे भौंचक रह गई। जो भी कयास लगाए जा रहे हैं वो कुछ तथ्य और कुछ घटनाओं के आधार पर ये कहते हैं कि कुछ कंपनियों को बेचे जाने का मामला है। घटनाओं के सिरे जोड़ें तो ऐसा ठीक भी लगता है। पर गहाराई से देखें तो इसके मूल में है रतन टाटा का सायरस मिस्त्री पर बढ़ता अविश्वास।
बढ़ता अविश्वास : ये सोचना ही ग़लत होगा कि रतन टाटा अपनी इस ऐतिहासिक और पारिवारिक विरासत को किसी और को सौंपकर आराम से बैठ जाएँगे। ख़ास तौर पर वो विरासत जिसे ख़ुद रतन टाटा ने अपने पसीने से सींचा है। उनके नेतृत्व में ही टाटा समूह ने सफलता का शिखर छुआ है। रतन टाटा के 21 साल के कार्यकाल में समूह का बाज़ार पूँजीकरण 57 गुना बढ़ा। जाहिर है वो चाहेंगे कि अब कमान जिसके हाथ में हो वो इसी रफ़्तार को बनाए रखे। साइरस चुने भी इसलिए गए थे कि वो रतन टाटा के करीबी थे। पर उनका करीबी होना और टाटा समूह के चेयरमैन के रूप में उनका पूरा भरोसा जीतना दूसरी बात है।
चेयरमैन बनाने के बाद टाटा मिस्त्री को और भी बारीक निगाह से देखने लगे। वो मिस्त्री के उन सौदों को भी देख रहे थे जो शापूरजी समूह के साथ हो रहे थे। उस शापूरजी समूह के साथ जहाँ से मिस्त्री मूल रूप से आते हैं और जिस समूह की टाटा में 18.5 प्रतिशत भागीदारी है। हालाँकि ये जानकारियाँ अपुष्ट हैं और ऐसे सौदे केवल अनैतिक ही नहीं ग़ैर कानूनी भी माने जाएँगे, पर ये भी एक बड़ा काराण माना जा रहा है। साथ ही यूरोप के स्टील कारोबार और डोकोमो से चल रहे विवाद ने भी साइरस को बाहर का रास्ता दिखाने में बड़ी भूमिका निभाई।
पहली ही लिख ली गई थी पटकथा : ये तो तय है कि रतन टाटा कॉर्पोरेट जगत के बहुत माहिर और अनुभवी खिलाड़ी हैं। इसीलिए साइरस के प्रति अपने बढ़ते अविश्वास के बाद उन्हें बाहर का रास्ता दिखाने के लिए टाटा ने सोची-समझी रणनीति पर काम किया। महीनों पहले, अगस्त 2016 में ही टाटा सन्स के बोर्ड का विस्तार करते हुए पिरामल समूह के अजय पिरामल और टीवीएस के वेणु श्रीनिवासन को शामिल किया गया था। ये पटकथा उसी समय लिख ली गई थी।
साइरस मिस्त्री ने एक साक्षात्कार में कहा भी था कि कुछ नियुक्तियों में उनकी राय नहीं ली गई। उनके इस साक्षात्कार को अब टाटा समूह की वेबसाइट से हटा लिया गया है। पर ये तय हो गया था कि ये टकराव लंबा नहीं चलेगा और जल्द ये लड़ाई निर्णायक होगी। रतन टाटा ऐसे निर्णय लेने में भले ही थोड़ा वक्त लगा दें, पर जब तय हो जाए तो फिर बहुत देर नहीं करते। सो उन्होंने कर दिया।
पर इससे एक बार फिर टाटा समूह उसी दोराहे पर खड़ा है जहाँ वो आज से चार साल पहले था। नए नेता का चयन टाटा समूह के लिए बहुत ही अहम है। ये अब तक की साख और पूँजी को बना या बिगाड़ सकता है। कई घरानों की दास्तान हमारे सामने है जो नेतृत्व और दूरदृष्टि के अभाव में फ़ना हो गए। आईटी क्षेत्र की दिग्गज कंपनी इसी संकट से जूझ रही है। सत्यम के रामलिंगम राजू का स्वार्थ और ग़लत फैसले उसे ले डूबे। टाटा इन सबसे कहीं बड़ी और अहम है। उसके लिए उसकी बरसों की मेहनत से कमाई साख सबसे बड़ी पूँजी है। इसीलिए अब समूह ऐसे 'मिस्त्री' की तलाश में जुट गया है जो रतन टाटा का भरोसा भी जीत सके।