भारत की 'मल्टी-अलाइनमेंट' रणनीति कितनी कारगर: रूस, चीन और भारत एक हो गए तो अमेरिका कहां टिकेगा?

वेबदुनिया न्यूज डेस्क

शुक्रवार, 22 अगस्त 2025 (16:54 IST)
नई दिल्ली: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सितंबर 2025 में शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) शिखर सम्मेलन में शिरकत करना भारत की उस जटिल कूटनीतिक उभरती भूमिका का प्रतीक है, जिसे 'मल्टी-अलाइनमेंट' यानी बहु-ध्रुवीय संरेखण कहा जाता है। यह दौरा, जो सात साल बाद चीन की उनकी पहली यात्रा है, और भारत-चीन के बीच बढ़ता व्यापारिक आयाम एक बड़े सवाल को जन्म दे रहा है: क्या अमेरिका के नेतृत्व वाली वर्तमान वैश्विक व्यवस्था के समानांतर एक नया गठबंधन उभर रहा है? और क्या भारत इसमें एक प्रमुख खिलाड़ी बनने को तैयार है?

भू-राजनीतिक विश्लेषकों की नज़र में, भारत की विदेश नीति एक सावधानीपूर्ण संतुलन की कला है। एक ओर, रूस के साथ ऐतिहासिक रक्षा और ऊर्जा संबंध हैं, जो यूक्रेन युद्ध के बावजूद बने हुए हैं। दूसरी ओर, चीन के साथ एक जटिल सह-प्रतिस्पर्धा का रिश्ता है, जहां सीमा पर तनाव के बीच भी आर्थिक निर्भरता बढ़ रही है। इन सबके ऊपर है अमेरिका के साथ रणनीतिक साझेदारी, जो चीन के बढ़ते प्रभाव के मद्देनजर और भी महत्वपूर्ण हो गई है।

क्या है भारत की रणनीतिक स्वायत्तता और मल्टी-अलाइनमेंट नीति
भारत ने हमेशा अपनी विदेश नीति में रणनीतिक स्वायत्तता को प्राथमिकता दी है। इसका मतलब है कि भारत न तो किसी एक महाशक्ति के साथ पूरी तरह बंधा हुआ है और न ही किसी के खिलाफ खुलकर खड़ा है। भारत की यह नीति उसे वैश्विक मंच पर एक संतुलित भूमिका निभाने की आजादी देती है।

रूस और चीन पारंपरिक पश्चिमी गठबंधनों के विकल्प के तौर पर ब्रिक्स (BRICS) और एससीओ जैसे संगठनों को मजबूत करने में लगे हैं। ब्रिक्स का हालिया विस्तार, जिसमें ईरान, मिस्र, इथियोपिया और यूएई जैसे देश शामिल हुए हैं, इसी रणनीति का हिस्सा है। साथ ही, डॉलर से अलग हटकर स्थानीय मुद्राओं में लेन-देन को बढ़ावा देने की पहल भी अमेरिकी आर्थिक वर्चस्व को सीधी चुनौती है।

मल्टी-अलाइनमेंट रणनीति: क्या भारत रूस-चीन के साथ मिलकर अमेरिका को चुनौती देगा?
प्रश्न यह है कि क्या भारत इस 'वैकल्पिक व्यवस्था' का एक अभिन्न अंग बनने को तैयार है? आंकड़े एक मिश्रित तस्वीर पेश करते हैं। 2025 में भारत की अर्थव्यवस्था का आकार लगभग 3.9 ट्रिलियन डॉलर है, जो इसे दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाता है। लेकिन यह चीन (18.3 ट्रिलियन डॉलर) और अमेरिका (27 ट्रिलियन डॉलर से अधिक) के मुकाबले काफी छोटा है। यह अंतर सैन्य क्षमता में भी दिखता है; भारत का रक्षा बजट 81 अरब डॉलर है, जो अमेरिका (877 अरब डॉलर) और चीन (292 अरब डॉलर) के बजट से कहीं नीचे है।

लेकिन यदि भारत, जो 2025 में 3.9 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था के साथ दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, रूस और चीन के साथ मिलकर एक वैकल्पिक व्यवस्था को बढ़ावा देता है, तो क्या यह अमेरिका के प्रभाव को कमजोर कर सकता है। उदाहरण के लिए, ब्रिक्स देशों ने 2024 में डॉलर के विकल्प के रूप में स्थानीय मुद्राओं में व्यापार को बढ़ावा देने की योजना पर चर्चा की, जो अमेरिका के आर्थिक प्रभुत्व के लिए खतरा हो सकता है?

अमेरिकी प्रभुत्व बनाम 'तीनों की एकजुटता' का सवाल : अमेरिका की ताकत काफी हद तक उसके सहयोगियों और वैश्विक आर्थिक प्रभुत्व, जैसे डॉलर की वर्चस्व, पर निर्भर है। अमेरिकी शक्ति केवल उसके आर्थिक और सैन्य आकार से ही नहीं, बल्कि नाटो, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे गहरे गठबंधनों और डॉलर की वैश्विक पकड़ से भी आती है। एक सैद्धांतिक परिदृश्य में, यदि रूस, चीन और भारत एक सुसंगत त्रिपक्षीय गठजोड़ बना भी लें, तो भी यह ताकत अमेरिकी प्रभाव को एक झटके में खत्म नहीं कर पाएगी। बल्कि, यह दुनिया को और अधिक खंडित (Bipolar) और अप्रत्याशित बना देगा, जहां संघर्ष के बजाय 'प्रतिस्पर्धी सह-अस्तित्व' की स्थिति बनेगी।

हालांकि, वर्तमान हकीकत इस सैद्धांतिक एकजुटता से कोसों दूर है। भारत और चीन के बीच गलवान घाटी जैसी सैन्य झड़पें और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में प्रभाव को लेकर चल रही प्रतिस्पर्धा, किसी भी गहरे रणनीतिक गठजोड़ में बड़ी बाधा हैं। भारत की प्राथमिकता चीन के साथ सीमा विवाद का समाधान है, न कि एक ऐसे देश के साथ अविश्वासपूर्ण गठजोड़ की, जिसे वह अपनी सुरक्षा के लिए एक बड़ी चुनौती मानता है।

भारत की विदेश नीति का मूलमंत्र 'स्ट्रैटेजिक ऑटोनॉमी' यानी रणनीतिक स्वायत्तता है। यह रुख उसे रूस से तेल और हथियार खरीदने, अमेरिका से तकनीक और सुरक्षा सहयोग लेने, और चीन के साथ व्यापारिक संबंध बनाए रखने की छूट देता है। लेकिन यही रणनीति उसे दबाव के एक चौराहे पर भी खड़ा कर देती है।

भविष्य की सबसे बड़ी चुनौती चीन पर भारत की आर्थिक निर्भरता, खासकर महत्वपूर्ण खनिजों (Rare Earth Minerals) और उच्च तकनीक में, को कम करने की होगी। साथ ही, घरेलू रक्षा और औद्योगिक आधार को मजबूत करना भारत को वैश्विक शक्ति-संतुलन में एक स्वतंत्र और मजबूत भूमिका निभाने में सक्षम बनाएगा।

जैसा कि एक भू-राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं, "अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता, केवल स्थायी हित होते हैं।" भारत की नीति इसी सिद्धांत पर चलती प्रतीत होती है। ऐसे में, 'रूस-चीन-भारत गठजोड़' की अटकलें अभी काल्पनिक हैं। भारत का लक्ष्य किसी एक खेमे में शामिल होना नहीं, बल्कि स्वयं का खेमा इतना मजबूत बनाना है कि वह हर खेमे के लिए अनिवार्य हो जाए।

लेकिन भारत की यह कोशिश कि वह "सबका दोस्त" बने, उसे सावधानी से लागू करना होगा। जैसा फ्रांस के जियोपॉलिटिकल विश्लेषक अरनॉड बरट्रैंड ने भारत की मल्टी-अलाइनमेंट रणनीति को "नाकाम" करार देते हुए कहा, "जब आप हर किसी के दोस्त बनने की कोशिश करते हैं, तो आप हर किसी के लिए प्रेशर वॉल्व बन जाते हैं।" भारत को इस स्थिति से बचने के लिए अपनी आर्थिक और सैन्य ताकत को बढ़ाना होगा, ताकि वह वैश्विक मंच पर एक मजबूत और स्वतंत्र खिलाड़ी बन सके।  
Edited By: Navin Rangiyal

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