हमारी पुरखिन: बेमिसाल भारतीय महिलाओं को सलाम

शुक्रवार, 4 सितम्बर 2020 (15:02 IST)
बीबीसी की भारतीय भाषा सेवाएं एक विशेष सिरीज़ ‘हमारी पुरखिन’ को प्रकाशित कर रही हैं। यह पहल उन दस बेमिसाल महिलाओं की कहानी बयां करती है जो भारतीय इतिहास में महिलाओं की स्वाधीनता और सामाजिक सुधारों में अहम भूमिका निभाने के लिए याद की जाती हैं। 19वीं सदी के अंत और बीसवीं सदी की शुरुआत में इन बेहतरीन महिलाओं ने पित्तृसत्तात्मक समाज, सामाजिक शर्म के ख़िलाफ़ लड़कर महिला अधिकारों के लिए संघर्ष किया और भारत की आज़ादी की लड़ाई में भाग लिया।
 
10 कहानियों वाली इस सिरीज़ का पहला सीज़न टेक्स्ट और वीडियो में पेश किया जा रहा है। हर शनिवार और रविवार को दो नई कहानियों के साथ ये सिरीज़ अगले कुछ हफ़्तों तक बीबीसी हिंदी, बीबीसी गुजराती, बीबीसी मराठी, बीबीसी पंजाबी, बीबीसी तमिल, और बीबीसी तेलुगु की वेबसाइट समेत फेसबुक, यूट्यूब, ट्विटर, और इंस्टाग्राम पेज़ पर उपलब्ध रहेंगी। इन कहानियों को लेकर स्थानीय और प्रादेशिक टेलीविज़न चैनलों पर काफ़ी चर्चा हुई है।
 
बीबीसी न्यूज़ की भारतीय भाषाओं की प्रमुख रूपा झा ने कहा, 'महिलाओं के लिए काफ़ी कुछ बदल चुका है। लेकिन ये बदलाव अचानक नहीं आया है। इसमें कई महिलाओं ने अपना योगदान दिया है। ऐसी कई महिलाएं दुनिया की नज़रों से ओझल बनी रहीं। हम ऐसी ही महिलाओं के योगदान को दुनिया की नज़रों में लाना चाहते थे जो बदलाव को लेकर आईं लेकिन वे अभी भी इतिहास की किताबों में ही सिमटी हुई हैं। हम बेहद सावधानी से पूरे देश से ऐसी महिलाओं का चुनाव करते हैं।
 
हमारी पुरखिन सिरीज़ की पहली किस्त में शामिल की गई महिलाओं से जुड़ी ख़ास बातें -
मुथुलक्ष्मी रेड्डी (तमिलनाडु) : मुथुलक्ष्मी ने देवदासी प्रथा ख़त्म करने के लिए क़ानून बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी । वेश्यालय बंद करने और महिलाओं व बच्चों की तस्करी रोकने के लिए भी उन्होंने काम किया और उन्होंने ऑल इंडिया विमन कॉन्फ्रेंस की अध्यक्षता भी की।
 
रुक़ैया सख़ावत हुसैन (बंगाल) : नारीवादी विचारक, कथाकार, उपन्यासकार, कवि और बंगाल में मुसलमान लड़कियों की पढ़ाई के लिए मुहिम चलाने वालीं रुक़ैया सख़ावत को दक्षिण एशिया में महिलाओं की आज़ादी के लिए संघर्ष करने वालों में गिना जाता है। उनकी तुलना ईश्वर चंद्र विद्यासागर और राम मोहन राय से की जाती है। साल 1901 से 1911 के बीच उन्होंने भागलपुर और कोलकाता में स्कूल खोले।
 
चंद्रप्रभा सैकियानी (असम): चंद्रप्रभा सैकियानी को असम में महिलाओं को पर्दा प्रथा से आज़ादी दिलाने का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने असहयोग आंदोलन में भी हिस्सा लिया।
 
इंदरजीत कौर (पंजाब): इंदरजीत कौर पंजाबी यूनिवर्सिटी की पहली उप कुलपति और स्टाफ़ सलेक्शन कमीशन की पहली महिला अध्यक्ष थीं। भारत और पाकिस्तान विभाजन के समय उन्होंने शरणार्थियों के पुनर्वास के लिए शिविर चलाए और पंजाब के पटियाला में शरणार्थी बच्चों के लिए एक स्कूल भी बनाया।
 
कमलादेवी चट्टोपाध्याय (कर्नाटक): कमलादेवी चट्टोपाध्याय भारत में विधानसभा चुनाव लड़ने वाली पहली महिला थीं। उन्होंने भारतीय हथकरघा उद्योग, हैंडलूम और आज़ाद भारत में थिएटर के नवजागरण का श्रेय भी दिया जाता है। इसके साथ ही उन्होंने कई अन्य महिलाओं के जीवन को ऊपर उठाने में एक भूमिका निभाई।
 
अनुसुइया साराभाई (गुजरात): अनुसुइया साराभाई ने भारत में श्रमिकों के आंदोलन, महिलाओं और ग़रीब फैक्टरी मजदूरों का जीवनस्तर ऊपर उठाने में एक अहम भूमिका निभाई। उन्होंने साल 1920 में भारत की सबसे पुरानी टेक्सटाइल वर्कर्स एसोशिएसन गठित की।
 
रखमाबाई राउत (महाराष्ट्र): डॉ. रखमाबाई राउत संभवत: भारत की पहली महिला डॉक्टर थीं। उन्होंने क़ानूनी रूप से अलग होने को लेकर एक बहस खड़ी की जिसने सन् 1891 में एक क़ानूनी प्रक्रिया के तहत सहमति की तय उम्र बढ़ाने में एक ख़ास भूमिका अदा की।
 
बेगम सुग़रा हुमायूँ मिर्ज़ा (आंध्र प्रदेश): बेगम सुग़रा हुमायूँ मिर्ज़ा एक समाज सुधारक थीं जिन्होंने मुस्लिम महिलाओं के हित में काम किया। उन्हें हैदराबाद में बुरक़े से बाहर निकलने वाली पहली महिला माना जाता है।
 
फ़ातिमा शेख़ (महाराष्ट्र): फ़ातिमा शेख़ को पहले मुस्लिम शिक्षकों में गिना जाता जिन्होंने ग़रीब और वंचित समाज के बच्चों, विशेषत: लड़कियों को पढ़ाने का काम किया। वह समाज सुधारक ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले के स्कूल में बच्चों को पढ़ाकर समाज के प्रति अपना योगदान दिया।  
 
जस्टिस अन्ना चेंडी (केरल):  जस्टिस अन्ना चेंडी भारतीय हाईकोर्ट की पहली महिला जज थीं जिन्होंने सरकारी नौकरियों में महिलाओं को लैंगिक आधार पर कम तनख़्वाह दिए जाने का विरोध किया और सरकारी नौकरियों में महिलाओं को आनुपातिक आरक्षण देने की बात की।

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