क्या महाराष्ट्र की राजनीति में सबकुछ ठीक है? मराठा आरक्षण आंदोलन के 3 फैक्टर से समझिए पूरी कहानी

maharashtra politics : मराठा आरक्षण आंदोलन से करीब 2 महीने पहले मनोज जारांगे पाटिल को कोई नहीं जानता था। एकाएक वो मराठा आरक्षण आंदोलन का नायक और चेहरा बन गया है। क्‍या इसके पीछे किसी तरह की राजनीति की बू है?

दरअसल, महाराष्‍ट्र की राजनीति पिछले कई महीनों से उठापटक से भरी रही है। देश के दूसरे किसी राज्‍य में इतनी राजनीतिक हलचल नहीं देखी गई, ऐसे में कोई संदेह नहीं कि मराठा आरक्षण की इस आग के पीछे भी किसी तरह की राजनीतिक गंध हो।

मनोज जरांगे महाराष्‍ट्र के एक बेहद छोटे से गांव अंतरवाली सराटी में कुछ गिने-चुने लोगों को लेकर धरना दे रहे थे। वहां न कोई मीडिया था, और न ही इस धरने की किसी अखबार में कोई खबर। अचानक एक दिन धरनास्‍थल पर पुलिस पहुंचती है और लाठीचार्ज कर देती है। देखते ही देखते पूरे महाराष्‍ट्र में मराठा आरक्षण आंदोलन का हल्‍ला हो जाता है। आरक्षण की आग पूरे महाराष्‍ट्र में पसर जाती है और एकनाथ शिंदे सरकार के लिए यह एक बड़ी चुनौती बन जाती है।

सबसे पहले माना जाता है कि महाराष्‍ट्र की एकनाथ शिंदे और भाजपा की सरकार को डिस्‍टर्ब करने के लिए यह एनसीपी के शरद पवार की चाल हो सकती है। शरद पवार की राजनीति शुरू से मराठी ब्राह्मण विरोधी रही है, ऐसे में उनकी तरफ शक जाना लाजिमी था।

लेकिन खबर तो यह भी है कि महाराष्‍ट्र की सरकार में यानी देवेंद्र फडणवीस, एकनाथ शिंदे और हाल ही में एनसीपी से बागी होकर आए अजित पवार के बीच सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। खासतौर से देवेंद्र फडणवीस अपनी ‘कम्‍फर्टेबल राजनीतिक स्‍थिति’ में नहीं हैं। क्‍योंकि अजित पवार के सरकार में आने के बाद से चीजें खराब हुई हैं।

महाराष्‍ट्र की राजनीति को करीब से देखेने वाले वरिष्‍ठ पत्रकार सुनील सोनी समेत राजनीति के कई पत्रकार और विशेषज्ञ मानते हैं कि जहां तक मुख्‍यमंत्री एकनाथ शिंदे का सवाल है तो सरकार में एक ईजी गोइंग सीएम हैं। ज्‍यादातर कामों और फाइलों को देवेंद्र फडणवीस ही कंट्रोल करते हैं, यहां तक कि गृह मंत्रालय भी उनके पास ही है। दूसरी तरफ अजित पवार के आने के बाद सरकार में एनसीपी का दखल और दबाव दोनों बढ़े हैं, जो डिप्‍टी सीएम देवेंद्र फडणवीस के लिए परेशानी का सबब बन रहे हैं। कहा जा रहा है कि अजीत पवार ने सरकारी क्रियान्‍वयन से जुड़ी कुछ चीजों को खुद देखना शुरू किया है। वहीं, अजीत पवार के आने के बाद सरकारी फाइलें देवेंद्र फडणवीस के ऑफिस से होकर गुजर रही हैं।

अक्‍टूबर में चर्चा थी कि डिप्टी सीएम अजित पवार कुछ दिनों से नाराज चल रहे हैं। वे राज्य कैबिनेट की बैठक में भी शामिल नहीं हुए थे। दरअसल, लंबित मंत्रिमंडल विस्तार और गार्जियन मिनिस्टर पद की उलझन न सुलझने के कारण शिंदे-फडणवीस पर एनसीपी की ओर से काफी दबाव है। इसी के चलते देवेंद्र फडणवीस और एकनाथ शिंदे दिल्‍ली भी गए थे।

अब इस पूरी चुनौती से निपटने या कहें कि इस दबाव से निजात पाने के लिए मराठा आरक्षण आंदोलन को अचानक से चर्चा में लाया गया है। ताकि मराठा नेताओं पर इसका दबाव बढ़े। बता दें कि एकनाथ शिंदे और अजित पवार दोनों मराठा हैं, जबकि देवेंद्र फडणवीस मराठी ब्राह्मण। ऐसे में इस पूरे राजनीतिक परिदृश्‍य का अनुमान तो लगाया ही जा सकता है।

बता दें कि 31 दिसंबर को सुप्रीम कोर्ट में विधायकों की अयोग्‍यता को लेकर सुनवाई है। सुप्रीम कोर्ट का निर्देश है कि इस अवधि तक पूरे मामले का निपटारा किया जाना है। यानी सरकार के भाग्‍य का फैसला 31 दिसंबर तक होना। (विधायकों की अयोग्‍यता पर फैसला आएगा) दूसरी तरफ मनोज जरांगे को जो तारीख दी गई है, वह इसी के मद्देननजर है। इसका मतलब है कि यह भाजपा के लिए एक सुनहरा अवसर है कि वो दोनों बोझ से निजात पा ले, क्‍योंकि तब सीटों के बंटवारे को लेकर पशोपेश नहीं रहेगी।

ऐसे में किसी भी तरह से दिसंबर तक सरकार को खींचा जाना है। अगर सुप्रीम कोर्ट में विधायक अयोग्‍य साबित हो गए तो सरकार खुद ब खुद ही गिर सकती है। ऐसे में एकनाथ शिंदे के राजनीतिक भविष्‍य पर सवाल खडा हो जाना निश्‍चित, जबकि एनसीपी से बागी हुए अजित पवार को भी अपने लिए राजनीतिक रास्‍ते तलाशने होंगे। हालांकि पारिवारित तौर पर पवार के घर के दरवाजे तो उनके लिए खुले ही हैं, जबकि भाजपा अपनी यथास्‍थिति में रह सकती है।

सच चाहे जो हो, लेकिन इतना तो तय है कि महाराष्‍ट्र की राजनीति में सबकुछ ठीक नहीं है। अब यह सारा राजनीति खेल एनसीपी का है या भाजपा का यह तो कुछ वक्‍त के बाद से पता चल सकेगा।

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