मोदी के इस 'डिप्लोमैटिक कू' का अर्थ?

शनिवार, 22 नवंबर 2014 (19:01 IST)
करीब एक वर्ष पहले तक नरेन्द्र मोदी वॉशिंगटन के सत्ता प्रतिष्ठान में एक पारिया (अछूत) माने जाते थे लेकिन आगामी छब्बीस जनवरी को अमेरिकी राष्ट्रपति की भारत यात्रा को मोदी की एक और बड़ी उपलब्धि माना जा सकता है। राष्ट्रपति ओबामा द्वारा भारत के न्योते को स्वीकारने का सीधा सा अर्थ है कि पिछले सितंबर में मोदी की वॉशिंगटन यात्रा के बाद यह परिवर्तन इस बात का गवाह है कि अमेरिका भारत के साथ और गहरे, सार्थक संबंधों की अपेक्षा रखता है। हालांकि यह राष्ट्रपति ओबामा की अपने कार्यकाल की दूसरी भारत यात्रा भी होगी जो कि अब तक किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए पहला अवसर होगी। 
इस दौरे के दौरान जहां दोनों नेताओं का पर्सनल रैपो सुधरेगा वहीं भारत और अमेरिका के संबंधों में बेहतरी आएगी और निजी तौर पर भी ओबामा के लिए राहत का वक्त होगा क्योंकि वॉशिंगटन में और कांग्रेस में रिपब्लिकन्स की जीत का असर शांत हो चुका होगा। यात्राओं से जहां अन्य राष्ट्रपतियों को थोड़ी राहत मिलती है, ठीक उतनी ही राहत ओबामा को भारत यात्रा से मिलेगी लेकिन उन्हें भारत दौरे में अपनी उपलब्धियों को भी गिनाने का मौका‍ मिलेगा। दोनों देशों की सरकारों के लिए एक ऐसा अवसर होगा जहां दोनों अपनी 'टू डू' लिस्ट को देखने का मौका मिलेगा और इसकी जरूरत भी होगी।
 
ट्रेड फैसिलेटिशन और कृषि सब्सिडीज के मुद्दों पर डब्ल्यूटीओ में अमेरिका की आपत्तियां गंभीर रही हैं, लेकिन दोनों पक्षों के करीब आने से दोनों मुद्दों पर मतभेदों को कम करने में मदद मिलेगी। हालांकि इस मामले में थोड़ी प्रगति भी हुई है और अमेरिका ने भारतीय चिंताओं को समझने की दिशा में तनिक उदारता दिखाई है।
 
मोदी की वॉशिंगटन यात्रा के बाद ओबामा की यात्रा द्विपक्षीय संबंधों की नई शुरुआत को जन्म दे सकती है। मोदी के एजेंडे में भारत के जिन 'स्मार्ट सिटीज' की शुरुआत का दावा दिया गया है, वह अमेरिकी सहभागिता से आगे बढ़ सकती है। इसके साथ ही, अमेरिका को परमाणु जवाबदेही और परमाणु निर्यात को लेकर अमेरिकी उम्मीदों को पंख लग सकते हैं। भारत-अमेरिकी प्रतिरक्षा सहयोग समझौते के मामले में नवीनता का सूत्रपात होगा। यदि भारत को उम्मीद है कि वह विश्व के निर्यात नियं‍त्रण 'क्लबों' में शामिल हो सकता है, तो इसके लिए उसके लिए अमेरिकी सहयोग वांछित होगा। दोनों ही देश, महत्वाकांक्षी उद्देश्यों को लेकर आगे जा सकते हैं। 
 
इस महीने की शुरुआत में अमेरिका और चीन ने जलवायु परिवर्तन पर समझौता किया है तो इस तरह के मॉडल पर भारत को भी विचार करना चाहिए। यदि जरूरत हो तो इसमें वांछित परिवर्तन भी किए जा सकते हैं। इसी तरह से अगर भारत, आसियान के देशों के साथ, कोरिया के साथ और जापान के साथ मुक्त व्यापार समझौते कर सकता है तो क्या ऐसा कोई समझौता अमेरिका के साथ नहीं हो सकता है? दोनों देशों के बीच अगर इस तरह का मौका आया है तो इसका यह आशय नहीं है कि भारत और अमेरिका के बीच सभी विवादास्पद और तकलीफदेह मुद्दे सुलझ गए हैं? वास्तव में, ऐसा नहीं है और यह धीरे-धीरे तभी संभव होगा जब दोनों देशों के उभयनिष्ठ हितों पर रिश्ते आगे बढ़ेंगे। इसी तरह सुरक्षा और अन्य मामलों के मु्द्दों पर विचार किया जा सकता है जो कि अभी तक दोनों ही देशों की 'शासन शैली और वास्तविक समझ' के अंतरों के बंधक रहे हैं।    
 
हालांकि भारत का 'रणनीतिक स्वायत्तता' का विचार अमेरिका के वैश्विक नेता होने के विचार के साथ पूरी तरह तालमेल नहीं रखता है और ऐसा होना भी संभव नहीं है। हमें इस अंतर को भी स्वीकार करना होगा क्योंकि दोनों देशों के अंतरराष्ट्रीय व्यापार और सहभागिता के विभिन्न उद्देश्य अलग-अलग हैं। लेकिन इस समाचार की अच्छी बात यही है कि इस आमंत्रण का प्रतीकवाद भी ऐसे परिणामों को पैदा करने में समर्थ है जोकि दोनों देशों के लिए लाभकारी साबित हो सकते हैं। वैसी भी नई दिल्ली और वाशिंगटन के बीच संबंधों को बनाए रखने की कीमत अधिक है जिसके लिए उंचे स्तर के सद्‍भाव, सम्मान और ध्यान दिए जाने की जरूरत है तभी दोनों देश आगे बढ़ सकते हैं। इस बारे में एक अहम बात यह भी है कि मोदी की वाशिंगटन यात्रा के चार महीनों बाद ही ओबामा की नई दिल्ली यात्रा होगी और इस यात्रा से दोनों देशों मे संबंधों में अच्छा समय आना ‍निश्चित है। ठीक इसी तरह से जैसे कि भारत में मोदी ने अच्छे दिनों की शुरूआत कर दी है और ओबामा की घोषणाओं से भी अप्रवासी भारतीयों, अमेरिका में रहने वाले अवैध भारतीयों और भारतीय पेशेवरों के लिए और भी अच्छे दिन आएंगे। 
 

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