NRC का सच : कितने ही लाइन में लगकर मर गए, कई को अटैक आ गया...

मंगलवार, 15 अक्टूबर 2019 (15:29 IST)
- गुवाहाटी से दीपक असीम, संजय वर्मा
जिस आदमी ने अपनी सारी जवानी असम से घुसपैठियों को निकालने की मुहिम में लगा दी हो और अंत में वही निराश होकर कहे कि हमने एक पागलपन में जिंदगी बर्बाद कर दी तो इसे आप क्या कहेंगे? यह आदमी हैं मृणाल तालुकदार, जो असम के जाने-माने पत्रकार हैं। एनआरसी (NRC) पर इनकी लिखी किताब 'पोस्ट कोलोनियल असम' का विमोचन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई ने हफ्ता भर पहले दिल्ली में किया है।
 
इनकी दूसरी किताब, जिसका नाम है- 'एनआरसी (NRC) का खेल' (गेम कॉल्ड एनआरसी) कुछ दिनों बाद आने वाली है। वे एनआरसी मामले में केंद्र सरकार को सलाह देने वाली कमेटी में भी नामित हैं। वे आल असम स्टूडेंट यूनियन (आसु) से जुड़े रहे और अब तक जुड़े हैं। वेबदुनिया के लिए उनसे लंबी और बहुत खुली चर्चा हुई।
 
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उन्होंने कहा कि मेरी और मेरे जैसे हजारों लोगों की जवानी असम से घुसपैठियों को निकालने की कोशिश में बीती। हम में जोश था मगर होश नहीं था। पता नहीं था कि हम जिनको असम से बाहर निकालने के लिए आंदोलन कर रहे हैं, उन्हें किस तरह पहचाना जाएगा और उन्हें बाहर करने की प्रक्रिया क्या होगी। 1979 में हमारा आंदोलन शुरू हुआ और 1985 में हम ही असम की सरकार थे।
 
प्रफुल्ल महंत हॉस्टल में रहते थे। हॉस्टल से सीधे सीएम हाउस में रहने पहुंचे। 5 साल कैसे गुजर गए हमें पता ही नहीं चला। राजीव गांधी ने सही किया कि हमें चुनाव लड़ाकर सत्ता दिलवाई। सत्ता पाकर हमें एहसास हुआ कि सरकार के काम और मजबूरियां क्या होती हैं। अगला चुनाव हम हारे मगर 5 साल बाद फिर सत्ता में आए।
 
इन दूसरे 5 सालों में भी हमें समझ नहीं आया कि बांग्लादेशियों को पहचानने की प्रक्रिया हो। लोग हमसे और हम अपने आप से निराश थे। मगर घुसपैठियों के खिलाफ हमारी मुहिम जारी थी। बहुत बाद में हमें इसकी प्रक्रिया सुझाई भारत के होम सेक्रेटरी रहे गोपाल कृष्ण पिल्लई ने।
 
उन्होंने हमें समझाया कि आप सब की नागरिकता चेक कराओ। अपने आप की भी नागरिकता चेक कराओ और जो रह जाएं वह बाहरी। चोर को पकड़ने के लिए क्लास रूम में सभी की तलाशी लेने वाला यह आइडिया हमें खूब जंचा मगर तब नहीं मालूम था कि सवा तीन करोड़ लोग जब कागजों के लिए परेशान होकर इधर-उधर भागेंगे तब क्या होगा?
बाद में रंजन गोगोई ने खुद इसमें रुचि ली। इसमें असम के एक शख्स प्रदीप भुइंया की खास भूमिका रही। वे स्कूल के प्रिंसिपल हैं उन्होंने ही सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की और अपनी जेब से 60 लाख खर्च किए। बाद में उन्हीं की याचिका पर संज्ञान लेते हुए सुप्रीम कोर्ट ने एनआरसी के आदेश दिए एक और शख्स अभिजीत शर्मा ने भी एनआरसी के ड्राफ्ट को जारी कराने के लिए खूब भागदौड़ की वे भी भुइंया के साथ याचिका लगाने में शामिल थे।
 
तो इस तरह एनआरसी वजूद में आया और वजूद में आते ही हम सब सोचने लगे कि यह हमने क्या कर डाला?
 
खुद हमारे घर के लोगों के नाम गलत हो गए। सोचिए कैसी बात है कि जो लोग घुसपैठियों को बाहर निकालने के लिए आंदोलन कर रहे हैं उन्हीं के घर वालों के नाम एनआरसी की लिस्ट में नहीं आएं? बहरहाल यह गलतियां बाद में दूर हुईं। 42 हज़ार कर्मचारी 4 साल तक करोड़ों कागजों को जमा करते रहे और उनका वेरिफिकेशन चलता रहा।
 
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असम जैसे पागल हो गया था। एक-एक कागज की पुष्टि के लिए दूसरे राज्य तक दौड़ लगानी पड़ती थी। जैसे किसी के दादा 1971 के पहले राजस्थान के किसी स्कूल में पढ़े तो उसे दादा का स्कूल सर्टिफिकेट लेने के लिए कई बार राजस्थान जाना पड़ा। लोगों ने लाखों रुपया खर्च किया। सबसे ज्यादा लोगों ने दबाव में आत्महत्या कर ली। कितने ही लाइनों में लगकर मर गए। कितनों को ही इस दबाव में अटैक आया दूसरी बीमारियां हुईं।
 
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मैं कह नहीं सकता कि हमने अपने लोगों को कितनी तकलीफ दी। और फिर अंत में हासिल क्या हुआ? पहले 40 लाख लोग एनआरसी में नहीं आए। अब 19 लाख लोग नहीं आ रहे हैं। चलिए मैं कहता हूं अंत में 5 लाख या 3 लाख लोग बच जाएंगे तो हम उनका क्या करेंगे? हमने यह सब पहले से नहीं सोचा था। हमें नहीं पता था कि यह समस्या इतनी ज्यादा उलझी से हुई है।
 
मुझे लगता है की हम इतने लोगों को ना वापस बांग्लादेश भेज सकेंगे, ना डिटेंशन कैम्पों में रख सकेंगे और ना ही इतने लोगों को ब्रह्मपुत्र में फेंका जा सकता है। तो अंत में यह निर्णय निकलेगा की वर्क परमिट दिया जाए और एनआरसी से पीछा छुड़ा लिया जाए। केंद्र सरकार दूसरे राज्यों में एनआरसी लाने की बात कर रही है, लेकिन उसे असम का अनुभव हो चुका है।

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