क्या पीएम मोदी चल रहे हैं इस 'खतरनाक' रास्ते पर

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नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आने के बाद आतंकवाद और ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दे को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जोर-शोर से उठाया था। इसका परिणाम यह हुआ कि जैश के आतंकवादी मसूद अजहर को प्रतिबंधित कर दिया गया और साथ ही सर्जिकल स्ट्राइक पर किसी भी देश का कोई विरोध नहीं रहा। इसके अलावा कई राष्ट्र यह मानने लगे कि आतंकवाद के मुद्दे पर एकजुट होकर कार्य करने की जरूरत है, लेकिन इस मामले में सऊदी अरब और ईरान चुप ही रहे।
 
 
उपरोक्त बातों से ज्यादा सबसे महत्वपूर्ण बात भारत की विदेश नीति के कुछ ऐसे पहलुओं पर जिसे समझना बहुत मुश्किल है और यह आशंकाओं से भरा हुआ ही है। इस संबंध में कहा जा सकता है कि पीएम नरेंद्र मोदी या तो जोखिम ले रहे हैं, इस संबंध में अनजान हैं या हो सकता है कि यही भारत की नीति है जो नेहरू के जमाने से चली आ रही है। क्या है वह बात आओ जानते हैं।
 
 
दरअसल, पिछले पांच वर्षों में नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में भारत का सऊदी अरब से रिश्ता बढ़ा है, जबकि अब तक ईरान से हमारे रिश्ते ज्यादा अच्छे रहे हैं। सऊदी अरब और ईरान आपस में कट्टर दुश्‍मन हैं। अमेरिका भी ईरान का दुश्मन है। अमेरिका के लिए ईरान एक दुश्मन देश इसलिए भी है क्योंकि वह इसराइल के फिलिस्तीन इलाके में दखल रखता है। अमेरिका मानता है कि ईरान हमास और हिज्बुल्लाह को समर्थन देता है। दूसरा वह चीन और उत्तर कोरिया से करीबी रखता है और उसे यह आशंका है कि वह इन दोनों के सहयोग से परमाणु कार्यक्रम चला रहा है। भारत ने इन पांच वर्षों में इसराइल से संबंध बढ़ाकर ईरान को सकते में डाल दिया है।
 
 
अमेरिका के लिए पश्‍चिम एशिया की राजनीतिक गतिविधियां ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। पश्चिम एशिया में उसका साथी सऊदी अरब है। यह जानते हुए भी कि सऊदी अरब सलाफी और हनीफी विचारधारा का गढ़ है, जहां से ही आईएस और अल कायदा के लीडर निकले हैं। सऊदी अरब पर कई यूरोपीय देश यह आरोप लगा चुके हैं कि वह सुन्नी मस्जिदों को फंडिंग करता है और यह फंडिग सीधे आतंकवाद को बढ़ावा देने में खर्च होती है।
 
 
हाल ही में श्रीलंका में हुए ईस्टर हमले के बाद वहां के लोगों में सऊदी अरब के खिलाफ गुस्सा बढ़ा है। वहां 21 अप्रेल को आईएसआईएस से जुड़े मुस्लिम चरमपंथियों ने होटलों और गिरिजाघरों पर हमले किए थे जिनमें 250 से ज्यादा लोग मारे गए थे। राष्ट्रवादी मुसलमान और सिंहला बौद्ध मानते हैं कि सऊदी अरब के प्रभाव के चलते यहां मुस्लिम कट्टरवाद फैल रहा है। श्रीलंका के कुछ मुसलमान भी अरब देशों के बढ़ते प्रभाव को लेकर चिंतित हैं। इससे वहां की शांति भंग हो गई है। जानकार लोग मानते हैं कि सऊदी अरब ने नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश और भारत में भी अपनी दखल बढ़ा दी है। श्रीलंका में हुए हमले के तार केरल से भी जुड़े होने की बात कही गई थी।
 
 
भारत की बात करें तो सऊदी अरब पर यह आरोप लगते रहे हैं कि वह केरल, असम और बांग्लादेश में प्रत्यक्ष रूप से और कश्मीर में अप्रत्यक्ष रूप से सुन्नी मुसलमानों के बीच अपनी दखल का विस्तार कर रहा है। हाल ही में केरल में आई बाढ़ के लिए उसने मोदी सरकार से मदद की पेशकश की थी। इस तरह असम और पश्‍चिम बंगाल में भी जब कोई विपदा आती है तो वह मदद करने की बात करता है। वैसे आरोप यह भी है कि वह और भी कई तरह के कार्यों हेतु इन राज्यों में मस्जिदों को फंडिंग करता रहा है और कर रहा है।
 
 
अब यह समझने वाली बात है कि सऊदी अरब का नरेंद्र मोदी के प्रति अचानक प्रेम कैसे उमड़ने लगा है? एक समय था जबकि अमेरिका सहित उनके सहयोगी राष्ट्रों के लिए मोदी एक कट्टरपंथी हिन्दू नेता के रूप में स्थापित थे। हालांकि आज भी है, लेकिन हाल ही में सऊदी अरब ने नरेंद्र मोदी को जायद सम्मान देकर चौंका दिया है। यह भी की उसने अरब राष्ट्रों के संगठन इस्लामिक कॉन्फ्रेंस ऑर्गेनाइज़ेशन में भारत को विशेष अतिथि का न्योता देकर भी चौंकाया है। भारत और नरेंद्र मोदी सरकार के लिए निश्‍चित ही यह खुशी और सम्मान की बात हो सकती है, लेकिन इसके पीछे की कूटनीति को समझने की जरूरत भी है।
 
 
भारत को यह समझना होगा कि सऊदी अरब ने कश्मीर मुद्दे पर कभी भी भारत का साथ नहीं दिया है। तालिबान को लेकर भी भारत और सऊदी अरब में मतभेद हैं। सऊदी अरब पाकिस्तान का भी समर्थन करता है क्योंकि वहां सुन्नी जमात सबसे मजबूत स्थिति में है और उसे ईरान से लड़ने के लिए पाकिस्तान का साथ जरूरी है। सऊदी अरब में पाकिस्तान के सैनिक तैनात हैं। ये सैनिक उन इलाकों में बड़ी तादाद में तैनात हैं जहां शिया समुदाय के लोग ज्यादा रहते हैं और यहां तेल भी है। यह इलाका अल हसा नाम से जाना जाता है।
 
 
इधर सऊदी अरब का भारत में निवेश बढ़ा है। सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान इसी वर्ष पाकिस्तान के साथ 20 अरब डॉलर का समझौता करने के बाद भारत आए थे और उन्होंने यहां 100 अरब डॉलर निवेश करने की घोषणा की। इस निवेश से किसका भला होगा यह सोचने समझने वाली बात है।
 
दरअसल, सऊदी अरब और भारत की राजनीतिक व्यवस्था में बहुत अंदर है। भारत लोकतंत्र और कानून के शासन में विश्वास रखता है जबकि सऊदी अरब में इस्लामिक हुकूमत है और वहां एक कट्टरपंथी शासन हैं और माना जाता है कि वो दुनियाभर में कट्टरपंथी ताकतों को प्रोत्साहित भी करती है। वे दुनिया में कहीं भी निवेश कर रहे हैं या दान दे रहे हैं तो उसके पीछे उनका एक मकसद है। इस मकसद को समझने की जरूरत है।
 
 
भारत में इसको लेकर यहां के शिया मुस्लिम खासे चिंतित हैं। भारत के शिया मुसलमान सऊदी अरब से खासे नाराज है। उनकी नाराजगी के कई कारण हैं। पहला सबसे बड़ा कारण यह कि सऊदी अरब की सरकार ने मदीना मुनव्वरा में पैगंबर की बेटी हजरत फातिमा समेत तमाम इमामों की कब्र को ध्वस्त कर दिया है। इसके अलावा कट्टरपंथी सुन्नी मुस्लिमों ने ईरान को छोड़कर इराक, सीरिया और अन्य सभी इस्लामिक राष्ट्रों में शियाओं के स्मारक, मस्जिद और महत्वपूर्ण पवित्र स्थानों को निशान बनाया है जिसको लेकर भारत के शिया काफी नाराज हैं। शिया मुस्लिमों के लिए ईरान सबसे बड़ा मरकज है। ईरान एक शिया मुल्क है।
 
 
अब पीएम नरेंद्र मोदी के लिए सऊदी अरब से संबंध बढ़ा और दूसरी ओर ईरान से भी संबंध जारी रखना बहुत ही मुश्किल कार्य ही नहीं यह बहुत ही खतरनाक कार्य है। सऊदी अरब से संबंध बढ़ाने का अर्थ यह है कि आप एक खतरनाक रास्ते पर चल रहे हैं। क्योंकि यदि सऊदी अरब आपको कुछ देता है तो बदले में अपको भी कुछ देना होगा। ईरान से आप सिर्फ तेल ले रहे थे और वह भी अब अमेरिका के विरोध के कारण बंद हो गया। दूसरा ईरान के सहयोग से आप चाबहार बंदरगाह बनाकर पाकिस्तान और चीन को रोकने की नीति अपना रहे हो। ऐसे में ईरान से संबंध बनाना भी जरूरी है। ईरान से संबंध बनाते हो तो सऊदी अरब और अमेरिका की नाराजगी भी झेलना ही होगी। ईरान का झुकाव उत्तर कोरिया और चीन की तरफ ज्यादा है तो यह भी भारत के लिए एक असहज स्थिति ही है।
 
 
अब देखना होगा कि मोदी सरकार फिर से सत्ता में आती है तो कैसे वह ईरान और साऊदी अरब की दुश्मनी के बीच खुद को निरपेक्ष रख पाती है और कैसे वह भारत में सऊदी अरब के बढ़ते दखल को रोक पाती है।


 

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