सलाम! सैम बहादुर

देश के पहले फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ ने सन 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में भारतीय सेना का नेतृत्व कर पाकिस्तान को बुरी तरह हराकर भारत को विजय दिलाकर भारतीय सेना का एक स्वर्णिम अध्याय लिखा था।
 
अदम्य साहस और युद्धकौशल के लिए मशहूर, भारतीय सेना के इतिहास में स्वर्णिम दस्तखत करने वाले अमृतसर में जन्मे भारत के सबसे ज्यादा चर्चित और कुशल सैनिक कमांडर पद्मभूषण, पद्मविभूषण फील्ड मार्शल सैम होर्मूसजी फ्रेमजी जमशेदजी मानेकशॉ (3 अप्रैल 1914- 27 जून 2008) के जीवन और उपलब्धियों को बयान करना थोड़ा मुश्किल होगा।
 
फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ ने भारत के लिए कई महत्वपूर्ण जंगों में निर्णायक भूमिका निभाई थी। उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ जीत, जिसका सेहरा उनके सिर ही बाँधा जाता है। तब से सैम बहादुर के नाम से मशहूर फील्ड मार्शल मानेकशॉ राष्ट्रीय महानायक के रूप में देखे जाते हैं।
 
पहली लड़ाई : 17वी इन्फैंट्री डिवीजन में तैनात सैम ने पहली बार द्वितीय विश्वयुद्घ में जंग का स्वाद चखा। बर्मा अभियान के दौरान सेतांग नदी के तट पर जापानियों से लोहा लेते हुए सैम गम्भीर रूप से घायल हो गए। पेट में कई गोलियाँ लगने पर उनका बचना लगभग नामुमकिन हो गया था। उन्हें जब गम्भीर अवस्था में रंगून के सैनिक अस्पताल में लाया गया, तब एक सर्जन ने उनका ऑपरेशन करने से पहले उनसे पूछा "what happen to you" तो उन्होने हँसते हुए कहा "I was kicked by a bloody mule!" उनकी दिलेरी से प्रभावित हो सर्जन ने कहा "Given your sense of humour, it will be worth saving you!" 
 
उनके अदम्य साहस से प्रभावित बर्मा मोर्चे के कमांडिंग आफिसर मेजर जनरल डीटी कॉवन ने उन्हें जीवन-मृत्यु से संघर्ष करते देख अस्पताल के बिस्तर पर ही स्वयं का मिलिट्री क्रास उन्हें प्रदान करते हुए कहा 'मरने के बाद पदकों का कोई मोल नहीं होता।' 
 
इम्तिहान की घड़ी : परंतु मौत को चकमा देकर सैम पहले स्टाफ कॉलेज क्वेटा, फिर जनरल स्लिम्स की 14वीं सेना के 12 फ्रंटियर राइफल फोर्स में लेफ्टिनेंट बनकर बर्मा के जंगलों में एक बार फिर जापानियों से दो-दो हाथ करने जा पहुँचे। यहाँ वे भीषण लड़ाई में फिर से बुरी तरह घायल हुए। द्वितीय विश्वयुद्घ खत्म होने के बाद सैम को स्टॉफ ऑफिसर बनाकर जापानियों के आत्मसमर्पण के लिए इंडो-चायना भेजा गया, जहाँ उन्होंने लगभग 10000 युद्घबंदियों के पुनर्वास में अपना योगदान दिया।
 
1946 में वे फर्स्ट ग्रेड स्टॉफ ऑफिसर बनकर मिलिट्री ऑपरेशंस डायरेक्ट्रेट में सेवारत रहे। विभाजन के बाद 1947-48 की कश्मीर की लड़ाई में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए सैम को नगालैंड समस्या को सुलझाने के अविस्मरणीय योगदान के लिए 1968 में पद्मभूषण से नवाजा गया । 
 
7 जून 1969 को सैम मानेकशॉ ने जनरल कुमारमंगलम के बाद भारत के 8वें चीफ ऑफ द आर्मी स्टाफ का पद ग्रहण किया। उनके इतने सालों के अनुभव के इम्तिहान की घड़ी तब आई जब हजारों शरणार्थियों के जत्थे पूर्वी पाकिस्तान से भारत आने लगे और युद्घ अवश्यंभावी हो गया। दिसम्बर 1971 में यह आशंका सत्य सिद्घ हुई। सैम के युद्घ कौशल के सामने पाकिस्तान की करारी हार हुई तथा बांग्लादेश का निर्माण हुआ। उनके देशप्रेम व देश के प्रति नि:स्वार्थ सेवा के चलते उन्हें 1972 में पद्मविभूषण तथा 1 जनवरी 1973 को भारत के पहले फील्ड मार्शल के मानद पद से अलंकृत किया गया।

तख्ता पलट नहीं : हर योद्धा के साथ कई रोचक किस्से और रोमांचक वाकये जुड़े होते हैं और सैम बहादुर भी इसके अपवाद नहीं रहे हैं। यह किस्सा तो आज भी याद किया जाता है कि कैसे 1971 की लड़ाई के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने उनसे पूछा कि ऐसी चर्चा है कि आप मेरा तख़्ता पलटने वाले हैं। सैम ने अपने जिन्दादिल अंदाज में कहा 'क्या आपको नहीं लगता कि मैं आपका सही उत्तराधिकारी साबित हो सकता हूँ? क्योंकि आप ही की तरह मेरी भी नाक लंबी है।'
 
और फिर सैम ने कहा 'लेकिन मैं अपनी नाक किसी के मामले में नहीं डालता और सियासत से मेरा दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं और यही अपेक्षा मैं आपसे भी रखता हूँ।'
 
साहस के प्रशंसक : 1971 की जंग के दौरान पाकिस्तानी सेना के कैप्टन मलिक की बहादुरी से प्रभावित सैम ने सार्वजनिक रूप से उनके साहस की सराहना की थी तथा पाकिस्तानी राष्ट्रपति याह्या खान से उनके लिए पदक तक की सिफारिश कर डाली। 4 दशकों तक देश की सेवा करने के बाद सैम बहादुर 15 जनवरी 1973 को फील्ड मार्शल के पद से सेवानिवृत्त हुए।
 
सैम को इस बात का मलाल रहा है कि शिमला समझौते के दौरान भारत सरकार ने कश्मीर समस्या सुलझाने का सुनहरा मौका हाथ से जाने दिया। 
 
एकांत की जिंदगी बसर करने वाले सैम ने लड़ाइयों पर एक बार प्रतिक्रिया दी थी 'मैं तो शांतिप्रिय आदमी हूँ। इन सब बातों के बारे में कुछ नहीं जानता', लेकिन सभी जानते हैं कि इस रणबांकुरे के पास आज की पीढ़ी के लिए ढेरों मिसालें हैं, जो आने वाली पीढ़ी के लिए प्रकाश स्तंभ का कार्य करेंगी।
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