स्वर्गीय कवि प्रदीप का लिखा और स्वरकोकिला लता मंगेशकर का गाया एक गीत है, जो भारत पर चीनी आक्रमण की हर वर्षगांठ पर हमारी आंखें नम कर देता है। गीत है, 'ऐ मेरे वतन के लोगों, ज़रा आंख में भर लो पानी...।' कहा जाता है कि 27 जनवरी, 1963 को लताजी ने दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में जब यह गीत गाया, तब हमारे प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की आंखें भी भर आईं। यह गीत ठीक 60 वर्ष पूर्व, 20 अक्टूबर 1962 को भारत पर चीन के आक्रमण से मिली राष्ट्रीय पीड़ा की मर्मांतक अभिव्यक्ति था और आज भी है।
पंडित नेहरू ने ही 1950 में नारा दिया था 'हिंदी-चीनी, भाई-भाई।' 1956 में चीनी प्रधानमंत्री चाउ एन लाई (Zhou Enlai) जब पहली बार भारत आए, तो उन्होंने भी इस नारे को दोहरा कर हमें गदगद कर दिया। लेकिन, ढाई साल बाद ही, अगस्त 1959 में, उनके सैनिकों ने आज के अरुणाचल प्रदेश की उस समय की 'लोंगजू' सीमांत चौकी पर हमला बोल दिया। वहां तैनात असम राइफ़ल्स के 9 जवान मारे गए और 10 को चीनियों ने बंदी बना लिया। हम तो 9 वर्षों से 'हिंदी-चीनी भाई-भाई' जप रहे थे, जबकि चीनी हमारी पीठ में छुरा भोंकने का मौक़ा देख रहे थे। 60 वर्ष पूर्व की बहुत कुछ यही घटना, 1962 के भारत-चीन युद्ध की भूमिका बनी।
चीनियों को ख्रुश्चेव की सलाह पसंद नहीं आई : नवंबर,1955 में भारत की यात्रा कर चुके निकिता ख्रुश्चेव उस समय सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वोच्च नेता थे। 1959 की 'लोंगजू' वाली घटना के दिनों में ही वे अमेरिका जाने वाले थे। उन्होंने सोवियत समाचार एजेंसी 'तास' द्वारा तुरंत एक वक्तव्य जारी किया कि दोनों पक्षों को अपना सीमा-विवाद वार्ताओं द्वारा हल करना चाहिए। चीनियों को ख्रुश्चेव की यह सलाह बिल्कुल पसंद नहीं आई। उन्हें लगा कि सोवियत नेता अपने कम्युनिस्ट बिरादर चीन के बदले, ग़ैर-कम्युनिस्ट देश भारत का पक्ष ले रहे हैं।
अमेरिका से स्वदेश लौटने के बाद ख्रुश्चेव अपने विदेशमंत्री आंद्रेई ग्रोमिको और पोलित ब्यूरो-सदस्य मिख़ाइल सुस्लोव को साथ लेकर पेकिंग पहुंचे। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष और तानाशाह, माओ त्से तुंग के घर में 2 अक्टूबर, 1959 के दिन एक बैठक हुई। बैठक में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के उपाध्यक्ष, प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री और विदेशमंत्री सहित कुल 9 चीनी नेता भाग ले रहे थे। वैसे तो बातें कुछ अन्य विषयों पर भी हुईं, पर ख्रुश्चेव ने भारत और चीन की सीमा पर झड़प में भारतीय सैनिकों की मृत्यु को मुख्य विषय बना दिया।
भारत के साथ आपका झगड़ा क्या है? : ख्रुश्चेव ने चीनी नेताओं से कहा कि हम यह विषय इसलिए उठा रहे हैं, क्योंकि आपका पक्ष हमारी समझ में नहीं आ रहा है। हम समझ नहीं पा रहे हैं कि भारत के साथ आपका झगड़ा क्या है? सोवियत नेता ने ईरान के साथ डेढ़ सौ वर्षों से चल रहे एक सीमा-विवाद का उदाहरण देते हुए कहा कि हमने अपनी सीमा का कुछ भाग देकर तीन-चार साल पूर्व यह विवाद सुलझा लिया। तुर्की के साथ भी ले-देकर एक ऐसा ही विवाद हल कर लिया। यानी, सीमा-विवाद कोई ऐसी समस्या नहीं हैं कि बातचीत से हल नहीं हो सके।
ख्रुश्चेव ने चीनी नेताओं से कहा कि 'भारत के साथ तो आपके कई वर्षों से बड़े अच्छे संबंध थे। तो अब, अचानक यह ख़ूनी झड़प क्यों हो गई! नतीजा यह है कि नेहरू अपने आाप को बड़ी विकट स्थिति में पा रहे हैं। हम भले ही कहें कि नेहरू एक बुर्जुआ (मध्यवर्गीय) राजनेता हैं। पर, यदि उन्हें (सत्ता से) जाना पड़ा तो उनसे बेहतर हमें कौन मिलेगा? दलाई लामा तिब्बत से पलायन कर गए; वे भी बुर्जुआ हैं। यह मामला भी हमारी समझ से परे है।'
चीनी नेताओं को नेहरू का महत्व समझाया : एक राजनेता के तौर पर पंडित नेहरू के अंतरराष्ट्रीय महत्व को समझाने के लिए ख्रुश्चेव ने चीनी नेताओं को तीन साल पहले, 1956 में हंगरी में हुए जनविद्रोह की याद दिलाई। छात्रों की अगुआई में उस वर्ष हंगरी के कम्युनिस्ट तानाशाह मतियास राकोसी की सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए विद्रोह हो गया था। विद्रोही, हंगरी में तैनात सोवियत सेना की वहां से विदाई भी चाहते थे। ख्रुश्चेव ने इस विद्रोह को सैन्यबल से कुचलवा दिया था।
चीनी नेताओं से उन्होंने कहा, 'नेहरू इसके विरुद्ध थे, पर हमने उनके विरोध का बुरा नहीं माना। ...उनका विरोध, उनके साथ हमारे अच्छे संबंधों में बाधक नहीं बना। ...मैं एक ऐसी बात भी कहना चाहता हूं, जो किसी मेहमान को हालांकि कहनी नहीं चाहिए: तिब्बत में जो कुछ हुआ, वह आपकी ग़लती है। तिब्बत में आप ही का तो राज था... आपको पता होना चाहिए था कि दलाई लामा की क्या योजनाएं और क्या इरादे हैं।'
दलाई लामा का नाम आते ही माओ त्से तुंग तिलमिला कर बोल पड़े, 'नेहरू भी यही कहते हैं कि तिब्बत में हुई घटनाओं के लिए हम दोषी हैं। दूसरी ओर, सोवियत सामाचार एजेंसी 'तास' में भारत के साथ विवाद पर एक वक्तव्य प्रकाशित हो जाता है।'
यह आपकी बहुत बड़ी बेवकूफ़ी होगी : यह वक्तव्य ख्रुश्चेव के ही कहने पर प्रकाशित हुआ था, इसलिए वे तमक कर बोले, 'तो क्या आप वाकई चाहते हैं कि भारत के साथ आपके झगड़े का हम समर्थन करें? यह आपकी बहुत बड़ी बेवकूफ़ी होगी। ...आप अब भी नेहरू और मेरे बीच कोई अंतर देख रहे हैं। यदि हमने 'तास' वाला वक्तव्य जारी नहीं किया होता, तो इससे यह आभास होता कि समाजवादी देशों का नेहरू के विरुद्ध एक संयुक्त मोर्चा बन गया है। 'तास' द्वारा प्रकाशित वक्तव्य दिखाता है कि यह (सीमा विवाद) आपके और भारत के बीच का मामला है।'
इस नोक-झोंक के बाद दोनों नेता कुछ समय तक दलाई लामा को लेकर बहस करते रहे। तिब्बत पर चीन के क़ब्ज़े और उसके आत्याचारों के विरोध में वहां 1956 से विद्रोह होने लगे थे। हज़ारों तिब्बती भाग कर भारत में शरण ले रहे थे। इसी दौर में दलाई लामा भी, मार्च 1959 में भारत पहुंचे। ख्रुश्चेव का कहना था कि दलाई लामा का पलायन चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की ग़लती का नतीजा था। इसमें नेहरू का कोई दोष नहीं था। माओ त्से तुंग अड़े रहे कि नहीं, दोष नेहरू का ही था।
नेहरू को... कुचल डालना चाहिए : भारत को भारत कहने के बदले माओ ने आरोप लगाया, 'हिंदू ऐसा व्यवहार कर रहे थे, मानो तिब्बत उन्हीं का है। ... 'नेहरू का हम भी समर्थन करते हैं, पर तिब्बत के प्रश्न पर हमें उन्हें कुचल डालना चाहिए!... हिंदुओं ने ही सीमा पहले पार की और 12 घंटों तक गोलीबारी करते रहे।'
चीन के प्रधानमंत्री चाउ एन लाई ने ख्रुश्चेव से पूछा, 'किस तथ्य पर आप विश्वास करते हैं, भारतीयों वाले या हमारे?' ख्रुश्चेव ने कहा, 'हिंदुओं ने यदि पहले हमला किया भी, तब भी कोई चीनी तो नहीं मरा, मरे केवल हिंदू ही!' चाउ एन लाई ने पलटकर पूछा, 'उन्होंने जब हमला कर दिया, तो हम आखिर क्या करते? हवा में गोलियां तो नहीं चलाते! हिंदुओं ने तो मैकमहोन सीमारेखा भी पार कर ली। ...नेहरू के नाम 9 सितंबर के अपने पत्र में मैंने वह सब बयान किया है, जो भारत के और हमारे बीच अब तक हुआ है।'
सोवियत नेता अपने स्वर में नम्रता लाते हुए बोले, 'कॉमरेड चाउ एन लाई, आप कई वर्षों तक चीन के विदेशमंत्री रहे हैं, मुझसे बेहतर जानते हैं कि विवादासस्पद विषयों को बिना किसी ख़ून-ख़राबे के कैसे सुलझाया जा सकता है। इस ख़ास मामले में मैं सीमा से जुड़ी बातों को छूना ही नहीं चाहता। चीनी और हिंदू यदि ख़ुद ही नहीं जानते कि उनके बीच की सीमा आख़िर है कहां, तो मुझ रूसी को इसमें कोई दखल नहीं देना है। मैं केवल उन तौर-तरीकों के ख़िलाफ़ हूं, जो अपनाए गए हैं।'
मैकमहोन रेखा को कभी स्वीकार नहीं किया : चीनी प्रधानमंत्री ने दावा किया कि सीमा पर हुई झड़प का चीनी नेताओं को तुरंत नहीं, कुछ दिन बाद पता चला। स्थानीय अधिकारियों ने ऊपरी आदेश के बिना ही स्थिति को संभाला। यह भी दावा किया कि चीन की किसी भी सरकार ने मैकमहोन रेखा को कभी स्वीकार नहीं किया है। इस आरोप को फिर से दोहराया कि 'हिंदुओं ने ही सबसे पहले (मैकमहोन) सीमा पार की... जो चीन की 90 हज़ार वर्ग किलोमीटर ज़मीन को चीन से अलग करती है। उन्होंने ही सबसे पहले गोली चलाई। वे अब भी उन जगहों से पीछे नहीं हटे हैं, जहां घुस गए हैं।'
'हिंदुओं' द्वारा ही पहले गोली चलाने की बात को, किसी 'तोतारटंत' की तरह, इस बैठक में वे चीनी नेता भी हर मौके-बेमौके उछालते रहे, जो 'चेयरमैन माओ' की नज़रों में अपना महत्व बढ़ाना चाहते थे। उनकी 'तोतारटंत' से झल्लाकर ख्रुश्चेव को एक बार बल देकर कहना पड़ा, 'हम तो केवल तीन ही हैं और आप हैं 9 लोग; बस एक ही लकीर पीटे जा रहे हैं!'
नेहरू ख़ुद भी नहीं जानते थे कि हुआ क्या है : गर्मा-गर्मी को बढ़ते देख कर माओ त्से तुंग को लगा कि अब उन्हें कोई ऐसी बात कहनी चाहिए कि पारा ज़रा नीचे आए। उन्होंने कहा, 'भारत के साथ सीमा-विवाद, बस एक छोटी-सी बात है, न कि सरकारों के बीच कोई टकराव है। नेहरू ख़ुद भी नहीं जानते थे कि हुआ क्या है। ...हमें भी घटना की जानकारी काफ़ी देर से मिली।
यह सब न तो नेहरू को पता था और न तिब्बत में हमारे सैन्य-विभाग को। जब नेहरू को पता चला कि उनके गश्ती दस्ते ने मैकमहोन रेखा को पार किया है, तो उन्होंने उसे पीछे हटने का आदेश दिया। हमने भी मामले के शांतिपू्र्ण समाधान के लिए आवश्यक क़दम उठाए।'
इस पर ख्रुश्चेव की टिप्पणी थी, 'यदि यही काम झड़प के तुरंत बाद किया गया होता, तो बाद का टकराव नहीं हुआ होता। इस के अलावा, आप ने एक लंबे समय तक सीमा पर हुई घटनाओं के बारे में हमें कुछ बताया भी नहीं।' चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के उपाध्यक्ष ल्यू शाओची ने इसका जवाब देते हुए कहा कि 6 सिंतंबर 1959 को पेकिंग में स्थित सोवियत दूतावास को सूचित कर दिया गया था।
इससे पहले तो हमें ही ठीक से कुछ पता नहीं था। प्रधानमंत्री चाउ एन लाई ने शिकायत की कि उन्होंने नेहरू को लिखे अपने पत्र की एक कॉपी 9 सितंबर को पेकिंग में सोवियत संघ के कार्यवाहक राजदूत को दी थी, लेकिन समाचार एजेंसी तास वाला वक्तव्य उससे पहले ही प्रकाशित हो गया। भाग-2 : इसलिए पीछे हट गया था चीन, मगर अब भी भरोसे के लायक नहीं