काम है आतंकवादियों से मुकाबले का, मेहनताना ऊंट के मुंह में जीरा
रविवार, 29 दिसंबर 2013 (16:00 IST)
डोडा के भरत पहाड़ी क्षेत्र के रहने वाले जगदेव सिंह (नाम बदला हुआ) का परिवार पिछले एक माह से दाने-दाने को मोहताज है। परिवार में पुरुष सदस्य के नाम पर जगदेव का 14 वर्षीय बेटा है और विधवा पत्नी रानो अपनी दो बेटियों की शादी की चिंता में भी है। जगदेव सिंह कुछ अरसा पहले एक आतंकवादी मुठभेड़ में मारा गया था। वह जम्मू-कश्मीर पुलिस में एसपीओ के बतौर अर्थात विशेष पुलिस अधिकारी के रूप में कार्य करता था।
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लेकिन जगदेव सिंह के पड़ोसी कांस्टेबल सुरमदेव के परिवार को ऐसी कोई चिंता नहीं। सुरमदेव भी उसी आतंकी हमले में शहादत पा गया था जिस मुठभेड़ के दौरान जगदेव सिंह आतंकियों का मुकाबला करते हुए मारा गया था। दोनों में अंतर इतना था कि सुरमेदव नियमित पुलिसकर्मी था तो जगदेव सिंह एसपीओ अर्थात अर्द्ध पुलिसकर्मी।
दोनों की शहादत का मोल भी अलग-अलग था। सुरमदेव के परिवार को सरकार की ओर से राहत राशि के बतौर 5 लाख रुपयों की रकम थमाई गई थी तो जगदेव सिंह की विधवा पत्नी अपने पति के उन 4 महीनों के वेतन की आस में रोजाना पुलिस अधिकारियों के पास चक्कर काटती रही, जो अभी भी बकाया हैं।
जानकर दंग रह जाना पड़ता है कि जगदेव सिंह को आतंकियों से मुकाबला करने के लिए मिलते थे प्रतिमाह 1500 रुपए और वह भी नियमित तौर पर नहीं। कभी-कभार 6 महीने का एकसाथ तो कभी 2 महीनों के उपरांत। अब यह वेतन बढ़कर 3000 रुपए प्रतिमाह हो गया है।
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इसी तरह पुंछ में कुछ अरसा पहले 15 आतंकवादियों को ढेर करने में मुख्य भूमिका निभाई थी विशेष पुलिस अधिकारियों अर्थात एसपीओ ने ही। दो एसपीओ शहादत भी पा गए। बदले में इनाम तो नहीं मिला, मरने वालों के परिवार दर-बदर जरूर हो गए, लेकिन नियमित पुलिसकर्मियों के साथ ऐसा नहीं है।
एक-दो आतंकवादियों को ठिकाने लगाने वाले पुलिसकर्मी भी अपने कांधों पर सितारों की चमक देख लेते हैं और अगर कोई शहीद हो गया तो परिवार के लिए वे सब सुख-सुविधाएं होती हैं, जो एक शहीद जवान के परिवार के लिए तय हैं।
परंतु उन हजारों एसपीओ के लिए यह सब दूर के ढोल हैं, जो सुहाने लगते हैं। लेकिन जब आतंकवादियों से मुकाबले की बात आती है तो अग्रिम पंक्ति में नियमित पुलिसकर्मियों के वे जवान खड़े नहीं होते, जो वेतन पाते हैं हजारों का और इनाम के साथ-साथ शाबासी भी। यही कारण है कि आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ों में मरने वाले एसपीओ का आंकड़ा दिनोदिन बढ़ रहा है।
पाक समर्थक आतंकवाद के विरुद्ध छेड़ी गई जंग में आतंकवादियों का मुकाबला करने वाले सुरक्षाबलों में बराबर की भूमिका निभाने वाले विशेष पुलिस अधिकारियों अर्थात एसपीओ के परिवारों को कोई राहत राशि भी नहीं मिलती है। ऐसे में ये परिवार और एसपीओ क्या करें, कोई राह उन्हें नहीं सूझ रही है। इतना जरूर है कि राज्य सरकार की यह भेदभाव वाली नीति ही कई बार इन एसपीओ को विद्रोह करने पर उकसा देती है।
वर्ष 2003 में डोडा के पहाड़ी जिले में ऐसे विद्रोह की घटनाएं भी सामने आई थीं। तकरीबन 100 एसपीओ उन हथियारों व गोला-बारूद को लेकर फरार हो गए थे, जो उन्हें मुहैया करवाए गए थे। कुल 30 वापस लौटे थे। वे तभी लौटे जब उन्हें आश्वासन दिया गया कि उनके बकाया वेतन को जल्द ही दे दिया जाएगा।
चौंकाने वाली बात इन एसपीओ द्वारा विद्रोही रुख अपनाते हुए भगौड़ा हो जाने के प्रति यह थी कि वे मात्र अपना वेतन न मिलने के प्रति रोष दर्शाने की खातिर ऐसा कदम उठाने पर मजबूर हुए थे।
अधिकारियों के बकौल विद्रोह करने वाले एसपीओ को पिछले 8 महीनों से वेतन नहीं मिला था। यह बात अलग है कि वेतन के नाम पर उन्हें ‘ऊंट के मुंह में जीरा’ थमाया जाता है। अर्थात आतंकवाद का मुकाबला करने, सीने पर गोलियां सहन करने और उनकी शहादत की कीमत है मात्र 3,000 रुपए प्रतिमाह।
अधिकारियों ने क्यों साध रखी है चुप्पी... अगले पन्ने पर...
इसे वरिष्ठ अधिकारी भी मानते हैं कि ये एसपीओ आतंकवादियों को जबरदस्त टक्कर दे रहे हैं। सिर्फ टक्कर ही नहीं, बल्कि ग्राम सुरक्षा समिति के सदस्यों की ही तरह वे आतंकवादियों के खात्मे में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। लेकिन जब पारिश्रमिक व अन्य राहत की बात आती है तो ये अधिकारी भी कुछ बोलने को तैयार नहीं होते।
माना कि इन युवकों को 3,000 रुपए मासिक वेतन पर एसपीओ के रूप में भर्ती कर पुलिस की वर्दी पहनने को दी गई हो लेकिन उनकी हैसियत एक दैनिक वेतनभोगी से अधिक नहीं है। ‘दैनिक वेतनभोगी भी आज प्रतिदिन 400 रुपए कमाता है और इज्जत व बिना खतरों की जिन्दगी जीता है,’ किश्तवाड़ में कार्यरत एक एसपीओ अशफाक मजीद वानी का कहना था।
और यह कड़वी सच्चाई है कि आतंकवादियों के निशाने नियमित पुलिसकर्मी नहीं होते बल्कि एसपीओ ही हैं। कारण, वे जानते हैं कि स्थानीय युवक तथा पूर्व आतंकवादी होने के परिणामस्वरूप वे आतंकवादियों के ठिकानों आदि के प्रति भरपूर जानकारी रखते हैं और यही आतंकवादियों के लिए भारी साबित हो रहा है।
यही कारण है कि मुखबिरों के साथ ही एसपीओ भी आतंकवादी हमलों के लगातार निशाने बन रहे हैं। नतीजतन उनके परिवारों को उनकी शहादत दुखों के सिवाय कुछ भी नहीं दे रही है, क्योंकि मरने वाला भी जानता है कि शहीद होने पर दो बोल संवेदना के भी नहीं मिलेंगे उसके परिवार को।