यह आजाद हिन्दुस्तान में एक अजीब स्थिति ही कही जाएगी कि जहाँ आज देश की आधी आबादी के हक के लिए लंबी-लंबी लड़ाइयाँ लड़ी जा रही हैं, वहीं आजादी की लंबी लड़ाई में महिला शहीदों की याद में एक मूर्ति या स्मारक आजादी के साठ साल के बाद भी अभी तक स्थापित नहीं हो पाई है।
विडम्बना है कि महिलाओं के हक और सशक्तिकरण की बातें सभी राजनीतिक दल ऊँची-ऊँची आवाजों में खूब जोरशोर से करते रहते हैं, लेकिन आज तक महिला शहीदों को एक छोटी-सी पहचान भी नहीं दिला सके।
आजादी की लड़ाई में पूरे देश में और खासतौर पर बिहार में जहाँ पुरुषों ने अपना खून बहाकर देश को आजाद कराया, वहीं कई वीरांगनाएँ अपनी जान की बाजी लगाकर अंग्रेजों से खूनी टक्कर लेने में पीछे नहीं हटीं। वक्त पड़ने पर वे गोलियाँ खाने से भी नहीं चूकीं, लेकिन यह एक विडंबना ही है कि आज तक बिहार में किसी भी महिला शहीद की स्मृति में न तो कोई स्मारक देखा गया और न ही कोई मूर्ति देखी गई। विशेष तौर पर राजधानी पटना में तो महिला शहीदों का कोई नामोनिशान नहीं है।
आजादी के 60 साल के अवसर पर इस सिलसिले में जब कुछ स्वतंत्रता सेनानियों से बातचीत की गई तो उनका दर्द उभरकर सामने आया। उन लोगों ने बातचीत में बताया कि आप शहीदों में महिलाओं की बात करते हैं। यहाँ तो उन बच्चों का भी जिक्र नहीं किया जाता, जिन्हें अंग्रेजों ने अपनी गोलियों का निशाना बनाया।
आजादी के कई योद्धाओं ने अपनी दुर्दशा और गुमनामी के बारे अफसोस व्यक्त करते हुए बताया कि आजादी के बाद बिहार में विभिन्न दलों की सरकारें आईं और गईं, लेकिन किसी भी राजनैतिक दल या सरकार ने महिला शहीदों की याद में एक भी स्मारक या मूर्ति स्थापित करने की जहमत तक नहीं उठाई।
वर्तमान अरवल जिला के 80 वर्षीय स्वतंत्रता सेनानी रामबृक्ष कुमार ने बताया कि यह सच है कि आजादी की लड़ाई के दौरान पुरुषों ने खुद की बलि चढ़ाई थी, लेकिन घर की चाहरदीवारी से निकलकर और अपने पुरुष सहयोगियों के साथ कंधे से कंधा मिलाते हुए गोली खाना किसी महिला के लिए विशेष बात है। उस समय चारों तरफ अंग्रेजों का बोलबाला था। औरतें घर के बाहर नहीं निकलती थीं। सिर पर डेढ़ हाथ का घूँघट काढ़ी रहती थीं। ऐसे में कमर में साड़ी कसकर अंग्रेजों और उनके हिन्दुस्तानी कारिंदों से खूनी लड़ाई करने को कौन कहे तथा गोली खाने की हिम्मत कौन उठाए।
उन्होंने बताया कि उन्हें बखूबी वह घटना याद आती है, जब बिहार की तत्कालीन राजधानी पटना जिले के चंडी थाने के तहत सुश्री सुधा कुमारी ने अपनी कम उम्र की परवाह नहीं करते हुए और सुख-सुविधा की चाहत नहीं करते हुए अंग्रेजों के खिलाफ जबरदस्त बगावत की थी। उन्होंने न केवल पोस्ट आफिस जलाया, बल्कि खंभों के तार उखाड़ने में भी पीछे नहीं हटी थीं।
उन्होंने बताया कि उग्र आंदोलन के दौरान अंग्रजों ने सुधा को अपनी गोली का निशाना बनाने में भी हिचकिचाहट महसूस नहीं की। उस समय की खबरों में तो सुधा मारी गई थीं, लेकिन हकीकत यह था कि वे अपनी मातृभूमि की आजादी के लिए शहीद हो गई थीं।
मोकामा के करीब 86 वर्षीय सुधीर महतो ने अपने इलाके की शहीद महिला के बारे में कहानी बताई, लेकिन उम्रदराज होने के चलते और उस समय फरार हो जाने के चलते वह नाम नहीं बता पाए।
जब महिला शहीदों का रिकॉर्ड खंगाला गया तो पता चला कि गोली का शिकार हुई पटना के ही मोकामा प्रखंड की एक अज्ञात महिला अपने दुधमुँहे बच्चे के साथ अंग्रजों के खिलाफ लड़ाई करती हुई शहीद हुई थी, लेकिन आज तक न तो उसके और न ही उसके बच्चे के नाम का पता चल सका, क्योंकि उसके बारे में बताने वाला शायद कोई नहीं था। सभी लोग या तो गाँव छोड़कर भाग गए या उनमें से कुछ मारे गए।
भोजपुर जिले के बुजुर्ग स्वतंत्रता संग्राम सेनानी कृष्णकुमार ने अतीत की यादों को उकेरते हुए बताया कि जहाँ तक उन्हें याद है उस समय के शाहाबाद जिले के लसाढ़ी क्षेत्र में श्रीमती अकलीदेवी को अंग्रेजों ने घेरकर मारा था। हालाँकि बाद में बताया यह गया कि वे पुलिस की हिरासत से भागती हुई मारी गई थीं, लेकिन यह सचाई नहीं है। श्रीमती अकलीदेवी का नाम शहीदों के रिकॉर्ड में दर्ज तो है, लेकिन उनके नाम पर न तो कोई स्मारक है और न ही उनकी कोई मूर्ति।
कुमार ने कहा कि इसी जिले में जगदीशपुर की श्रीमती फूलकुमारी देवी भी अंग्रेजों की गोली से शहीद हो गई थीं। उन्होंने अफसोस व्यक्त करते हुए कहा कि इन महिला शहीदों की स्मृति में पूरे शाहाबाद क्षेत्र में एक भी स्मारक नहीं दिखाई देता।
भागलपुर जिले के अवधबिहारी ने बड़े ही फक्र से कहा कि आजादी के लिए भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान सबसे अधिक योद्धा भागलपुर के विभिन्न क्षेत्रों में अंग्रेजों की गोलियों का निशाना बने थे। इनकी संख्या ढाई सौ के आँकड़े को भी पार कर गई थी। अकेले भागलपुर जेल में तकरीबन डेढ़ सौ कैदियों को मौत के घाट उतारा गया था।
उन्होंने बताया कि ऐसा नहीं कि इस लड़ाई में सिर्फ पुरुषों ने ही हिस्सा लिया, पीरपैंती क्षेत्र की रमधनिया ग्वालिन और भिखरु मियाँ, गुलाम मियाँ और साधु कुमार की पत्नियों ने भी अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर दिए थे। अंततोगत्वा अंग्रेजों ने घर की चाहरदीवारी में घुसकर इन लोगों को गोली मारकर सदा-सदा के लिए सुला दिया।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रामअवधेश सिंह ने बताया कि तत्कालीन मुंगेर जिले के रोहियार क्षेत्र की श्रीमती हकरी तेलिन और श्रीमती सुरमीदेवी की बहादुरी और दिलेरी के डंके की चर्चा आज भी इलाके में होती है। उन दोनों महिलाओं ने जबरदस्त हिम्मत और दिलेरी से उग्र आंदोलन का वो डंका बजाया कि उससे अंग्रेज कलेक्टर की जान पर बन आई। आमतौर पर बच्चों और महिलाओं पर गोली नहीं चलाने का दावा करने वाली गोरी सरकार ने हकरी और सुरमी को तो मारा ही, साथ में एक अज्ञात बच्ची और बच्चे को भी अपनी गोली का निशाना बनाया।
रिकॉर्ड में भी यह दर्ज है कि हकरी और सुरमी अंगेजों के साथ लड़ाई करते हुए मारी गई थीं, लेकिन मुंगेर में अभी भी हकरी और सुरमी की याद में कोई मूर्ति या स्मारक नहीं बन पाया है और न ही कोई सरकारी भवन का नामकरण उनके नाम पर किया गया है।
गोलीकांड में शहीद हुई इन चंद महिलाओं के नाम तो बड़ी मुश्किल से उजागर हुए और रिकॉर्ड में भी आए, लेकिन आजादी के योद्धाओं का मानना है कि ऐसी अनगिनत महिलाएँ रहीं, जो अंग्रेजों के अत्याचार की शिकार तो हुईं, लेकिन उन्होंने अपने नाम की चाहत नहीं की और वे चुपचाप शहीद हो गईं।