श्रीनगर चुनाव : फारुक अब्‍दुल्‍ला की इज्‍जत दांव पर

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हालांकि श्रीनगर-बडगाम संसदीय क्षेत्र से चुनाव मैदान में फारुक अब्दुल्ला उतरे हैं लेकिन देखा जाए तो राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की इज्जत ही इस क्षेत्र में आमने-सामने के मुकाबले में फंसी हुई है।

श्रीनगर-बडगाम संसदीय क्षेत्र की जिस सीट को वे अपनी बपौती समझते रहे हैं और वहां से इस बार डॉ. फारुक अब्दुल्ला तीसरी बार चुनाव मैदान में उतरे हैं। यह उनके लिए प्रतिष्ठा का प्रश्न ही नहीं बल्कि मूंछ की लड़ाई भी बन गई है।

श्रीनगर सीट से इस बार 14 प्रत्याशी मैदान में हैं और फारुक अब्दुल्ला का मुकाबला पीडीपी के तारीक हमीद कारा से सीधा इसलिए है, क्योंकि पिछले दो चुनावों से पीडीपी ही नेकां उम्मीदवार को कड़ी टक्कर देती आई है।

15 विधानसभा क्षेत्रों में फैली यह लोकसभा संसदीय सीट जिसमें 12.03 लाख मतदाता हैं, अभी तक शेख परिवार के सदस्यों को 7 बार संसद में भिजवा चुकी है जबकि अबकी बार शेख परिवार के सदस्य को तीसरी बार संसद में पहुंचने में डॉ. फारुक अब्दुल्ला आप ही कठिनाई इसलिए महसूस कर रहे हैं, क्योंकि पीडीपी का उम्मीदवार उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती हैं। अब देखना यह है कि डॉ. अब्दुल्ला इस सीट से हैटट्रिक बना पाते हैं या नहीं।

याद रहे कि 7 बार श्रीनगर संसदीय क्षेत्र ने शेख परिवार के सदस्यों को संसद में भिजवाया है जिनमें इस बार मैदान में उतरने वाले उमर अब्दुल्ला 3 बार, उनकी दादी बेगम अकबर जहान, अब्बू डॉ. फारुक अब्दुल्ला 2 बार तथा उनके चाचा मट्टू भी शामिल हैं।

असल में डॉ. फारुक अब्दुल्ला घबराहट इसलिए महसूस कर रहे हैं, क्योंकि उनकी चिंता का कारण पीडीपी उम्मीदवार तारीक हमीद कारा हैं जबकि उन्हें डर है कि कांग्रेस काडर गठबंधन के बावजूद धोखा करेगा।

हालांकि 1998 के चुनावों में अंतिम समय में फारुक अब्दुल्ला द्वारा अपने बेटे की जीत के लिए कांग्रेस आलाकमान के आगे अपनी झोली पसारी गई थी और कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार मेहदी को हटाने की घोषणा अंतिम समय में की थी।

अभी तक पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. फारुक अब्दुल्ला जिन कश्मीरी पंडितों के मतों को सहारा समझते रहे हैं वह सहारा भी इस बार छिनता नजर आ रहा है। कश्मीरी पंडितों के नरसंहारों ने वैसे भी विस्थापितों के दिलों में नेकां के प्रति नफरत भरी है और स्थिति यह है कि पूर्व मुख्यमंत्री इस बात की भी दुआ करते हैं कि अगर विस्थापित नेकां के विरुद्ध वोट देने की बजाय मतदान का बहिष्कार करें तो उनकी जीत सुनिश्चित हो सकती है।

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