चीन की एक उल्लेखनीय सामंती कहावत है- किसी के जीवन में अति आनंद के तीन अवसर होते हैं- सम्राट होना, शादी होना और पुत्र-जन्म। वर्तमान समय में सम्राट होना और पुत्र-जन्म सामंतवाद की तरह वैसी प्रासंगिकता खो चुके हैं, जैसी कभी अतीत में हुआ करती थी। लेकिन शादी अपने बदले संदर्भों के बावजूद अभी लगभग उसी प्रासंगिकता और अपने मूलार्थ के साथ बची हुई है।
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प्राचीनकाल में शादी तय होने के साथ-साथ उपहारों का सिलसिला शुरू हो जाता था। ये उपहार अपनी-अपनी हैसियत को दर्शाने के साथ इस कहावत को चरितार्थ करने के लिए दिए जाते थे कि 'बांस के द्वार से बांस के द्वार और लकड़ी के द्वार से लकड़ी के द्वार।' यानी हर प्रकार से रिश्ता बराबर हैसियत वाले घर में रना ही ठीक माना जाता था।
वधू के घर से वर और वर के घर से वधू के घर अनेक उपहारों का आदान-प्रदान होता था। इन्हें बाहरी लोगों के सामने प्रदर्शित करने का भी प्रचलन था। ये परस्पर प्रेम के आदान-प्रदान का भी प्रतीक थे। कुछ उपहारों के तो स्पष्ट प्रतीकार्थ थे, जैसे वधू के घर से वर के घर भेजे जाने वाले पैमाने (स्केल) का अर्थ खूब जमीन, कैंची का मतलब दोनों में तितलियों की तरह परस्पर जुड़ाव और फूलदान का अर्थ प्रेम और सुगंध से परिपूर्ण होने की मंगलाशा था। कई जगहों पर ये धर्म समझकर भी दिए जाते थे।
चीनी शादी के रस्मो-रिवाज को प्राचीन और आधुनिक दो रूपों में विभाजित करके देख सकते हैं। प्राचीनकाल में चीनी और भारतीय वैवाहिक रीति-रिवाजों में काफी साम्य भी देखा जा सकता है।
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भारत की तरह चीन भी एक लंबे इतिहास वाला देश है इसलिए दोनों के सांस्कृतिक रिश्ते भी काफी पुराने हैं। इसके चलते बहुत संभव है कि नेपाल की तरह प्राचीन चीन से भी हमारे वैवाहिक रिश्ते स्वाभाविक तरीके से आम प्रचलन में रहे हों और कालांतर में यवनों, शकों और हूणों के आक्रमण के कारण विवाह का यह प्रवाह बाधित हो गया हो गया हो।
भारत की तरह ही यहां भी सामंती शादियों में बड़े-बूढ़ों की झूठी शान के आगे युवाओं के प्रेम को कोई स्थान नहीं था। वर्तमान में युवाओं के प्रेम की जीत तो हुई है, लेकिन उसे भी कोई सभ्यता अभिशापित करके छोड़ गई है कि वह प्रेम की अटूट लड़ी अब जल्दी-जल्दी टूटने लगी है। बड़े-बड़े शहरों में परित्यक्ताओं (लेफ्ट ओवर वीमेन) की एक बड़ी संख्या देखने को मिल जाती है।
चाइना रेडियो पर 'लेफ्ट ओवर वीमेन' नाम की एक परिचर्चा में इसे एक गंभीर वाइरल समस्या की संज्ञा दी गई थी। लेकिन इस सबके बावजूद एक चीनी स्त्री का कद बहुत बड़ा है। इसी अहसास के कारण उस बहस में सम्मिलित महिलाओं में से किसी ने इस शब्द के प्रयोग को अपना अपमान कहा था। वैसे भी यहां की स्त्री इतनी सशक्त हो चुकी है कि खुद को 'लेफ्ट ओवर वीमेन' कही जाने के बजाय उसमें पुरुष को 'लेफ्ट ओवर मेन' कहकर संबोधित करने की शक्ति आ गई है।
प्राचीनकाल में चीन में शादी से संबंधित तीन पत्रों और छ: आचरणों (रीति-रिवाजों) का विशेष स्थान था। इसमें छ: आवश्यक कार्यक्रम होते थे जिनमें लड़की का हाथ मांगने के लिए भेंट देना और शादी तय करने के लिए भेंट देना आदि शामिल हैं।
पुराने समय में जब कोई लड़का किसी लड़की से शादी करना चाहता तो बिचौलिए को भेजकर लड़की के घर में रिश्ते की बात चलाई जाती थी। इस हेतु बिचौलिए को लड़के और लड़की दोनों के घर वाले उपहार देना नहीं भूलते थे। बिचौलिए को हीन दोनों के बीच सूचनाओं के आदान-प्रदान की जिम्मेदारी लेनी पड़ती थी।
दोनों पक्षों की सहमति के बाद उनके मिलन का आयोजन किया जाता था। लड़के की मां या बहन में से कोई महिला रिश्तेदार लड़की के घर जाकर लड़की की स्थितियों की जानकारियां हासिल करती थीं और लड़की के रिश्तेदार की लड़के की स्थितियां जानने के लिए लड़के के घर जाते थे।
लेकिन प्राचीनकाल में वर-वधू को शादी से पहले मिलने की इजाजत नहीं दी जाती थी। उस समय भारत की भांति यहां भी ज्योतिषियों का बड़ा महत्व था। वे न केवल जन्म कुंडलियां मिलाते थे बल्कि शादी का मुहूर्त भी निकालते थे। उनके द्वारा निश्चित की गई तिथि को ही शादी संपन्न की जाती थी। फिलहाल चीन से तो ये कुंडलियां प्रथा लुप्त हो गई हैं जबकि भारत अब भी उसे छाती-पेटे लपेटे हुए कुंडली मारकर बैठा है। गनीमत है कि पत्रा देख के अंतरिक्ष यान या रॉकेट नहीं छोड़े जाते।
बेशक आधुनिक काल में वैवाहिक रस्मो-रिवाज बहुत कुछ बदला है इसके बावजूद प्राचीनकाल की सारी परंपराओं को सिरे से खारिज भी नहीं किया जा सकता। वे परंपराएं वचनों के मोल जानती थीं। उस समय प्राय: बाल विवाह होते थे। यहां तक कि कभी-कभी जन्म के पहले ही शादियां तय हो जाती थीं। भले ही वे तर्कसंगत नहीं होती थीं।
भले ही वे अनचाही और अस्वाभाविक थीं लेकिन वे टिकाऊ होती थीं। वहां उपहार तो होते थे, पर वे शादियां उन उपहारों का आहार कभी नहीं बनती थीं। वे कभी बिकाऊ भी नहीं होती थीं। अब तो यहां भी पश्चिम का पूरा असर है। यह असर ऐसा जहरीला है कि ये शादियां भी उपहारों का आहार बन रही हैं।
उपहार प्रथा ने करवट लेकर दहेज प्रथा का रूप ले लिया है, परंतु पूर्वोत्तर के असम-अरुणाचल आदि को छोड़कर शेष भारत से यह बिलकुल उलट है। यहां लड़की घर, कार और नकदी पाने के बाद ही वर का घर आबाद करती है यानी प्रेम के ऊपर धन का नाग यहां भी फन फुलाके बैठ चुका है। अब तो यहां शादियों के बनने-बिगड़ने में मां-बाप उद्धारक या निर्धारक नहीं, केवल दर्शक की भूमिका में होते हैं।
आमतौर पर चीन में दहेज-प्रथा तो नहीं है, पर भारतीय लोगों के विपरीत बहुत-सी लड़कियों के परिवार वालों को आशा रहती है कि लड़के के घर वाले शादी के पहले दूल्हा-दुल्हन के लिए एक मकान खरीदें। लड़के को भी ऐसा लगता है कि मकान खरीदना उनके घर की जिम्मेदारी है, क्योंकि यहां का पारिवारिक ढांचा भारतीय लोगों के संयुक्त परिवार की तरह नहीं है। आजकल अधिकतर चीनी लोग विवाह होने के बाद माता-पिता से अलग रहते हैं इसलिए एक अलग मकान की जरूरत होती है। पर यह सबके लिए अनिवार्य रूप से जरूरी नहीं है।
यहां बहुत से ऐसे लोग भी मौजूद हैं जिनके पास मकान, गाड़ी आदि कुछ भी न होने के बावजूद उनका विवाह हुआ। इसे सच्चे प्यार का उदाहरण कहा जा सकता है। यहां कुछ ऐसे भी उदाहरण मिल जाएंगे, जब विवाह होने के बाद पति-पत्नी ने एकसाथ कमाकर और दोनों परिवारों की मदद से मकान खरीदे हैं और प्रेमपूर्ण जीवन बिता रहे हैं।
ऐसे आदर्श उदाहरणों के बावजूद आधुनिक चीन की यह भी एक सच्चाई है कि शादी के रस्मोरिवाज पूरी तरह न सही, पर अधिकांशत: पश्चिमी प्रभाव में आ गए हैं। इनमें जीवन-दर्शन के बजाए भौतिकता का प्रभाव कुछ ज्यादा ही हो गया है।
एक सर्वेक्षण के अनुसार चीन की शहरी शादियां भारत की ही तरह दिनोदिन महंगी होती जा रही है। किसी साधारण से शहर में रहने वाले मध्यमवर्गीय लड़के को भी शादी करने के लिए भारतीय मुद्रा के हिसाब से 25 से 30 लाख रुपयों की जरूरत होती है, लेकिन इसके लिए वे गलत रास्ता कभी नहीं चुनते, बल्कि वे दिन-रात खटते हैं।
यह स्थिति तब है, जब प्राय: सभी शादियां प्रेम-विवाह के साथ-साथ कानूनी हो गई हैं। इस आर्थिक पहलू के कारण भी लड़के-लड़की को शादी से पहले एक-दूसरे के बारे में खूब सारी जानकारी हासिल करने की जरूरत पड़ती है इसलिए वे शादी के पहले एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं।
मेट्रो से लेकर विश्वविद्यालय परिसर तक में खुलेआम प्रगाढ़ आलिंगन और चुम्बन देखकर शुरू-शुरू में मेरी नैतिकता बहुत आहत हुई थी। मेरी आत्मा भी किसी चौपाल पर बैठे चौधरी की तरह खूब बौखलाई थी लेकिन यहां अपने बाल नोचने के अलावा इनका कुछ भी बाल बांका करना अपने वश का नहीं था, सो मुझे कई बार अपने ही बाल नोच के अपनी नैतिकता को संतुष्ट करना पड़ा।
मेरे इस आचरण के ठीक विपरीत यहां के हर माता-पिता का आचरण है इसीलिए यहां की हर किशोरी के माता-पिता को आज यह चिंता नहीं सताती कि वह किसी छोरे से मिल तो नहीं रही है बल्कि यह चिंता रहती है कि उसकी बेटी को कोई ब्वॉयफ्रेंड मिला कि नहीं।
इनकी चिंता आपस में बंटती भी है। हर स्त्री-पुरुष प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अपनी-अपनी बेटी को पहल करने के लिए प्रोत्साहित भी करते रहते हैं। इस दृष्टि से यहां किसी लड़की के जन्म पर लड़के जितनी खुशी भले न हो, पर मुर्दनी नहीं छाती।
एक संतान के कानून ने भी स्त्री के मान को यहां बहुत ऊपर उठाया है। एक संतान के रूप में लड़की के बाद किसी और संतान यानी लड़के के लिए मुंह बाकर जुर्माना भरने से यही अच्छा रहता है कि वह चाहे लड़का हो या लड़की, उसे दिलो-जान से चाहा जाए।
यहां के माता-पिता की बच्चों की शादी, खान-पान, वस्त्र आदि की चिंता तो रहती है, पर वे इन्हें खुद पर नहीं, बच्चों पर छोड़ देते हैं। उनको वस्त्र अपनी इच्छा के नहीं, अपितु उनकी इच्छा के अनुरूप पहनने देते हैं। इतना ही नहीं, यहां के माता-पिता छात्रावासों में रह रही बेटियों (छात्राओं) को खुद ही छोटी-छोटी जांघियां (यद्यपि यह नाम इन अधोवस्त्रों पर लागू नहीं होता, क्योंकि ये जांघों तक पहुंचती ही नहीं, बमुश्किल नितम्ब को ही ढंक पाती हैं) देते हुए मुझ जैसे दकियानूसियों को दिख जाते हैं। भारत में बलात्कारियों के पक्ष में जाने-अनजाने यह अवैज्ञानिक पुरुषवादी जनमत तैयार किया जाता है कि ये अपराध छोटे-छोटे कपड़े पहनने के कारण होते है। मैं भी उन मूढ़ों को यह बताना जरूरी समझता हूं कि इन वस्त्रों के चलते यहां कोई हादसा नहीं होता, जबकि 90 प्रतिशत से अधिक लड़कियां और प्राय: अधेड़ महिलाएं तक इन्हें बिंदास रूप से धारण करती हैं। अपने नैतिकतावादी भारतीयों की तरह पहले मुझे भी इसमें पाप और अनर्थ दिखता था।
यहां के लंबे प्रवास में रहते हुए जब कोई अनर्थ नहीं देखा तो मुझे लगा कि अनर्थ या पाप किसी वस्त्र में नहीं, दृष्टि में होता है। यहां की लड़कियों की बिंदास जीवनशैली के प्रति मैं भी धीरे-धीरे ही उदार हो पाया और अब यह सब मुझे सहज रूप में सहन होने लगा है। यहां की स्त्री जाति का यह खुलापन उनके जीवनसाथी के चयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
स्त्री की इसी क्रांतिकारी चेतना ने मेरी सोच को बदल दिया है। अपनी सोच में बदलाव के मद्देनजर मुझे लगता है कि मेरी ही तरह भारतीय खाप पंचायतों को भी यहां जरूर आना चाहिए। यदि वे खुद न आएं तो भारत सरकार को चाहिए कि इनसे प्रार्थना करके इन्हें सशरीर यहां भेजें। अगर इन पंचायतों के प्रतिनिधियों को सरकारी खर्चे पर भी यहां भेजा जाए तो भी देश का भला ही होगा, क्योंकि इससे इनकी हरारत और शरारत दोनों में काफी तब्दीली आएगी।
प्राचीन चीन में मंगनी और उसके बाद औपचारिक विवाह करने तक बहुत सी जटिल और धूमधामपूर्ण गतिविधियां होती थीं। ये सभी अनिवार्य और महत्वपूर्ण मानी जाती थीं। आज के समय में मंगनी की रस्म का यद्यपि कोई कानूनी महत्व नहीं है फिर भी पारंपरिक महत्व के चलते इसका प्रचलन अब भी है। मंगनी के कार्यक्रम में आमतौर पर लड़के के घर से लड़की के घर उपहार भेजे जाते हैं। अंगूठी से रिश्ता पक्का हो जाता है। ऐसे विश्वास के चलते दक्षिणी चीन के कुछ क्षेत्रों में आज भी अंगूठी के आदान-प्रदान को विशेष महत्व प्राप्त है।
परंपरागत विवाह के काल में केवल मंगनी के बाद से ही लड़का और लड़की परस्पर प्रतिबद्ध और प्रतिबंधित हो जाते हैं। इनमें से कोई इनमें से कोई भी एक-दूसरे को छोड़कर किसी अन्य व्यक्ति के साथ शादी नहीं कर सकता था जबकि आज कानूनी अधिकार के बावजूद काफी संख्या में शादियां तक टूट रही हैं। उस समय मंगनी का कानूनी महत्व भी होता था, जो इस समय अपने नैतिक और कानूनी दोनों मूल्य खो चुकी है।
भारतीय वधू की तरह यहां भी विवाह के दिन वधू आमतौर पर सौभाग्य के प्रतीक लाल कपड़े पहनती रही है और वर भी प्राय: लाल गाउन पहनते रहे हैं। पर, आजकल वधू पश्चिमी शैली का सफेद गाऊन भी पहनती है। पहले वधू द्वारा वर के घर जाने के रास्ते पर रोने की प्रथा थी। इससे अपने घर की याद जाहिर होती थी। अब स्वाभाविक रूप से आंसू आ जाएं, वह अलग बात है अन्यथा शिक्षा के प्रभाव से यह लुप्त हो गई है।
वर-वधू की शादी आमतौर पर वर के घर में आयोजित होती थी न कि भारतीयों की तरह बहू के घर में। आजकल मध्यमवर्गीय परिवारों की शादियां न बहू के घर में होती हैं और न वर के घर में। ये प्राय: महंगे शादी-घरों में ही होती हैं। इस शहरी हालत के विपरीत चीन की कुछ जगहों में जहां पश्चिमी प्रकाश कम पहुंचा है, शादियां पारंपरिक तरीके से भी होती हैं। वहां वधू को आज भी आग की वेदी के ऊपर से उछलकर जाना पड़ता है जिसका मतलब है अशुभ प्रभावों को दूर करना ताकि शादी के बाद दंपति का जीवन सुखमय हो सके।
परंपरागत शादी में वर-वधू आकाश व भूमि यानी भगवान तथा दोनों के माता-पिता की पूजा करते हैं, फिर दूल्हा-दुल्हन आपस में भी सम्मान हेतु परस्पर सिर झुकाते हैं। शादी की शराब पीने के बाद वर-वधू अपने लिए विशेष रूप से तैयार किए गए कमरे में प्रवेश करते हैं। कुछ क्षेत्रों में वर-वधू एक-दूसरे के सिर के कुछ बाल काटकर शादी के स्मरण के लिए सुरक्षित रखते थे, लेकिन यह रिवाज अब देखने-सुनने में नहीं आता है।
यह प्राचीन और आधुनिक दोनों कालों में एक बात समान रूप से देखी जा सकती है, वह है शादी का प्रीतिभोज। तब से लेकर अब तक शादी में सबसे धूमधाम का कार्यक्रम शादी का भोज ही होता आया है। ऐसे मौके पर शराब पीना अनिवार्य और मंगलदायी माना जाता है। भोज में वर-वधू दोनों मिलकर अतिथियों को शराब और सब्जियां पेश करते हैं।
शादी के बाद सुहागरात का बड़ा महत्व होता है। सामान्य परिवारों में वर-वधू के सोने का कमरा विशेष ढंग से सजाया जाता है। समृद्ध परिवार दूल्हे-दुल्हन को 'हनीमून पैकेज' आदि के जरिए बाहर भी भेजते हैं। सुना है कि चीन के कुछ क्षेत्रों में सुहागरात के कमरे में अविवाहित लड़के-लड़कियों द्वारा छिपकर बैठने और वर-वधू की प्रेम-लीला को देखने और सुनने का रिवाज प्राचीनकाल से आज तक चलता आ रहा है। बाद के दिनों में ये लड़के-लड़कियां वर-वधू के साथ तरह-तरह के मजाक करते हैं।
माना जाता है कि यह सब दृश्य बाद में वर-वधू की स्मृति में हमेशा सुरक्षित रखने के उद्देश्य से किया जाता है लेकिन इसके प्रत्यक्षदर्शी या अनुभवी से अभी तक मेरी भेंट नहीं हुई है। संभव है अपने को तेजी से बदलने वाला चीनी समाज स्वयं को इन रूढ़ियों से भी जल्दी ही मुक्त कर ले।