कैलिफोर्निया (अमेरिका)। हम अमेरिका-प्रवासी भारतीयों पर अक्सर यह 'इल्जाम' लगाया जाता है कि चूंकि आप लोग अमेरिका में रहते हैं अत: वहां की हर चीज की प्रशंसा तो करेंगे ही (जैसे वहां की शासन-प्रणाली, चुनाव-पद्धति आदि की) लेकिन जो सच है, शाश्वत है उसे झुठलाया भी तो नहीं जा सकता।
यह अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव का वर्ष है। इस पद के प्राइमरी चुनाव में अमेरिका के 2 सर्वाधिक लोकप्रिय नेता देश की जनता के सामने उभरकर सामने आ जाते हैं। एक रिपब्लिकन पार्टी से और दूसरा डेमोक्रेटिक पार्टी से।
अमेरिका में मात्र ये 2 ही मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल हैं, भारत की तरह 500 से भी ज्यादा दल नहीं। अमेरिका में यदि आपने अपनी (रिपब्लिकन या डेमोक्रेटिक) पार्टी किसी कारणवश छोड़ दी, तो बस छोड़ दी। आप बीच में कहीं भी 'कांग्रेस' शब्द घुसेड़कर अपनी कोई दूसरी पार्टी नहीं बना सकते। आपको चुनाव लड़ना ही है तो फिर निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में ही लड़ें। इसीलिए वहां राष्ट्रपति, राज्यपाल, मेयर, सरपंच आदि सर्वोच्च पदों पर मात्र इन्हीं 2 पार्टियों के ही उम्मीदवार आमने-सामने होते हैं।
कभी-कभी अमेरिका के कोई बेहद लोकप्रिय व्यक्ति (जैसे भारत के अमिताभ बच्चन, डॉ. सुभाष चन्द्रा, सुनील गावस्कर आदि) भी निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में इनके साथ मैदान में आ जाते हैं। अत: यदा-कदा अमेरिका में सर्वोच्च पदों के लिए इन तीनों या बेहद रेयर चारों के बीच भी डीबेट आयोजित होते हैं।
1992 में पूर्व राष्ट्रपति क्लिंटन 3 उम्मीदवारों के बीच चुनाव जीते थे तो बहुत पहले 4 उम्मीदवारों के बीच भी राष्ट्रपति पद के चुनाव जीते गए हैं। कहना न होगा शेष अन्य प्रत्याशी निर्दलीय थे।
तो मैं कह रहा था कि अमेरिका में सर्वोच्च पदों के लिए (फिलहाल हम राष्ट्रपति पद की ही बात करेंगे) इन्हीं दोनों यदा-कदा तीनों और बेहद रेयरली चारों प्रत्याशियों के बीच राष्ट्रपति पद के लिए भिड़ंत होती है। TV पर सारे देश के सामने इनके बीच 3-4 साक्षात कुश्ती (डीबेट) होती है (कम से कम 3 तो होते ही हैं) कि कौन प्रत्याशी देश की मौजूदा समस्याओं का किस तरह से समाधान करेगा।
डीबेट देखकर ही अमेरिकी जनता समझ जाती है कि किस उम्मीदवार में देश चलाने का कितना दम-खम है। फिर इनमें में से कोई एक को अमेरिकी जनता अपने राष्ट्रपति के रूप में चुन लेती है। कहना न होगा संपूर्ण अमेरिकी जनता के बहुमत से चुना हुआ यह व्यक्ति देश का सर्वाधिक लोकप्रिय व्यक्ति भी होता है।
काश! भारत के वास्तविक शासक (जिसे फिलहाल हम 'प्रधानमंत्री' कहते हैं, हो सकता है भविष्य में कभी संविधान-संशोधन के बाद इस पद का नाम बदल जाए) चुनने का भी यही तरीका होता।
हमें नौकरी में आरक्षण चाहिए। इस जरा-सी मांग के लिए करोड़ों की राष्ट्र-संपत्ति फूंकने, सैकड़ों-हजारों की जान गंवाने/ लेने से हम बाज नहीं आते किंतु राष्ट्रहित के लिए एक सही संविधान-संशोधन की, भारत के सबसे लोकप्रिय व्यक्ति (यानी देश के वास्तविक शासक) चुनने की पद्धति की हम कभी मांग नहीं करते।
जैसा कि पहले ही कहा गया है कि अमेरिकी जनता के बहुमत से चुना हुआ व्यक्ति अमेरिका का सर्वाधिक लोकप्रिय व्यक्ति भी होता है इसीलिए वहां चुने 44 में से 1 भी राष्ट्रपति की सरकार आज तक नहीं गिरी जबकि भारत के अधिकांश प्रधानमंत्रियों की सरकारें तथाकथित अशुभ आंकड़ा 13 दिनों से लेकर 13 महीनों में ही गिर-गिर गईं।
भारत में अब तक हुए 16 में से आधे दर्जन प्रधानमंत्रियों (नेहरू, इंदिरा, राजीव, राव, वाजपेयी और डॉ. सिंह) को छोड़कर कोई भी प्रधानमंत्री अपना एक कार्यकाल (5 वर्ष) आज तक पूरा क्यों नहीं कर सका? मात्र इसलिए कि वे संपूर्ण भारत के सर्वाधिक लोकप्रिय व बहुमत प्राप्त नेता नहीं थे। झारखंड में 10 साल में 10 बार सरकारें गिरीं, कुछ-कुछ महीनों के लिए कई मुख्यमंत्री आए-गए। मात्र इसलिए कि वे संपूर्ण झारखंडियों के लोकप्रिय व बहुमत प्राप्त नेता नहीं थे।
26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान तत्कालीन देश की शत-प्रतिशत आवश्यकता के अनुरूप/उपयुक्त रहा होगा, लेकिन इन कोई 70 वर्षों में देश में आमूल-चूल परिवर्तन हो चुके हैं। 26 जनवरी 1950 को तो एक अनपढ़ विधायक-सांसद की कल्पना की जा सकती थी (क्योंकि तब देश का एक बहुत बड़ा तबका साक्षर नहीं था) किंतु आज भी देश में कुछ ऐसे विधायक, सांसद, मंत्री, उपमुख्यमंत्री हैं, जो स्वयं पढ़कर भी अपने पद की ठीक से शपथ नहीं ले सकते। प्रत्यक्षं किम प्रमाणम्। कुछ तो ऐसे हैं जिनके लिए कोई और पढ़ता है और वे (बेहद गलती करते हुए) उसे दोहराते हैं और वहां उपस्थित सारे लोग ठहाके लगा रहे होते हैं। यह दुखद दृश्य आप यू-ट्यूब पर भी जाकर देख सकते हैं। ये हंसने वाले उन अनपढ़ों पर नहीं, भारतीय संविधान पर हंस रहे होते हैं, जो हम शत-प्रतिशत भारतीयों के लिए घोर अपमानजनक और शर्मनाक बात है।
हमारे देश और इसके राज्यों की शासन की बागडोर जिनके हाथों में जाती है उनकी शिक्षा के संबंध में भारतीय संविधान मौन है। समय की मांग के अनुसार हर देश के संविधान में संशोधन होते रहते हैं। क्या हम अपने संविधान में अब यह संशोधन नहीं कर सकते कि हमारे विधायक-सांसद कम से कम 12वीं पास हों और मंत्री, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री की शैक्षणिक योग्यता कम-से-कम ग्रेजुएट हो। खुदा का शुक्र है कि हमारे सभी तो नहीं, लेकिन अधिकांश प्रधानमंत्री उच्च शिक्षा प्राप्त थे।
अमेरिका में सरपंच (जिसे वहां सुपरवाइजर कहते हैं) से लेकर राष्ट्रपति तक के चुनाव में प्रत्याशियों के मध्य जनता के सामने डीबेट (बहस, वाद-विवाद) होना अनिवार्य होता है। इस डीबेट में यह स्पष्ट हो जाता है कि कौन प्रत्याशी अपने गांव, शहर, राज्य या देश के लिए कितना जुझारू है, इनके लिए क्या कर सकता है और कौन प्रत्याशी वास्तव में सरपंच, महापौर (मेयर), राज्यपाल और राष्ट्रपति के बनने लायक है।
वैसे लाखों-करोड़ों जनता की साक्षात भीड़ में डीबेट का आयोजन असंभव होता है, जहां माइक के लिए छीना-झपटी भी हो सकती है अत: अमेरिका में सभी डीबेट किसी शहर के बड़े हाल में आयोजित किए जाते हैं। इन हालों में पहले से तय श्रमजीवी से लेकर बुद्धिजीवी वर्ग तक के लोग (जिनमें श्रमिक, किसान, विद्यार्थी, शिक्षाविद, प्रोफेसर व कुलपति, उद्योगपति, वैज्ञानिक, फिल्म स्टार्स, लोकप्रिय कलाकार व निर्देशक तथा समलैंगिक-प्रेमी आदि भी) शामिल होते हैं।
प्रसंगवश यहां यह बता देना चाहिए कि कोई भी समलैंगिक विरोधी उम्मीदवार अमेरिका का राष्ट्रपति कभी नहीं बन सकता और न ही किसी अन्य पद के लिए चुनाव जीत सकता। अमेरिका में 25% से ज्यादा लोग समलैंगिक प्रेमी हैं। कैलिफोर्निया के सैन फ्रांसिस्को शहर में तो 40%। ये सभी लोग चुनाव में खड़े उम्मीदवारों से अपने द्वारा पूछे जाने वाले प्रश्न भी पहले से ही तैयार रखते हैं।
ये डीबेट एक तरह से चुनाव में खड़े प्रत्याशियों के (मतदाताओं द्वारा लाइव इंटरव्यू ही होते हैं जिसे सारा अमेरिका भी TV पर ध्यानमग्न होकर देखता है और किस प्रत्याशी को वोट देना चाहिए, किसमें देश चलाने का दमखम है) यह तय कर लेता है। अमेरिका में चुनाव-प्रचार के पलड़े से डीबेट का पलड़ा भारी होता है। वहां प्रत्याशी यदि अपने प्रतिद्वंदी/यों से डीबेट हार जाता है तो वह (ज्यादातर) चुनाव भी हार जाता है।
काश! भारत में 2019 के चुनाव में प्रधानमंत्री बनने के प्रबल इच्छुक (जैसे उदाहरणस्वरूप) राहुल गांधी, अरविंद केजरीवाल, नीतीश कुमार और नरेन्द्र मोदी के बीच भी TV पर भारत की जनता के सामने 3-4 डीबेट के आयोजन हों और वे चारों जनता के सामने साक्षात-शाश्वत अपना दमखम साबित करें।
सच्चाई तो यह है कि डीबेट देखते-सुनते समय आम जनता यह भूल जाती है कि कौन प्रत्याशी किस पार्टी का उम्मीदवार है। आम मतदाता तो सिर्फ यह देखता और तय करता है कि कौन प्रत्याशी देश का भला कर सकता है।
काश! इस अच्छी (यानी चुनाओं पूर्व डीबेट की) प्रथा की भारत में भी शुरुआत हो जाती।