कविता : चुप ही रहते हैं अक्सर

शोर में रहकर भी आज हम चुप्पी साधे हैं
चुप ही रहते हैं अक्सर समाचारों में क्या रखा
रोज की वही झिकझिक फिर कोई नया कांड
नेताओं के चमचे ले झंडे खड़े हो जाते चौराहे !
 
आज किसी किसान ने कर ली आत्महत्या
किसी बेटी की अस्मिता लूटी गई सामूहिक
दाह संस्कार किया गया चुपचाप फिर शोर कैसा
प्रवासी मजदूर प्रवासी हैं हक़ क्या है उनका !
 
नेताओं को अपने हक़ की लड़ाई है लड़नी
अफसरों के हक़ भी मार लिए जाते हैं
सड़कों पर भूखा मीडिया मुंह फाड़े खड़ा
घर में ही अभी सुरक्षित हैं सारे वायरसों से !
 
घुटन फ़ैल रही है भय निराशा की मानस मन में
नभ को निहारने भर से क्या चांद-तारे मिल जाएंगे
सत्य, अहिंसा के उपदेश क्या खोखले विचार हैं
परास्त समाज नारी विरुद्ध हिंसा रोकने में नाकाम !
 
किनारे खड़े हो सीमाएं तोड़ने की बात करते हैं
किस्मत को दोष दे, बेबात बेबाक पीछे हटते हैं
भय का पलड़ा ताकत पर भारी जिसे गलत आंकते
अंधकार में निशाना साध कौन काबिल बना है !
 
अथक प्रयासों से ही क्या हर जीत निश्चित है
जीत गए तो ज़ाम और हार गए तो भी ज़ाम
खुशियां जो हासिल हो जाती, होती क्षणभंगुर
नदी झरने का उफान ले भूल जाती बहने की गरिमा !
 
प्रशंसाओं के दौर में परिपक्त बन गए हैं कितने
नई तकनीकी की वायरल मिथ्या से झूठ सच में बदलता
चुप्पी साधे गवाह बन सुरक्षित हैं, हलचल दिमाग में
हचचल क्यों है, क्या चुप्पी और मौन व्रत में फर्क हैं भूले !

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