प्रवासी कविता : टूटा शीशा

- डॉ. सुभाष शर्मा
 

 
जगह घर में करो अक्सर यह झक-झक रोज होती है
कभी साइकल पे होती है, कभी मिक्सी पे होती है
कभी दीवार पर ऊंची टंगी‍ पिक्चर पे होती है
फेंक दूं तब भी होती है रखूं गर तब भी होती है
मेर घर में जगह कम है यह चक-चक रोज होती है
जगह घर में करो अक्सर यह झक-झक रोज होती है।
 
लगाओ सेल तुम गैराज में वो रोज कहते हैं
नहीं करता मेरा जी हम बहाने खूब करते हैं
वो हमको ब्लेम करते हैं हम उनको ब्लेम करते हैं
बस इसी बात पर बच्चों से अक्सर हम झगड़ते हैं। 
 
कभी मैं सोचता हूं यह घड़ी कितनी पुरानी है
यह मेरी सास ने दी थी यह उनकी ही निशानी है
मगर बच्चे समझते हैं कि यह तो बस कहानी है
एक ना एक दिन तो यह घड़ी कूड़े में जानी है।
 
बात जब-जब भी चीजें बेचने की ‍दिल में आती है
कोई ना कोई यादें उनके संग में जुड़ ही जाती हैं
इसे कैसे भला मैं बेच दूं अगले सेटरडे को
मुझे दशकों पुरानी बातें दिल में याद आती हैं।
 
पड़ा है पैक मोबाइल जो बेटे ने दिया मुझको
सोचता पैसे सीधे हों अगर मैं बेच दूं इसको
मगर फिर सोचता क्यों दर्द दूं बेबात ही उसको
कहेगा यूज कर सकते नहीं तो फेंक दो इसको। 
 
बेचने की फिकर में हूं मगर ग्राहक नहीं मिलते
पुराने पैक्ड गैजेट अब बाजारों में नहीं बिकते
पुराना कह के उसको फेंक दें हम कर नहीं सकते
नया बिलकुल है डब्बे में पुराना कह नहीं सकते।
 
पड़ा बक्से के कोने में मुझे उसकी जरूरत है
दिया था दादी ने शीशा वो कितना खूबसूरत है
चटक-सा तो गया लेकिन अभी सूरत भी दिखती है
मैं जब भी देखता उसमें तो दादी अब भी दिखती है।
 
बहाने तो बनाता हूं बात बिलकुल है ये सच्च‍ी
चीज घर में रखो बस वो, जो सच में लगे अच्छी। 
मगर यह फैसला बोले भला दूं हाथ में किसके
कौन-सी ‍चीज है बेकार और है कौन-सी अच्छी।
 
बहाने मैं बनाता हूं बात मैं मानता सच्ची
मगर ई बे के इस युग में सुनेगा कौन अब दिल की
बेच डालो ये मेड इन चायना किसको फिकर इसकी
वो मोबाइल बिके या न बिके हो फिक्र क्यों उसकी
 
हो गया है सुलहनामा और मैंने मान ली सबकी
सेल गैराज में होगी सेटरडे आने दो अबकी
मगर दिल में मेरे दहशत लगी रहती है बस इसकी
कि टूटा हुआ शीशा बिक जाएगा गारंटी मुझे उसकी। 
साभार- गर्भनाल 

 
 

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