जाग्रत करें स्वयं का विवेक: ओशो

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एक दिन मैं सुबह-सुबह उठकर बैठा ही था कि कुछ लोग आ गए। उन्होंने मुझसे कहा- 'आपके संबंध में कुछ व्यक्ति आलोचना करते हैं। कोई कहता है कि आप नास्तिक हैं। कोई कहता है अधार्मिक। आप इन सब व्यर्थ बातों का उत्तर क्यों नहीं देते?' मैंने कहा 'जो व्यर्थ बात है, उसका उत्तर देने का सवाल ही कहाँ है? क्या उत्तर देने योग्य मानकर हम स्वयं ही उसे सार्थक नहीं मान लेते हैं?'

यह सुनकर उनमें से एक ने कहा 'लेकिन लोक में गलत बात चलने देना भी ठीक नहीं।' मैंने कहा 'ठीक कहते हैं, लेकिन जिन्हें आलोचना ही करना है, निंदा करना है, उन्हें रोकना भी संभव नहीं हुआ है। वे बड़े आविष्कारक होते हैं और सदा ही नए मार्ग निकाल लेते हैं। इस संबंध में मैं आपको कथा सुनाता हूँ।' और जो कथा मैंने उनसे कही, वही मैं आपसे भी कहता हूँ।

पूर्णिमा की रात्रि थी शुभ्र ज्योत्सना में सारी पृथ्वी डूबी हुई थी। शंकर और पार्वती भी अपने प्यारे नंदी पर सवार होकर भ्रमण पर निकले हुए थे किंतु वे जैसे ही थोड़े आगे गए थे कुछ लोग उन्हें मार्ग में मिले। उन्हें नंदी पर बैठे देखकर उन लोगों ने कहा 'देखो तो इनके बैल में जान में जान नहीं है और दो-दो उस पर चढ़कर बैठे हैं।'

उनकी बात सुनकर पार्वती नीचे उतर गईं और पैदल चलने लगीं किंतु थोड़ी दूर चलने के बाद फिर कुछ लोग मिले। वे बोले 'अरे मजा तो देखो सुकुमार अबला को पैदल चलाकर यह कौन बैल पर बैठा जा रहा है भाई! बेशर्मी की भी हद है!' यह सुनकर शंकर नीचे उतर आए और पार्वती को नंदी पर बैठा दिया, लेकिन कुछ ही कदम गए होंगे कि फिर कुछ लोगों ने कहा 'कैसी बेहया औरत है कि पति को पैदल चलाकर खुद बैल पर बैठी है। मित्रों कलयुग आ गया है।'

ऐसी स्थि‍ति देखकर आखिर दोनों ही नंदी के साथ पैदल चलने लगे किंतु थोड़ी ही दूर न जा पाए होंगे कि लोगों ने कहा 'देखो मूर्खों को। इतना तगड़ा बैल साथ में है और ये पैदल चल रहे हैं।' अब तो बड़ी कठिनाई हो गई। शंकर और पार्वती को कुछ भी करने को शेष न रहा।

नंदी को एक वृक्ष के नीचे रोककर वे विचार करने लगे। अब तक नंदी चुप था। अब हँसा और बोला 'एक रास्ता है, मैं बताऊँ? अब आप दोनों मुझे अपने सिरों पर उठा लीजिए।' यह सुनते ही शंकर और पार्वती को होश आया और दोनों नंदी पर सवार हो गए। लोग फिर भी कुछ न कुछ कहते निकलते रहे।

असल में लोग बिना कुछ कहे निकल भी कैसे सकते हैं? अब शंकर और पार्वती चाँदनी की सैर का आनंद लूट रहे थे और भूल गए थे कि मार्ग पर अन्य लोग भी निकल रहे हैं।

जीवन में यदि कहीं पहुँचना हो तो राह में मिलने वाले प्रत्येक व्यक्ति की बात पर ध्यान देना आत्मघातक है। वस्तुत: जिस व्यक्ति की सलाह का कोई मू्ल्य है, वह कभी बिना माँगे सलाह देता ही नहीं है। और यह भी ‍स्मरण रहे कि जो स्वयं के विवेक से नहीं चलता है, उसकी गति हवा के झोकों में उड़ते सूखे पत्तों की भाँति हो जाती है।

साभार : मिट्टी के दीये
सौजन्य : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन

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