पूर्व जन्म की साधना

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सात सौ वर्ष पहले, अपने पूर्व जन्म में मैं मृत्यु से पूर्व इक्कीस दिन के उपवास की साधना कर रहा था। पूरे इक्कीस दिन के उपवास की साधना कर रहा था। पूरे इक्कीस दिन के उपवास के बाद मुझे शरीर छोड़ना था। इसके पीछे कुछ कारण थे, लेकिन मैं इक्कीस दिन पूरे नहीं कर सका। तीन दिन बच गए। वे तीन दिन इस जीवन में पूरे करने पड़े। यह जीवन उसी जीवन के क्रम में है।

दोनों जन्मों के बीच का जो समय है, उसका इस संदर्भ में कोई अर्थ नहीं है। उस जन्म में जब केवल तीन ही दिन बचे तो मेरी हत्या हो गई। इक्कीस दिन पूरे नहीं हो सके क्योंकि तीन दिन पहले ही मेरी हत्या हो गई, और वे तीन दिन बचे रह गए।

इस जन्म में वे तीन दिन पूरे हुए। यदि उस जन्म में वे इक्कीस दिन पूरे हो जाते तो शायद एक से अधिक जन्म ले पाना संभव न होता। वह जो हत्या थी, वह मू्ल्यवान हो गई। मृत्यु के समय वे तीन दिन बच गए थे। इस जन्म में बुद्धत्व के लिए अथक प्रयास करने के बाद मुझे इक्कीस वर्ष में वह उपलब्ध हुआ जो उन ‍तीन दिनों में संभव था।

उस जन्म के तीन दिनों के बदले मुझे एक-एक दिन के लिए सात-सात वर्ष बिताने पड़े। इसीलिए मैं कहता हूँ कि अपने पूर्व जन्म से मैं पूर्ण ज्ञान लेकर नहीं आया था। मैं कहता हूँ कि मैं 'लगभग' पूर्ण ज्ञान लेकर आया था। पर्दा तब भी हट जाता, लेकिन तब मैं केवल एक ही और ही जन्म ले पाता।

अब मैं एक जन्म और ले सकता हूँ। अब एक और जन्म की संभावना है। ले‍किन यह इस पर निर्भर करता है कि मुझे उसका कोई उपयोग नजर आता है या नहीं। इस पूरे जीवन में मैं ये देखूँगा ‍कि एक और जन्म का कोई उपयोग है या नहीं। यदि एक और जन्म लेने जैसा लगा तो ठीक है, वरना काम पूरा हुआ और अब आगे किसी प्रयास की जरूरत नहीं है। तो वह हत्या और मूल्यवान हो गई।

जैसा मैंने तुम्हें बताया है, शरीर में रहते हुए समय की जो माप है वह चेतना की अन्य अवस्थाओं के समय से भिन्न होती है। जन्म के समय, समय बहुत धीरे-धीरे चलता है। मृत्यु के समय, समय बहुत तेजी से चलता है। हम समय की ग‍‍‍ति को नहीं समझते हैं क्यों‍कि हमारी समझ में समय की कोई गति नहीं है। हम तो बस यही समझते हैं कि सारी चीजें समय में चलती हैं।

बच्चे के लिए समय की गति बहुत धीमी होती है, लेकिन एक वृद्ध व्यक्ति के लिए बहुत तेज होती है और सघन होती है। बूढ़े लोगों के लिए समय छोटे से विस्तार में बहुत तेजी से चलता है, जबकि बच्चों के लिए एक लंबे विस्तार में बहुत तेजी से चलता है, जबकि बच्चों के लिए एक लंबे विस्तार में बहुत धीरे-धीरे चलता है।

अपने पिछले जन्म के अंतिम क्षणों में, बाकी का काम तीन दिन में पूरा हो जाता क्योंकि समय बहुत सघन था। मेरी उम्र एक सौ छह वर्ष थी। समय बहुत तेज चल रहा था। उन तीन दिनों की कहानी मेरे इस जन्म के बचपन में जारी रही। मेरे पूर्व जन्म में यात्रा अपने अंत पर थी, लेकिन इस जन्म में उस काम को पूरा करने के लिए इक्कीस वर्ष लगे।

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सात वर्ष की आयु में मृत्यु का पहला अनुभव :
11 दिसंबर 1931 को जब मध्यप्रदेश के कुचवाड़ा गाँव (रायसेन जिला) में ओशो का जन्म हुआ तो कहते हैं कि पहले तीन दिन न वे रोए, न दूध ‍पिया- जैसे कि सात सौ वर्ष पूर्व का इक्कीस दिवसीय उपवास पूरा कर रहे हों। उनकी नानी ने एक प्रसिद्ध ज्योतिषी से ओशो की कुंडली बनवाई, जो अपने आप में काफी अद्‍भुत थी।

ज्योतिषी को मेरी कुंडली बनानी थी। कुंडली पढ़ने के बाद वह बोला, यदि यह बच्चा सात वर्ष जिंदा रह जाता है, उसके बाद ही मैं इसकी कुंडली बनाऊँगा- क्योंक‍ि इसके लिए सात वर्ष से अधिक जीवित रहना असंभव ही लगता है, इसलिए कुंडली बनाना बेकार ही है।'

तब से पूरा परिवार उनकी मृत्यु की संभावना से चिंतित रहने लगा। मेरा बचपन मेरे नाना-नानी के घर बीता और उनसे मैं बहुत प्रेम करता था। मेरी माँ उनकी एकमात्र संतान थीं। वे लोग बहुत अकेले अनुभव कर रहे थे, इसलिए मेरा पालन-पोषण करना चाहते थे। इसलिए सात वर्ष की उम्र तक मैं उनके साथ रहा। उन्हें ही मैंने अपने माता-पिता की तरह माना।

वे लोग समृद्ध थे और उनके पास हर सुविधा थी। मेरा पालन-पोषण एक राजकुमार की तरह हुआ। मैं अपने नाना से बहुत प्रेम करता था और मेरे नाना मुझे इतना प्रेम करते थे कि अपने जीते जी उन्होंने कभी मुझे अपने माता-पिता के पास नहीं जाने दिया। वे कहते, 'मेरे मरने के बाद ही तुम जा सकते हो।'

ओशो के नाना-नानी उन्हें प्रेम से राजा कहकर पुकारते थे, और दुलार के इस नाम के अनुसार ही उनका पालन-पोषण हुआ- राजकुमारों की तरह स्वतंत्र, निर्भीक और समृद्ध। सात वर्ष करीब आते-आते सब नजरें ओशो पर लग गईं - कुंडली के गलत सिद्ध होने की आशा में। ओशो की मृत्यु नहीं हुई लेकिन एक ऐसी घटना घटी कि ज्योतिषी की चेतावनी एक प्रकार से सही सिद्ध हो गई।

सात वर्ष की उम्र में मैं बच गया लेकिन मृत्यु का एक गहरा अनुभव मुझे हुआ। अपनी मृत्यु का तो नहीं, लेकिन अपने नाना की मृत्यु का। और उनसे मैं इतना जुड़ा हुआ था कि उनकी मृत्यु मुझे अपनी मृ्त्यु की तरह लगी।

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मृत्यु के पहले दौर में मेरे नाना की आवाज चली गई। चौबीस घंटे तक हम गाँव में ही इंतजार करते रहे कि कुछ हो जाए। लेकिन, कोई भी उनमें सुधार नहीं हुआ। मुझे याद है, किस तरह वे कुछ कहने के लिए क‍ोशिश कर रहे थे लेकिन बोल नहीं पा रहे थे। वे कुछ कहना चाहते थे लेकिन कह नहीं सके।

इसलिए हम बैलगाड़ी में लेकर उन्हें शहर की ओर चल पड़े। एक-एक करके उनकी सारी इंद्रियाँ बंद हो रही थीं। वे एकदम से नहीं मरे, बल्कि धीरे-धीरे और पीड़ा से भरकर। पहले उनकी आवाज बंद हुई, फिर सुनना बंद हो गया। फिर उन्होंने अपनी आँखें भी बंद कर लीं। बैलगाड़ी में मैं सब कुछ बड़े ध्यान से देख रहा था और बत्तीस साल की यात्रा थी।

जो कुछ भी हो रहा था, उस समय मुझे अपनी समझ के बाहर लगा। यह मेरे सामने हो रही पहली मृत्यु थी और मुझे इतनी भी समझ नहीं थी कि वे मर रहे हैं। लेकिन धीरे-धीरे उनकी सभी इंद्रियाँ बंद हो गईं और वे बेहोश हो गए। जब तक हम शहर पहुँचे वे आधे मर चुके थे। उनकी साँस चलती रही, लेकिन बाकी सब खो चुका था। इसके बाद वे होश में नहीं आए, लेकिन तीन दिन तक साँस लेते रहे। वे बेहोश ही मरे।

इस तरह धीरे-धीरे इंद्रियों का बंद होना और उनका मर जाना मेरी स्मृति पर गहरे अंकित हो गया। उन्हीं के साथ मेरा सबसे गहरा संबंध था। वे मेरा ही एक हिस्सा थे। मैं उनकी मौजूदगी में, उनके प्रेम में ही बड़ा हुआ। जब वे मरे तो मैंने भी उसका अनुभव किया। अब तो मैं खाना भी बड़ी मुश्किल से खा पाता था। अब मैं जीना नहीं चाहता था। वह बचकानी बात थी, लेकिन उससे एक बहुत गहरी घटना घटी। तीन दिन तक मैं लेटा रहा, बिस्तर से भी नहीं उठा। मैंने कहा, यदि वे मर गए हैं तो मैं भी जीना नहीं चाहता।'

सात वर्ष की उम्र से फिर अकेलेपन ने मुझे पकड़ लिया। अकेलापन मेरा स्वभाव हो गया। उनकी मृत्यु ने हमेशा-हमेशा के लिए सब संबंधों से मुक्त कर दिया। उनकी मृत्यु मेरे लिए सब आसक्तियों की मृत्यु बन गई। इसीलिए इसके बाद मैं किसी से भी रिश्ते-नाते का कोई बंधन नहीं बना सका। जब भी किसी के साथ मेरा संबंध ‍घनिष्ठ होने लगता तो वह मृत्यु मेरी ओर घूरने लगती।

इसलिए, जिनसे भी थोड़ी-बहुत मेरी आसक्ति बनी, मुझे लगा कि आज नहीं कल यह व्यक्ति भी मर सकता है। मेरे लिए प्रेम अनिवार्य रूप से मृत्यु के साथ जुड़ गया। इसका अर्थ हुआ कि मृत्यु के प्रति जागे बिना मैं प्रेम करने में असमर्थ था। दोस्ती होती थी, करुणा जगती थी, लेकिन‍ फिर कोई भी बंधन मुझे बाँध नहीं सका। इस तरह जीवन की विक्षिप्तता ने मुझे प्रभावित नहीं किया। इससे पहले कि जीवन की दौड़ शुरू होती, मृत्यु ने मुझे घूरना शुरू कर दिया।

मेरे जीवन के पहले कदम में ही यह संभावना समाप्त हो गई कि कोई और मेरे जीवन का केंद्र बन जाए। पहला जो केंद्र बना था वह टूट गया, और कहा जाए तो, मैं अपने स्वरूप पर फेंक दिया गया।

बाद में मुझे लगा कि इतनी कच्ची उम्र में इतने करीब से मृत्यु को देखना मेरे लिए एक छिपा हुआ वरदान बन गया। यदि ऐसी मृत्यु कभी बाद में हुई तो शायद मैं अपने नाना का कोई और विकल्प खोज लेता। यदि मैं किसी और में उत्सुक हो जाता तो अपनी ओर यात्रा करने के अवसर से चूक जाता। मैं दूसरों के लिए एक अजनबी सा हो गया। साधारणत: इसी उम्र में हम दूसरों के साथ जुड़ते हैं, समाज में प्रवेश करते हैं। इसी उम्र में हम उस समाज के अंग बनते हैं जो हमें आत्मसात कर लेना चाहता है। लेकिन मैं कभी भी समाज का हिस्सा नहीं बना। समाज में मैं एक व्यक्ति की तरह घुसा, लेकिन एक द्वीप की तरह अलग-थलग बना रहा।

ग्लिम्प्सेज ऑफ गोल्डन चाइल्डहु
साभार : ओशो टाइम्स फरवरी 1998