ऐसा नहीं कि कुछ लोग विक्षिप्त हैं, बल्कि पूरी मनुष्यता ही विक्षिप्त है। कुछ लोगों का ही उपचार करने भर का सवाल नहीं है, पूरी मनुष्यता का उपचार किया जाना जरूरी है।
मनुष्य को इतना दबाया जाता है, इतना संस्कारित किया जाता है कि विक्षिप्तता उसकी साधारण स्थिति बन गई है। जैसा वह है उसे वैसा ही नहीं रहने दिया जाता। उसे समाज के ढाँचे में ढालने की कोशिश की जाती है। उस ढाँचे से ही विक्षिप्तता पैदा होती है।
समाज तुम्हें एक ढाँचा देता है, एक ढर्रा देता है। तुम जो नहीं हो वह तुम्हें बनना पड़ता है। तुम्हारे व्यक्तित्व का केवल एक अंश ही अभिव्यक्त होने दिया जाता है, जबकि बाकी का हिस्सा दबा दिया जाता है। इससे तुम्हारे भीतर चीखें बिखरने लगती हैं, टूटने लगती हैं। और जो कुछ तुम दबाते हो, वह अभिव्यक्त होने के लिए संघर्ष करता है।
तो हर मनुष्य टुकड़ों में बँटा हुआ है, टूटा हुआ है, अपने ही खिलाफ लड़ रहा है। मनुष्य का होना ही विक्षिप्तता बन गया है। वह विश्रांत नहीं हो सकता, शांत नहीं हो सकता, आनंदित नहीं हो सकता। मनुष्य हमेशा नरक में ही है; और जब तक उसके सब खंड एक न हो जाएँ, तब तक वह इस नरक से नहीं निकल सकता।
कुछ करना पड़ेगा जिससे तुम्हारी विक्षिप्तता को बाहर निकाला जा सके, तुम्हारे बिखरे हुए खंडों को फिर से एक किया जा सके। जो अभिव्यक्त नहीं किया गया उसे अभिव्यक्त करना होगा, और चेतन मन द्वारा अचेतन का जो लगातार दमन चल रहा है वह रोकना होगा। ध्यान की पुरानी विधियाँ इस बात की फिकर नहीं लेतीं, इसीलिए वे विधियाँ सफल नहीं हो पाईं। कारण क्या होगा उनकी असफलता का? कारण यह है कि वे विधियाँ मनुष्य को उसी स्थिति में ध्यान में ले जाना चाहती हैं जैसा कि वह है।
ये विधियाँ कुछ हद तक ही उपयोग हो सकती हैं : केवल परिधि पर ही उनका प्रभाव होगा, लेकिन भीतर का जो विभाजन है, वह तो बना ही रहेगा, क्योंकि उसको मिटाने के लिए तुमने कुछ भी नहीं किया।
जैसे झेन विधियाँ हैं, महेश योगी का भावातीत ध्यान है, और दूसरी कई विधियाँ हैं जो तुम्हें एक सीमा तक ले जा सकती हैं। वे तुम्हें थोड़ी शांति दे सकती हैं; बाहर से तुम शांत हो जाओगे, लेकिन अगर देखा जाए तो बाहर की शांति खतरनाक है, क्योंकि फिर भीतर ही भीतर अशांति पकती रहेगी और एक दिन फूटकर बाहर आ जाएगी। मूलतः तो कुछ हुआ ही नहीं। तुमने बस अपने चेतन मन को स्थिर होने में पारंगत कर लिया।
मन को स्थिर तो बड़ी आसानी से किया जा सकता है- कोई मंत्र पढ़ने लगो, जाप करने लगो। जिस किसी चीज से भी भीतर बोरडम पैदा हो जाए, उससे तुम्हें थोड़ी राहत-सी महसूस होगी। उदाहरण के लिए, तुम अगर राम-राम-राम जपते रहो तो उसके सतत दोहराने से ही एक ऊब, एक नींद पैदा होने लगती है और तुम्हारा मन सो जाता है।
उस नींद को तुम शांति समझ सकते हो, स्थिरता समझ सकते हो। वास्तव में यह एक तरह की ऊब है, लेकिन उसकी वजह से अब तुम अपने जीवन को किसी तरह सह लेते हो और पागलपन भीतर ही भीतर उबलता रहेगा। किसी दिन जब पागलपन सीमा के बाहर हो जाएगा तो फूटकर बाहर आ जाएगा।
इसीलिए तो मेरा जोर इस बात पर है कि पहले तुम अपने भीतर के विभाजन को मिटाओ, भीतर से अखंड बनो। जब तक तुम अखंड न हो जाओ तब तक कुछ नहीं किया जा सकता। तो पहली बात तो तुम्हारी विक्षिप्तता को मिटाने की है।
सक्रिय ध्यान की मेरी विधि तुम्हारी विक्षिप्तता को स्वीकार करती है और उसे एक रिलीज देती है। यह विधि मूलतः रेचन से, केथार्सिस से शुरू होती है। भीतर जो कुछ भी छिपा है उसे निकालना जरूरी है। तुम्हें चीजों को दबाना बंद करना पड़ेगा। अपने भावों को अभिव्यक्त करना शुरू करो। अपनी निंदा मत करो। जैसे हो, वैसे ही अपने को स्वीकार करो, क्योंकि निंदा तो विभाजन खड़ा करती है। जैसे ही तुम स्वयं को स्वीकार करते हो तुम टुकड़ों में नहीं बँटते, तुम अखंड होने लगते हो।
जब तुम भीतर से टूटे और बिखरे होते हो तो तुम्हारी ऊर्जा की स्वयं से भी लड़ाई चलती रहती है। फिर तुम्हारी ऊर्जा का उपयोग किसी रूपांतरण के लिए नहीं किया जा सकता। तो जो तुम हो, उसका स्वीकार करो। जो भी कुछ तुमने अब तक दबाया है उसे मुक्त करो। और अगर सचेत रूप से तुम अपनी विक्षिप्तता को बाहर निकालो तो एक दिन तुम ऐसे बिंदु पर पहुँच जाओगे जहाँ भीतर कोई विक्षिप्तता नहीं बचेगी।
जो लोग अपनी विक्षिप्तता को दबाते हैं वे और-और विक्षिप्त होते चले जाते हैं, और जो उसे अभिव्यक्त करते हैं वे उससे मुक्त हो जाते हैं। तो जब तक तुम सजग रूप से विक्षिप्त न हो जाओ तब तक तुम विक्षिप्तता से मुक्त नहीं हो सकते। आर.डी. लैंग ने ठीक ही कहा है कि 'स्वयं' को विक्षिप्त होने का मौका दो।
तुम विक्षिप्त हो, सो उसके बाबत कुछ किया जाना जरूरी है। पुरानी परंपराएँ कहती हैं अपनी विक्षिप्तता को दबाओ, उसे बाहर मत आने दो, नहीं तो तुम्हारे हर कृत्य में विक्षिप्तता झलकने लगेगी। लेकिन मैं कहता हूँ, अपनी विक्षिप्तता को बाहर आने का पूरा मौका दो, उसके प्रति सजग होओ। विक्षिप्तता के पार जाने का यही उपाय है।
मुक्त करो अपनी विक्षिप्तता को। भीतर तो वह विषाक्त हो जाएगी। बाहर फेंको उसे; अपनी व्यवस्था से पूरी तरह निकाल दो। लेकिन विक्षिप्तता को बाहर निकालने का, बाहर फेंकने का यह काम बड़ी सजग व्यवस्था से करना पड़ेगा, तभी उसका कुछ परिणाम होगा।
तुम्हें दो चीजें करनी हैं : जो भी कुछ तुम कर रहे हो, उसके प्रति सजग रहो और कुछ भी दबाओ मत। हमारे मन में सजग होने का अर्थ आमतौर पर दबाना होता है। यही समस्या है। जिस क्षण तुम अपने भीतर किसी चीज के प्रति सजग होते हो, उसी क्षण तुम उसे दबाने लगते हो। तो तुम्हें सीखना यह है कि सजग भी रहो और अपने भावों का दमन भी नहीं करो।
सक्रिय ध्यान की विधि इसी का प्रयास है।
मेडिटेशन : द आर्ट ऑफ एक्स्टेसी सौजन्य ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन