जुगनुओं की याद में

आज से सत्तर साल पहले जब मैं दस साल का था, शाम होते ही भट्टीपारा स्थित अपने क्वार्टर के पिछवाड़े ...। वहाँ भुट्टे का खेत था, घर का कचरा भी वहीं एक कोने में फेंका जाता। मुझे न भुट्टों में रुचि थी और न ही कूड़े के ढेर में। वहाँ एक झिलमिल-झिलमिल कीड़ा होता, जो कभी जलता, कभी बुझता। लगता तारे धरती पर उतर आए हैं। माँ घर के पीछे वाले आँगन से आवाज लगाती - "भैया, कहाँ हो! रात को घर के पिछवाड़े यों नहीं घूमते। वहाँ कीड़े-काँटे का डर है।"

मैं उत्तर देता - "नहीं माँ, यहाँ कोई ऐसा कीड़ा नहीं है, जिससे डर हो।"
माँ पूछती - "तो वहाँ क्या है?"

मैं माँ को समझाता - "माँ वहाँ घूरे के ढेर पर उगी हुई घास पर, भुट्टों के पत्तों पर, हवा में एक कीड़ा जरूर है, जो उजाला फेंकता है और धीरे से अँधेरे में बदल जाता है, पर यह अँधेरा बहुत देर तक नहीं रहता। जरा-सी देर में पता नहीं क्या करिश्मा होता है, अँधेरे का स्थान रोशनी का एक कण ले लेता है।" "अरे बेटा, वो तो जुगनू है। उसे धीरे से पकड़ना। उसे मारना मत। वह हम लोगों के लिए भगवानजी का संदेशा लाता है।" - माँ बताती।

उस समय तो मुझे माँ के कहने पर विश्वास हो गया, पर जब मैं नौंवी में पहुँचा तो हमारे पाठ्यक्रम में अंग्रेजी की पुस्तक थी - मॉडर्न इंग्लिश प्रोज़। उसमें एक पाठ था - "द ग्लोवर्म। जुगनू।"इस पाठ में जुगनू के बारे में बहुत-सी जानकारियाँ थीं - बिलकुल नई, वैज्ञानिक और चौंकाने वाली। उसी पाठ से रहस्य खुला कि जुगनू दिन में या चाँदनी रात में क्यों नहीं दिखते, उनके अँधेरे में जलने-बुझने का कारण क्या है, वे बरसात के प्रारंभ में ही क्यों दिखाई पड़ते हैं और नमी में रहना उन्हें क्यों पसंद है? जुगनू मक्खी-मच्छर की जाति का एक कीड़ा होता है, जो लार्वा से उत्पन्ना होता है। इसके शरीर पर पंखों के नीचे, फास्फोरस का एक लेप होता है, जो जुगनू के उड़ने के उपक्रम में, पंख के बंद होते ही, फिर ज्योतिविहीन हो जाता है। यह बहुत गर्मी सहन नहीं कर पाता, न ही बहुत सर्दी। इसे नीम अँधेरा और हल्की नमी पसंद है। यदि इसे ऑक्सीजन न मिले तो इसका अस्तित्व संकट में पड़ जाता है।

दिन के प्रकाश में यह बड़े कीटों का आहार बन जाता है, इसलिए शत्रुओं से बचने के लिए रात के अँधेरे में विचरण करता है। रहने के लिए इसे शिलाओं, दीवारों की दरारें चाहिए या उखड़े हुए प्लास्टर की सेंधे, गीले पत्ते, सूखा गोबर, भीगी हुई घास, भुट्टे जैसी वनस्पतियों के पत्ते उसके आदर्श निवास स्थान हैं। तो यह गाथा है जुलाई-अगस्त के महीनों में घर के पीछे घूरे या भुट्टे के खेत में जुगनू के पाए जाने की। जहाँ ज्ञान नहीं होता, वहाँ हम आस्था और विश्वास से काम चलाते हैं। अब मेरी माँ ने "द ग्लोवर्म" पाठ तो पढ़ा नहीं था कि उन्हें जुगनू के भीतर-बाहर का रहस्य पता होता। वे तो उसे भगवानजी का संदेशवाहक ही मानती थी, तो क्या आश्चर्य? ज्ञान हमारी बहुत-सी आस्थाओं को खंडित करता है।

जुगनू को लेकर थोड़ी और समझदारी तब आई जब मैं हिन्दी कविता से परिचित हुआ। जब मैंने तुलसी, सूर और केशवदास की कविता पढ़ी तब उनके महत्व से भी परिचित हुआ। हिन्दी के काव्य-प्रेमियों के बीच किसी अज्ञात समीक्षक का वह दोहा कई पीढ़ियों से दोहराया जाता है, जिसमें सूर को सूर्य, तुलसी को शशि और केशव को उड्गन (तारे) कहा जाता रहा है। इन तीनों की तुलना में अब के कवि खद्योत (जुगनू) के समान हैं, जो बेचारे जहाँ-तहाँ प्रकाश करते हैं।

मैं पिछली ठंड में अपनी बेटी के पास दुर्ग (छत्तीसगढ़) गया था। पता चला कि वहाँ एक मोहल्ला नया-नया बसा है नाम है -जुगनू का डेरा। नाम मुझे इतना नया और रोमांटिक लगा कि सोचा, चलो देखा जाए कि जुगनू का डेरा कैसा है। गए पर वहाँ न तो जुगनू थे और न ही उनका डेरा। हाँ, वहाँ इमली का एक भारी-भरकम पेड़ जरूर था। आसपास की दुकानों के मालिकों ने बताया कि वहाँ पहले धान के खेत थे, खेत की मेड़ें थीं और बरसात शुरू होते ही पता नहीं कहाँ से जुगनू आ जाते थे और लगता था जैसे वहाँ के पेड़ों पर लाखों बल्ब जल उठे हों - सीरिज वाले, जलने-बुझने वाले छोटे-छोटे बल्ब जिसने भी जलने-बुझने वाले बल्बों का आविष्कार किया होगा, उसने जरूर जुगनुओं से प्रेरणा ली होगी। संस्कृत में इसे "दीपकीट" कहते हैं - जुगनू प्रकृति का चमत्कार है।

बचपन में जुगनू पकड़ना और उन्हें जलते-बुझते देखना बालक्रीड़ा का अद्भुत आनंद हुआ करता था। हमने उन्हें जेब में भी भरने की कोशिश की थी पर उन्हें जलने के लिए ऑक्सीजन चाहिए, बिना ऑक्सीजन के उनके शरीर पर लिपटा हुआ फास्फोरस जलने से रहा। जुगनू प्रकृति का सहचर है। वह जीवन का साथी है।

हिन्दी के बहुत से कवियों ने जुगनुओं को उल्लेख किया है, पर अपमान के भाव से, तुलसी जब राम की चर्चा करते हैं तो आदित्य के भाव से, रावण को राम की तुलना में खद्योत कहते हैं। जुगनू नज़ीर, ईसुरी जैसे कवियों का पसंदीदा कीड़ा है। अँचल के ये कवि उस सबको प्यार करते हैं, जो प्रकृति के पास है। बीरबहूटी, कनखजूरा, छुई-मुई महानगरों के कवियों के काम के नहीं।

जुगनुओं का वैभव देखना है तो जुलाई-अगस्त में रात के पहले पहर में कभी मंडला से जबलपुर की यात्रा करना चाहिए - बैलगाड़ी या कार से। लगता है जैसे नर्मदा की उपत्यका तारों से आँख मिचौली खेल रही हो। बचपन में मैंने नानी से एक कहानी सुनी थी - एक बच्चा था। एक शाम वह जंगल में आँवले तोड़ने गया था, लौटने में उसे देर हो गई। अब क्या हो?

उसने वहाँ एक जुगनू देखा, जुगनू के पीछे-पीछे चलकर वह अपने मोहल्ले तक आ गया फिर घर तक। जुगनू हमारा पथ-प्रदर्शक है, वह धरती पर हमारे लिए तारों भरा आकाश उतार लाता है। रात कितनी भी अँधेरी हो पर एकाध जुगनू भी दिख जाए तो हिम्मत बनी रहती है। जीवन में अँधेरा है, पर उजाला भी तो है। बच्चनजी ने यों ही नहीं कहा था - "है अँधेरी रात, पर दीप जलाना कब मना है।"

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