शरीर के भीतर के 28 प्राणों को जानकर रह जाएंगे हैरान

अनिरुद्ध जोशी
हमारा शरीर ब्रह्मांड की एक ईकाई है। जैसा ऊपर, वैसा नीचे। जैसा बाहर, वैसा भीतर। संपूर्ण ब्रह्मांड को समझने के बजाय यदि आप खुद के शरीर की संवरचना को समझ लेंगे तो ब्राह्मांड और उसके संचालित होने की प्रक्रिया को भी समझ जाएंगे। यहां प्रस्तुत है शरीर में स्थित प्राण की स्थिति के बारे में।
 
प्राण के निकल जाने से व्यक्ति को मृत घोषित किया जाता है। यदि प्राणायाम द्वारा प्राण को शुद्ध और दीर्घ किया जा सके तो व्यक्ति की आयु भी दीर्घ हो जाती है। प्राण के विज्ञान को जरूर समझें। व्यक्ति जब जन्म लेता है तो गहरी श्वास लेता है और जब मरता है तो पूर्णत: श्वास छोड़ देता है। प्राण जिस आयाम से आते हैं उसी आयाम में चले जाते हैं। हाथी, व्हेल और कछुए की आयु इसलिए अधिक है क्योंकि उनके श्वास प्रश्वास की गति धीमी और दीर्घ है।
 
 
वैदिक विज्ञान के अनुसार :
जिस तरह हमारे शरीर के बाहर कई तरह की वायु विचरण कर रही है उसी तरह हमारे शरीर में भी कई तरह की वायु विचरण कर रही है। वायु है तो ही प्राण है। अत: वायु को प्राण भी कहा जाता है। वैदिक ऋषि विज्ञान के अनुसार कुल 28 तरह के प्राण होते हैं। प्रत्येक लोक में 7-7 प्राण होते हैं।
 
जिस तरह ब्राह्माण में कई लोकों की स्थिति है जैसे स्वर्ग लोक (सूर्य या आदित्य लोक), अं‍तरिक्ष लोक (चंद्र या वायु लोक), पृथिवि (अग्नि लोक) लोक आदि, उसी तरह शरीर में भी कई लोकों की स्थिति है।
 
 
शरीर में कंठ से दृदय तक सूर्य लोक, दृदय से नाभि तक अंतरिक्ष लोक, नाभि से गुदा तक पृथिवि लोक की स्थिति बताई गई है। अर्थात हमारे शरीर की स्थिति भी बाहरी लोकों की तरह है। यही हम पृथिति लोक की बात करें तो इस अग्नि लोक भी कहते हैं। नाभि से गुदा तक अग्नि ही जलती है। उसके उपर दृदय से नाभि तक वायु का अधिकार है और उससे भी उपर कंठ से हृदय तक सूर्य लोक की स्थिति है। कंठ से उपर ब्रह्म लोक है।
 
 
कंठ से गुदा तक शरीर के तीन हिस्से हैं। उक्त तीन हिस्सों या लोकों में निम्नानुसार 7,7 प्राण हैँ। कंठ से गुदा तक शरीर के तीन हिस्से हैं। उक्त तीन हिस्सों या लोकों में निम्नानुसार 7,7 प्राण है। ये तीन हिस्से हैं- कंठ से हृदय तक, हृदय से नाभि तक और नाभि से गुदा तक। पृथिवि लोक को बस्ती गुहा, वायुलोक को उदरगुहा व सूर्यलोक को उरोगुहा कहा है। इन तीनोँ लोको मेँ हुए 21 प्राण है।
 
पांव के पंजे से गुदा तक तथा कंठ तक शरीर प्रज्ञान आत्मा ही है, किंतु इस आत्मा को संचालन करने वाला एक और है- वह है विज्ञान आत्मा। इसको परमेष्ठी मंडल कहते हैं। कंठ से ऊपर विज्ञान आत्मा में भी 7 प्राण हैँ- नेत्र, कान, नाक छिद्र 2, 2, 2 तथा वाक (मुंह)। यह 7 प्राण विज्ञान आत्मा परमेष्ठी में हैँ। 
 
अब परमेष्ठी से ऊपर मुख्य है स्वयंभू मंडल जिसमें चेतना रहती है यही चेतना, शरीर का संचालन कर रही है अग्नि और वायु सदैव सक्रिय रहते हैं। आप सो रहे है कितु शरीर मेँ अग्नि और वायु (श्वांस) निरंतर सक्रिय रहते हैं। चेतना, विज्ञान आत्मा ही शरीर आत्मा का संचालन करती है। परमेष्ठी में ठोस, जल और वायु है। यही तीनों, पवमान सोम और वायव्यात्मक जल हैं। इन्हीं को हाइड्रोजन और ऑक्सीजन कहते हैं जल और वायु की अवस्था 3 प्रकार की है अत:जीव भी तीन प्रकार अस्मिता, वायव्य और जलज होते हैं। चेतना को भी लोक कहा है। इसे ही ब्रह्मलोक, शिवलोक या स्वयंभूलोक कहते हैं। ब्रह्मांड भी ऐसा ही है।
 
 
योग विज्ञान के अनुसार :
'प्राण' का अर्थ योग अनुसार उस वायु से है जो हमारे शरीर को जीवित रखती है। शरीरांतर्गत इस वायु को ही कुछ लोग प्राण कहने से जीवात्मा मानते हैं। इस वायु का मुख्‍य स्थान हृदय में है। इस वायु के आवागमन को अच्छे से समझकर जो इसे साध लेता है वह लंबे काल तक जीवित रहने का रहस्य जान लेता है। क्योंकि वायु ही शरीर के भीतर के पदार्थ को अमृत या जहर में बदलने की क्षमता रखती है।
 
 
हम जब श्वास लेते हैं तो भीतर जा रही हवा या वायु मुख्यत: पांच भागों में विभक्त हो जाती है या कहें कि वह शरीर के भीतर पांच जगह स्थिर और स्थित हो जाता हैं। लेकिन वह स्थिर और स्थित रहकर भी गतिशिल रहती है।
 
ये पंचक निम्न हैं- (1) व्यान, (2) समान, (3) अपान, (4) उदान और (5) प्राण।
 
वायु के इस पांच तरह से रूप बदलने के कारण ही व्यक्ति की चेतना में जागरण रहता है, स्मृतियां सुरक्षित रहती है, पाचन क्रिया सही चलती रहती है और हृदय में रक्त प्रवाह होता रहता है। इनके कारण ही मन के विचार बदलते रहते या स्थिर रहते हैं। उक्त में से एक भी जगह दिक्कत है तो सभी जगहें उससे प्रभावित होती है और इसी से शरीर, मन तथा चेतना भी रोग और शोक से घिर जाते हैं। मन-मस्तिष्क, चरबी-मांस, आंत, गुर्दे, मस्तिष्क, श्वास नलिका, स्नायुतंत्र और खून आदि सभी प्राणायाम से शुद्ध और पुष्ट रहते हैं। इसके काबू में रहने से मन और शरीर काबू में रहता है।
 
 
1.व्यान:- व्यान का अर्थ जो चरबी तथा मांस का कार्य करती है।
2.समान:- समान नामक संतुलन बनाए रखने वाली वायु का कार्य हड्डी में होता है। हड्डियों से ही संतुलन बनता भी है।
3.अपान:- अपान का अर्थ नीचे जाने वाली वायु। यह शरीर के रस में होती है।
4.उदान:- उदान का अर्थ उपर ले जाने वाली वायु। यह हमारे स्नायुतंत्र में होती है।
5.प्राण:- प्राण वायु हमारे शरीर का हालचाल बताती है। यह वायु मूलत: खून में होती है।
 
 
प्राणायाम करते या श्वास लेते समय हम तीन क्रियाएं करते हैं- 1.पूरक 2.कुम्भक 3.रेचक। उक्त तीन तरह की क्रियाओं को ही हठयोगी अभ्यांतर वृत्ति, स्तम्भ वृत्ति और बाह्य वृत्ति कहते हैं। अर्थात श्वास को लेना, रोकना और छोड़ना। अंतर रोकने को आंतरिक कुम्भक और बाहर रोकने को बाह्म कुम्भक कहते हैं।

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