बैठकबाजी के अड्‌डे कॉफी हाउस पर किताब

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उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ के हृदय स्थल हजरतगंज में स्थित बैठकबाजी का अड्‌डा कहवाखाना (आधुनिक कॉफी हाउस) हुआ करता है। ऐसा लगता है कि लखनऊ में कहवा का चलन ईरान से आया होगा। यह बैठकबाजी का अड्‌डा ही नहीं राजनीति, साहित्य को दिशा देने का केन्द्र रहा है। प्रदेश के कई मुख्यमंत्रियों को लगता था कॉफी हाउस साजिश का अड्‌डा। इसीलिए स्व. चौधरी चरणसिंह व सीबी गुप्ता अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में कभी भी कॉफी हाउस में बैठकी करने नहीं आए।

यह कहना है पत्रकार प्रदीप कपूर का। जिनकी कॉफी हाउस और वहां बैठकबाजी करने वालों के संस्मरणों पर आधारित नई पुस्तक बाजार में आई है, जिसकी सर्वत्र प्रशंसा हो रही है। लखनऊ कॉफी हाउस के किस्सों, कहकहों और रचनात्मक कार्यगुजारियों को सामने लाते हुए हाल ही में हिन्दी वांग्मय निधि, हमारा लखनऊ पुस्तकमाला द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'लखनऊ का कॉफी हाउस' चर्चा में है।

पत्रकार प्रदीप कपूर ने लखनऊ कॉफी हाउस के इतिहास और वर्तमान के रूप को पुस्तक में उकेर कर रख दिया है। पुस्तक में कई दिलचस्प जानकारियां भी हैं। लखनऊ कॉफी हाउस को चंडूखाना भी कहा जाता है। चंडूखाना नवाबी दौर से गुलजार रहा है। यहां लोग जुटते और अफीम की पिनक में बेसिरपैर की बातें उड़ाया करते।

कॉफी हाउस बैठकी के लिए मशहूर है। पुस्तक में कॉफी हाउस के बैठकबाजों और उनकी शखिसयतों का बडा रोचक जिक्र है। विभिन्न राजनीतिक व साहित्यिक धाराओं के मिलन बिन्दु उनकी चर्चा के स्तर व आत्मीयता की की मिसालों का जिक्र है। इन्हें नहीं भाता था कॉफी हाउस.... आगे पढ़ें...

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कुछ लोग ऐसे भी चर्चा में रहे जिन्हें कॉफी हाउस की बैठकी नही भाती थी। जिनमें पूर्व मुख्यमंत्री स्व. चौधरी चरणसिंह व स्व. चन्द्रभान गुप्त कभी कॉफी हाउस नहीं गए। उनका मानना था कि उनके खिलाफ यहां साजिश होती है। पुस्तक में कई ऐसे किस्से भी हैं जो बतातें हैं कि अपनी निजी धारणा के बावजूद राजनीतिक शख्सियतें कॉफी हाउस में चलने वाली गतिविधियों का कभी बुरा नही मानती थी। किताब में कॉफी हाउस के किस्सों और इसके किरदारों के चरित्र को लेखक ने बड़ी चतुरता के साथ बखान किया है।

कॉफी हाउस यह स्थान बेठकबाजों का अड्‌डा है। यहां अमृतलाल नागर, भगवती चरण वर्मा, यशपाल जैसे साहित्यकारों, चंद्रशेखर जैसे राजनेताओं को नियमित कॉफी हाउस आते और घंटों बैठते थे। यहां नियमित आने और बैठकी करने वालों में जस्टिस हैदर अब्बास, कम्युनिष्ट अतुल अंजान, पत्रकार स्व. विद्यासागर, पूर्व प्रधान मंत्री स्व. चन्द्रशेखर, इब्नेहसन, पूर्व मेयर डा. दाऊजी गुप्ता, लेखक के पिता व ब्लिट्‌ज अखबार के संवाददाता स्व. विशन कपूर, लखनऊ के वर्तमान सांसद लालजी टंडन, कांग्रेसी नेता अमीर हैदर आदि रहे हैं।

लेखक प्रदीप कपूर ने कॉफी हाउस की दहलीज पर जब कदम तब रखा तब उनके पिता पत्रकार विशन कपूर के पास कॉफी हाउस के पड़ोस में स्थित उनके घर पर महत्वपूर्ण लोगों के फोन आते थे। फोन की सूचना देने के लिए बचपन में लेखक अपने पत्रकार पिता के पास सूचना देने के लिए जाया करता था और यही यादें लेखक के पुस्तक का अंश बनी। ये भी लखनऊ के कुछ खास अड्‍डे.... आगे पढ़ें...

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लेखक ने कॉफी हाउस के सहारे लखनऊ के अन्य बैठकबाजी के अड्‌डों पर अपनी नजर फेरी और वहां चल रही गतिविधियों की जानकारियां सामने लाए हैं। जैसे चौक में राजा ठंडाई की दुकान, अमीनाबाद स्थित अब्दुल्ला होटल, सुन्दरसिंह शरबत वाले, कंचना होटल, कैसरबाग का जनता कॉफी हाउस, नजीराबाद का नेशनल कैप स्टोर, साहू सिनेमा परिसर स्थित न्यू इंडिया कॉफी हाउस, पार्क रोड स्थित पंडित नेकराम शर्मा का आवास और हजरतगंज का बैनबोज रेस्टोरेंट। यह भी बैठकबाजी के मशहूर अड्‌डे रहे हैं। इन अड्‌डों का लेखक ने जानबूझकर जिक्र इसलिए किया क्योंकि देश प्रदेश के नामचीन कई हस्तियां समाजसेवी, सियासी और साहित्यिक शखिसयतें इनकी जान हुआ करती थीं। आज का कॉफी हाउस इनसे इतर और बैठकी के लिए ही मशहूर है।

लेखक प्रदीप कपूर ने कॉफी के गुणों और कॉफी के इतिहास पर भी अपनी लेखनी चलाई है कि किस प्रकार अरब से उठी कॉफी की महक यूरोप लंदन, फ्रांस सहित सारी दुनिया में छा गई। एक समय ऐसा आया जब यूरोप सहित पूरी दुनिया में कॉफी हाउस खुलने लगे। इन कॉफी हाउस की खूबी रही कि यहां राजनीतिक व साहित्यक लोगों की बैठकी और विचार का केन्द्र रहे। कई बार इन पर प्रतिबंध लगे पर इनकी धार समय के साथ कुन्द होती रही। क्या कहते हैं पुस्तक के लेखक....

लखनऊ शहर में बैठकबाजी की परंपरा अभी भी चली आ रही है, जहां विभिन्न विषयों पर बहस-मुबाहसे होते रहते हैं। आज भी नक्कास, चौक में रेड रोज चाय की दुकान पर भीड़ लगी रहती है, जहां रोज के बैठने वाले एक प्याला चाय पर
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बहस करते दिखाई देते हैं। लखनऊ के मौजूदा सांसद लालजी टंडन का कहना है कि चौक में राजा ठंडाई की दुकान शाम को कॉफी हाउस की तरह बैठकबाजी का अड्‌डा बन जाती थी। राजा ठंडाई की दुकान चौक में चौबत्ती के बीच में थी जहां शाम को खासतौर से तैयार होकर लोग आते थे और नियमित बैठकें होती थीं। - प्रदीप कपूर


लेखक के बारे में : प्रदीप कपूर का जन्म 7 दिसंबर 1955 को आगरा में हुआ था। उनकी आरंभिक शिक्षा आगरा और उच्च शिक्षा लखनऊ में हुई। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से बीए और पश्चिमी इतिहास में एमए की डिग्री प्राप्त की। प्रदीप को छात्र जीवन से ही लिखने का शौक रहा है। उनका हिन्दी में पहला लेख, 'हिन्दी का अपमान क्यों' 1970 में आगरा के अमर उजाला में छपा था। तब से अब तक उनके लेख हिन्दी व अंग्रेजी भाषा में देश भर के तमाम अखबारों व मैग्जीन में छपते रहे हैं।

वे छात्र जीवन में ही पत्रकारिता से भी जुड़ गए थे। लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्र रहते हुए वे देश के महान पत्रकार निखिल चक्रवर्ती द्वारा संचालित अंग्रेजी न्यूज एजेंसी आईपीए के लिए हिन्दी में संवाद लिखते रहे। प्रदीप कपूर ने अपने पिता व पत्रकार स्व. विशन कपूर के मार्ग दर्शन में प्रदीप प्रकाशन फीचर का संचालन किया।

उन्होंने वर्ष 1979 के जून माह में लखनऊ से प्रकाशित 'द पायनियर' ज्वाइन किया। उसके बाद 1981 सितंबर से बंबई से प्रकाशित ब्लिट्‌ज के लखनऊ में ब्यूरो चीफ बने और 1998 के अंत तक उससे जुड़े रहे। पिछले 9 वर्ष से दिल्ली से प्रकाशित हार्डन्यूज के लखनऊ में ब्यूरो चीफ हैं। उन्होंने डकैतों पर खबर लिखने के लिए विशेष रुप से चंबल व कानपुर के जंगलों के काफी चक्कर लगाएं। इस अध्ययन के आधार पर ब्लिट्‌ज में उनके कई लेख छपे।

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